Maharana Sanga - 7 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा - भाग 7

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महाराणा सांगा - भाग 7

पृथ्वीराज को देश-निकाला

पृथ्वीराज अब राजकुमार नहीं रहे थे। उन्हें महाराणा ने चित्तौड़ की सीमा से बाहर निकल जाने का दंड दिया था। एकबारगी तो पृथ्वीराज सन्नाटे में आ गए, फिर विरोध करने की सोची, परंतु महाराणा के रक्तिम नेत्रों को देखकर वे साहस न जुटा पाए। 

‘‘तेरे जैसे भ्रातृद्रोही षड्यंत्रकारी पुत्र की हमें कोई आवश्यकता नहीं। जिसके हृदय में परिवार के लिए प्रेम और राज्य के प्रति शुभेच्छा न हो, उस कुलघाती को चित्तौड़ की धरती पर बोझ बनकर हम नहीं रहने देंगे। यदि आज के बाद चित्तौड़ में तेरी सूरत दिखाई दी तो हम तुझे अपनी तलवार से मृत्युदंड देंगे। आज से तू चित्तौड़ के लिए मर गया।’’ 

पृथ्वीराज को इन शब्दों ने अंदर तक हिला दिया। वह जान गया था कि उसका भेद खुल गया है, परंतु कैसे? यह वह समझ नहीं पा रहा था। किसने उसके बने-बनाए खेल को बिगाड़ दिया? वह माता के पास भी गया, जिसने उसे देखकर मुँह फेर लिया। कोई शंका नहीं थी कि अब चित्तौड़ से उसका दाना-पानी उठ गया था। वह अपने कुछ विश्वासपात्र साथियों के साथ मुँह लटकाए नगर से बाहर आ गया था। रह-रहकर उसे अपने बिगडे़ खेल की याद आती और वह रुआँसा हो उठा! पर अब क्या हो सकता था? उसमें इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि वह महाराणा के निर्णय के विरुद्ध चले जाता या कुछ बल प्रयोग का साहस करता। 

पृथ्वीराज ने एक तरह से अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी। पारंपरिक अधिकार से उसे मेवाड़ का राज्य मिल भी सकता था, परंतु अब उसे उससे भी वंचित किया जा चुका था। माता चारणी सच ही कहती थी कि वह कुछ भी करे, परंतु मेवाड़ का सिंहासन साँगा को मिलेगा। साँगा अभी जीवित था, इसमें तो कोई संदेह नहीं था। 

अपने साथियों के साथ चलते-चलते पृथ्वीराज चित्तौड़ की सीमा से बाहर आ गए और अँधेरा होने पर वहीं रेगिस्तान में पड़ाव डाल लिया। उसके पास भोजन के लिए भी कुछ नहीं था, परंतु उसे भूख ही कहाँ थी?

 ‘‘राजकुमार!’’ भदेल राठौड़ नाम का साथी बोला, ‘‘यह तो बड़ी उल्टी चाल पड़ी। हमने तो प्राणपण से आपकी सहायता की और यह पुरस्कार पाया।’’ 

‘‘ऐसे खेलों में ऐसा ही होता है, राठौड़!’’ जन्ना नामक दूसरा साथी बोला, ‘‘यह शतरंज की बिसात है। इसमें कौन मोहरा चलाता है और कौन मोहरा बनता है, पता नहीं चलता। राजकुमार ने अपनी समझ से सब ठीक किया, पर चाल उल्टी पड़ गई।’’

 ‘‘तुम सब लोग आज मुझे कोस रहे हो शायद!’’ पृथ्वीराज धीरे से बोला।

 ‘‘नहीं राजकुमार!’’ सिंहल नामक सैनिक बोला, ‘‘हम प्रत्येक परिस्थिति में आपके साथ हैं। आपने सदैव हमारा हित किया है। अब संकट के समय हम आपका साथ छोड़ने की कृतघ्नता नहीं कर सकते। हमारे प्राण आपके लिए प्रस्तुत हैं। यह सूरज और चाँद के मिलन का समय है, इस समय हम शपथ लेते हैं कि आप जहाँ कहेंगे, वहीं हम अपना रक्त बहा देंगे।’’ 

‘‘हाँ राजकुमार पृथ्वी, भले ही कोई और आपको चित्तौड़ का अधिपति न माने, परंतु आप हमारे लिए आज भी श्रद्धेय हैं।’’

 ‘‘मित्रो! आप सबका साथ और निष्ठा देखकर मुझे अपना कष्ट कम होता प्रतीत हो रहा है। हमने एक खेल खेला और हार गए। जीवन में यह सब चलता रहता है, परंतु जीवन समाप्त तो नहीं हो जाता।’’ 

‘‘समाप्त होने में भी क्या कसर रह गई थी। राणाजी ने हम पर दया दिखाई और मृत्युदंड नहीं दिया, अन्यथा अब तक स्वर्गवासी हो चुके होते।’’ 

‘‘यह स्थिति क्या मृत्युदंड से कम है कि हम इस रेत में लेटे पड़े हैं। यहाँ न भोजन की आशा है, न ही जल की।’’ 

‘‘मित्रो, हमसे त्रुटि कहाँ हुई?’’ पृथ्वी ने उलझन भरे स्वर में कहा, ‘‘सब कुछ तो ठीक था।’’ 

‘‘और कुमार जयमल कैसे इस षड्यंत्र से साफ बच निकले?’’ 

‘‘वही, कर गया विश्वासघात!’’ पृथ्वीराज चौंककर उठ बैठा, ‘‘उसी ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचा है और...और अब तो मुझे भी लगता है कि यह सब षड्यंत्र उसी ने रचा था, उसने हमें मोहरा बनाकर हम दोनों भाइयों को राजसत्ता से बाहर कर दिया और स्वयं दूध का धुला बनकर रह गया। वाह भोले जयमल! मूर्ख सहायक तो मैं बना।’’ 

‘‘राजकुमार इतनी बुद्धि कुमार जयमल में कहाँ से आई?’’

 ‘‘अब सब स्पष्ट है। संदेह की कोई बात ही नहीं रह गई। काका सूरजमल ने अपनी दार्शनिकता और राय दे-देकर उस भोले कुमार को चतुर बना दिया था। उसे करना भी क्या था? सबकुछ तो मुझे करना पड़ा। उसे तो अपने लाभ के लिए केवल पिताश्री को भरमाना था और सारा दोष मेरे ऊपर डालकर यह होना भी कठिन नहीं था। आह! मैं मूर्ख बन गया।’’ 

‘‘राजकुमार! अभी हमें कुमार जयमल के भी मूर्ख बनने की आशंका है।’’

 ‘‘हाँ, हो सकता है। इस संभावना से मना भी नहीं किया जा सकता। काका सूरजमल इस राजनीति के मँजे हुए खिलाड़ी हैं और उनके तो रक्त में भी यह कुटिलता होगी, जिसे वे विद्वत्ता में छुपाए रहते हैं।’’ 

‘‘यदि ऐसा है तो समझो कि उनका उद्देश्य तो सफल हो गया। हमारे राजकुमार निर्वासित हो गए। कुँवर साँगा की खोज-खबर नहीं। जैसा उन्हें घायल बताते हैं तो जीवित भी हो सकते हैं या नहीं भी। शेष रहे कुमार जयमल...तो उन्हें तो काका जैसे चतुर सुजन कठपुतली की भाँति नचाते रहेंगे।’’

 ‘‘प्रश्न उठता है कि अब क्या करना चाहिए?’’ 

‘‘अपने अपराध का प्रायश्चित्त और शक्ति-संचय।’’ पृथ्वीराज ने कहा, ‘‘अब यही एकमात्र मार्ग है, जिससे मेवाड़ में राजकुमार पृथ्वीराज को खोया हुआ सम्मान और प्रतिष्ठा वापस मिल सकती है। मेवाड़ के शत्रुओं का दमन करके अपनी राजनिष्ठा को दिखाना होगा, जिससे महाराणा के मन में हमारी आवश्यकता उत्पन्न हो सके। हमें वह कार्य करने होंगे, जिनसे पिताश्री को प्रसन्नता मिले और वे हमारे अपराध को भूलने का प्रयास करें।’’ 

‘‘सत्य कहा राजकुमार! अच्छाई एक दिन बुराई को समाप्त कर देती है। सत्कर्मों से पाप को धोया जा सकता है। यदि हम मेवाड़ के हित में कुछ ऐसे कार्य करें, जिससे राणाजी को प्रसन्नता हो तो अवश्य ही उनका मन परिवर्तन होने की संभावना रहेगी।’’ 

‘‘ऐसे कौन से कार्य हो सकते हैं?’’

 ‘‘गोंडवाड़ में मेवाड़ का शासन है, लेकिन वह पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश अरावली के ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र के कारण जंगली जातियों की शरणस्थली है, जहाँ सदैव से हमारी सेना असहाय रही है। वहाँ के निवासी इन जंगली लुटेरों से भयभीत हैं और आए दिन दरबार में इनकी शिकायत आती रहती है। यदि हम वहाँ के विद्रोह का दमन करके प्रजा को निर्भय करें तो राणाजी बहुत प्रसन्न होंगे।’’ 

‘‘सुना है कि इस क्षेत्र में मीणा जाति के लोगों ने चित्तौड़ के समानांतर अपना शासन स्थापित कर रखा है और उनके सरदारों का मुख्य दरबार नाडोलोई में लगता है। आए दिन हमारे सैनिकों की हत्या होती रहती है। सार यह है कि गोंडवाड़ मेवाड़ का हिस्सा होकर भी अशांत और मेवाड़ से अलग है।’’

 ‘‘फिर सोचना क्या है?’’ पृथ्वीराज ने कहा, ‘‘हम गोंडवाड़ को पूरी तरह भयमुक्त करके मेवाड़ का शासन स्थापित करेंगे। उन लुटेरे मीणाओं को हम वहाँ से मार भगाएँगे और मेवाड़ की शक्ति का वर्चस्व स्थापित करेंगे।’’ 

‘‘परंतु यह सरल कार्य नहीं है, राजकुमार!’’ 

‘‘अब सरल कार्य करने से पृथ्वीराज का भला नहीं होगा मित्रों, ऐसे ही दुष्कर और राज्यहित के कार्यों से अपनी आवश्यकता पैदा करनी होगी, अन्यथा राजसुखों की बात भूलनी होगी।’’ पृथ्वीराज ने दृढता से कहा। 

********

श्रीनगर रियासत में साँगा का सम्मान 
साँगा अब सैनिक रूप में श्रीनगर में राव कर्मचंद के यहाँ नौकरी कर रहे थे। राव कर्मचंद एक महत्त्वाकांक्षी राजा थे, जो अपनी छोटी सी रियासत का सीमा-विस्तार करना चाहते थे। उनके पास अधिक सेना भी नहीं थी और साधन भी नहीं थे। उनके राज्य की दक्षिणी और पश्चिमी सीमा तुर्क रियासतों से लगी थी, जिन पर अधिकार करने का स्वप्न उनके राजपूती हृदय में बहुत पहले से था, परंतु कभी सफलता न मिल पाती थी। तुर्क सेना अत्यंत निडर और निर्दयी थी और संख्या में भी अधिक थी, तो राव कर्मचंद को अपना स्वप्न पूरा होने के बीच यह बाधा सदैव दिखाई देती थी। जब से यह नया सैनिक आया था, तब से कुछ आशा सी बँधी अवश्य थी, परंतु सफलता के प्रति वे अभी भी आश्वस्त नहीं थे, फिर भी उन्होंने उस नए सैनिक को आजमाने का मन बना लिया था। अपने विश्वस्त मंत्रियों से वे इसी विषय में विचार-विमर्श कर रहे थे।

 ‘‘हमारी पश्चिमी सीमा के कई गाँव तुर्कों द्वारा हमसे छीन लिये गए।’’ राव ने गंभीरता से कहा, ‘‘विख्यात परमार राजपूतों की इस रियासत पर तुर्कों की कुदृष्टि लगी हुई है और यदि हमें कुछ अन्य राजपूत रियासतों की सहायता न मिल रही होती तो अब तक हमारा विलय इन्हीं तुर्क रियासतों में हो जाता, जो कि अब धीरे-धीरे किया जा रहा है। हमारे पश्चिमी और दक्षिणी सीमाओं के गाँव-नगर हमसे छीने जा रहे हैं। हम चाहते हैं कि हमें अब देखते नहीं रहना चाहिए।’’

 ‘‘महाराज! हम मौन कब बैठे हैं? कई बार तो शत्रुओं को अपनी सीमा से बाहर करने का प्रयास कर चुके हैं, परंतु सफलता नहीं मिल पाई ।’’ सेनापति ने कहा। 

‘‘उन असफलताओं का कारण हम जान चुके हैं। हमारी सेना में अभी तक वह आत्मविश्वास ही नहीं था, जिससे अपनी सुरक्षा और शत्रु पर आक्रमण करने में सफलता मिलती। किसी भी सेना में आत्मविश्वास का होना जरूरी है और यह तब आता है, जब कुछ सफलताएँ प्राप्त होती हैं। हम चाहते हैं कि पुनः अपने उन सीमावर्ती गाँवों को मुक्त कराने के प्रयास किए जाएँ और इस बार सेना का संचालन हमारे नए वीर सैनिक कुँवर सिंह को दिया जाए।’’ 

‘‘महाराज, उसके बल और पराक्रम में तो हमें भी कोई संदेह नहीं है, परंतु उसकी निष्ठा अभी सिद्ध नहीं हुई है। हम उसका नाम भी नहीं जानते। आपने ही उसे कुँवर सिंह का नाम दिया है।’’ 

‘‘महामंत्री! संसार में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जिनके बारे में सबकुछ उनके ललाट पर लिखा होता है। कुँवर सिंह भी उन्हीं में से एक है।भले ही हम उसके विषय में कुछ नहीं जानते, परंतु उसका तेज देखकर हमारा अनुभव कहता है कि वह कोई साधारण सैनिक नहीं है। हमें तो लगता है, वह श्रीनगर का उद्धार करने ही आया है। उसकी निष्ठा और पराक्रम की परख हमें करनी चाहिए।

 ‘‘अवश्य महाराज! उसने आन-ही-आन में हमारे डेढ़ सौ सैनिक मार डाले और इससे भी अधिक घायल कर दिए तो उसके रणकौशल में तो संदेह नहीं। अब शेष उसकी निष्ठा की परख रह जाती है, जो श्रीनगर के प्रति हुई तो हमें बहुत लाभ हो सकता है और यह परख तो शत्रु के रण में ही हो सकती है।’’ 

‘‘कुँवर सिंह को हमारे पास लाया जाए।’’ राव कर्मचंद सिंह वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने सभी का अभिवादन किया।

 ‘‘कुँवर सिंह, यह तो सिद्ध हो गया कि तुम एक वीर पुरुष हो। तुम्हारी दक्षता और युद्धकला विशेष है। तुम्हारी चुनौतियों से लड़ने का संकल्प हमें पसंद आया। अपनी वीरता का प्रमाण देने में तुमने कोई कसर नहीं छोड़ी, परंतु क्या इस पराक्रम का श्रीनगर को भी कोई लाभ होगा?’’ राव कर्मचंद ने गंभीरता से कहा।

 ‘‘महाराज! मैं आपका सैनिक हूँ। मेरा कार्य आपके आदेश का पालन करना है। अपने प्राण देकर भी यदि मैं आपको प्रसन्न कर सकता हूँ तो मुझे संकोच नहीं होगा। आप आदेश करें और मेरी निष्ठा देखें।’’ साँगा ने कहा।

 ‘‘यही हमारा विचार भी है, कुँवर सिंह। हमारी रियासत उतनी शक्तिशाली नहीं है, जिससे हम बहुत बड़े साम्राज्य का स्वप्न देखें और हमें अपनी रियासत पर किसी का अतिक्रमण भी स्वीकार नहीं। हमारी पश्चिमी और दक्षिणी सेना तुर्क रियासतों से घिरी है, जो हमारे कई गाँवों में अतिक्रमण कर चुके हैं। हमने बहुत प्रयास किए हैं, परंतु शत्रु हमसे संख्या और साधन में प्रबल हैं। हम चाहते हैं कि तुम हमारे उन गाँवों को तुर्कों से मुक्त कराओ।’’ 

‘‘आदेश का पालन होगा महाराज! आप मुझे एक सैन्य टुकड़ी दें, जिसे मैं अपने ढंग से प्रशिक्षित कर सकूँ और थोडे़ से ही सैनिकों से शत्रु का दमन कर सकूँ। यह व्यापक युद्ध करने की स्थिति तो नहीं है। अतः अपने बल और नीति का हमें चतुराई से प्रयोग करना होगा।’’ साँगा ने कहा, ‘‘महाराज, यदि स्वयं राजा सैनिक की प्रशंसा करे तो उसका मनोबल बढ़ता है, परंतु अकारण की हुई प्रशंसा अखरती है। केवल बातों से मन प्रसन्न करने से कुछ नहीं होता। इच्छित परिणाम देने पर मिली प्रशंसा ही सच्ची प्रशंसा होती है।’’ 

‘‘तुम वीर ही नहीं, नीतिवान भी हो। सेनापति, कुँवर सिंह को इस अभियान के लिए जो भी साधन चाहिए, उपलब्ध कराए जाएँ।’’

 ‘‘जो आज्ञा महाराज!’’ सेनापति ने कहा। 

कुँवर साँगा को उनकी इच्छा के अनुसार सौ सैनिकों की टुकड़ी दे दी गई, जिसे उन्होंने कडे़ प्रशिक्षण से कुछ ही दिनों में आत्मविश्वास से भर दिया। वे दिन-रात उन सैनिकों में विजय की लालसा जगाते रहे और युद्ध के सभी नियम भी सिखाते रहे। उनके प्रशिक्षण से एक विशेष सैन्य टुकड़ी तैयार हो गई। राव कर्मचंद को क्षण-क्षण की सूचना मिलती रही और वे आशान्वित होते रहे।

अंततः एक दिन आज्ञा लेकर साँगा अपने पचास कुशल सिपाहियों को साथ लेकर व पचास को कुछ दूरी से पीछे आने का निर्देश देकर अभियान पर निकल गए। उनका लक्ष्य पश्चिमी सीमा से सटा भदराण गाँव था, जहाँ इन दिनों तुर्क सरदार का हुक्म चलता था। साँगा के वीर सैनिकों ने पाँच टुकडि़यों में बँटकर गाँव में प्रवेश किया और तुर्क सैनिकों पर टूट पड़े । साँगा ने तुर्क सरदार को खोजना आरंभ कर दिया। इस आकस्मिक हमले से घबराए तुर्क सैनिक बाहर की ओर भागने लगे, परंतु गाँव के चारों ओर साँगा के सैनिक थे। इस युद्धनीति से भदराण गाँव को तुर्क विहीन कर दिया गया। सफलता का समाचार राव कर्मचंद को भेज दिया गया। 

साँगा ने तत्पश्चात् अपना यह अभियान एक माह तक जारी रखा और पश्चिमी सीमा के अतिक्रमण को समाप्त कर दिया। वे सफल होकर श्रीनगर लौटे और राव कर्मचंद ने उनका भव्य स्वागत किया। अब कोई संदेह नहीं रह गया था कि श्रीनगर को एक ऐसा योद्धा मिल गया है, जो किसी भी कठिन चुनौती का मुँहतोड़ जवाब दे सकता है। 

साँगा ने फिर दक्षिणी सीमाओं पर अभियान आरंभ किया। इस बार पहले से अधिक कठिन युद्ध हुए, परंतु साँगा की तलवार ने सब विजित किए। श्रीनगर रियासत अब अपने मूल रूप में आ गई थी। राव कर्मचंद को सुख-शांति का अनुभव हुआ। साँगा का सम्मान भी बढ़ा और पद भी। उन्हें श्रीनगर सेना का मुख्य प्रशिक्षक नियुक्त किया गया।