साँगा के गुप्तवास का रहस्योद्घाटन
कुँवर साँगा के विषय में मेवाड़ से जानकारी प्राप्त करके लौटे दो गुप्तचरों में से एक कुछ अधिक ही रोमांचित हो रहा था। उसे यह जानकर आश्चर्य हो रहा था कि मेवाड़ का पराक्रमी राजकुमार श्रीनगर में रह रहा है और यह बात कम लोग ही जानते हैं। उन जाननेवालों में अब वह भी था। एक रात उसने अपनी यह जानकारी अपनी पत्नी के सामने कह दी।
‘‘जानती है कि हमारे महाराज के जमाता कौन हैं? वह कोई साधारण आदमी नहीं हैं। वह तो बहुत बड़े राजकुमार हैं। सारे राजपूताने में उसके कुल की जो मान-प्रतिष्ठा है, वह किसी अन्य कुल की नहीं, परंतु उन्होंने अपने भाइयों के षड्यंत्र से अपने प्राण बचाकर यहाँ शरण ली है।’’
‘‘अच्छा! कौन हैं वह? आपको तो पता होगा?’’
‘‘मुझे ही सबसे पहले पता लगा।’’ वह गर्व से बोला, ‘‘जब महाराज ने मुझे चित्तौड़ भेजा और मैंने सबकुछ जान लिया। वह कुँवर संग्राम सिंह हैं, जिसे अपने सगे भाइयों से प्राणों का भय है।’’
‘‘सगे भाइयों से, ऐसा क्यों?’’
‘‘सिंहासन का चक्कर है। इन राजवंशों में यह तो होता ही रहता है। षड्यंत्र और वैमनस्य तो चलते ही रहते हैं। वास्तव में मेवाड़ की प्रजा कुँवर संग्राम सिंह को महाराणा बनाने की इच्छुक थी, परंतु बड़े राजकुमार पृथ्वीराज को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने अपने अधिकार की रक्षा के लिए इनकी हत्या का प्रयास किया और ये भाग खड़े हुए। तुम इस बात को अपने तक ही सीमित रखना।’’
‘‘ठीक है!’’
उस गुप्तचर की पत्नी ने कुछ दिन तो अपनी स्त्रीसुलभ जिज्ञासा को दबाए रखा, लेकिन वह कब तक ऐसा करती? एक दिन उसने अपनी परम सखी को यह बात बता ही दी। वह सौगंध उठाती थी कि यह बात किसी अन्य को न बताएगी, लेकिन वह ऐसा न कर सकी। उसने अपने पति को बता दिया और यह बात सेनापति तक जा पहुँची । यह सब जानकर वह भी सन्न रह गया। कुँवर संग्राम सिंह के विषय में उसने भी सुना था। चित्तौड़ के पराक्रम से वह अनभिज्ञ नहीं था। अवश्य ही महाराज राव कर्मचंद इस रहस्य से परिचित होंगे। तभी तो उन्होंने एक साधारण से सैनिक को अपनी पुत्री सौंप दी।
सेनापति ने यह बात राजकुमार पृथ्वीराज तक पहुँचाने का इरादा कर लिया। भले ही उसे कोई लाभ न होता, लेकिन हानि भी क्या थी?
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पृथ्वीराज का पराक्रम
राजकुमार पृथ्वीराज ने चित्तौड़ का उत्तराधिकार भी प्राप्त कर लिया था और अनिंद्य सुंदरी ताराबाई को भी। स्वयं अपनी पीठ ठोकते हुए वह आनंद से जीवन व्यतीत कर रहे थे, लेकिन वह जानते थे कि उनके सिर पर बहुत बड़ा दायित्व है। उन्हें साँगा के जीवित होने और साधनसंपन्न होने की खबर ने विचलित कर दिया था और यह खतरा उन्हें नंगी तलवार की भाँति अपने सिर पर लटकती महसूस हो रही था। उन्होंने तत्काल तो यही इरादा किया था कि वह अपने कार्यों से महाराणा और मेवाड़ की प्रजा का हृदय जीतेंगे , जिससे समय पड़ने पर जनसमर्थन पा सकें। यह अवसर भी शीघ्र ही मिला। जब उन्हें सूचना मिली कि उनके द्वारा टोडा में अफगानों की पराजय से अजमेर का अफगान शासक मल्लू खाँ तिलमिलाया हुआ है और चित्तौड़ पर आक्रमण की तैयारी कर रहा है।
राजकुमार पृथ्वीराज ने भी अपनी सेना तैयार कर ली और मल्लू खाँ को अजमेर के मैदान में ही जा घेरा। पृथ्वीराज ने रात्रि में अफगान शिविर पर आक्रमण करके मल्लू खाँ की सेना को तहस-नहस कर दिया और उसे पराजित करके अजमेर से बाहर भगा दिया। अजमेर की राजधानी तारागढ़ पर पृथ्वीराज ने अधिकार कर लिया। इससे मेवाड़ में उसकी वीरता के गुण गाए जाने लगे। महाराणा रायमल को अतीव प्रसन्नता हुई।
इसी बीच मालवा के सुलतान महमूद द्वितीय ने पृथ्वीराज की वीरता और अफगानों की पराजय के विषय में जाना तो वह चिंतित हो उठा कि कहीं राजपूत सेना मालवा पर अतिक्रमण करने का विचार तो नहीं बना रही? इसकी टोह लेने अपने विश्वस्त सरदार को महाराणा रायमल के पास भेजा। महाराणा ने तुर्क सरदार का स्वागत किया, जो पृथ्वीराज को फूटी आँख भी न सुहाता और उसने अपने पिता से इसकी शिकायत की।
‘‘पिताश्री, आप चित्तौड़ के महाराणा हैं और आपको तुर्कों की चापलूसी करने की आवश्यकता नहीं है। इससे राजपूतों की शान घटती है।’’
‘‘कुमार, एक तो वह अतिथि था और दूसरे मालवा के सुलतान का दूत था। मालवा की शक्ति बहुत है। वह हमारा सीमावर्ती राज्य है, इसलिए उससे शत्रुता उचित नहीं है।’’
‘‘शत्रुता मालवा से नहीं, अपितु उसके विदेशी शासक से है। मैं शीघ्र ही मालवा को भी तुर्करहित करके राजपूती साम्राज्य का विस्तार करूँगा।’’
पृथ्वीराज ने इसी दिशा में अपने प्रयास आरंभ कर दिए। उन्होंने हजारों राजपूत युवाओं को सेना में आने का आह्वान किया और नीमच पहुँचकर एक शक्तिशाली युवा राजपूत सेना का नेतृत्व करते हुए देपालपुर जा पहुँचे। जिस तुर्क सरदार का महाराणा ने स्वागत किया था, वह देपालपुर का ही शासक सरदार था। पृथ्वीराज ने प्रबल आक्रमण करके उस तुर्क सरदार को मारकर वहाँ अपना अधिकार कर लिया और संकेत दे दिया कि अब राजपूती साम्राज्य विस्तारवादी नीति अपना रहा है।
जब यह समाचार मालवा की राजधानी मांडू पहुँचा तो सुलतान महमूद घबरा गया। वह अपने सरदार की पराजय से तिलमिला गया था और अपनी सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध के लिए निकल पड़ा। रात होने पर उसकी सेना ने पड़ाव डाला। अर्धरात्रि में अचानक राजपूतों का हमला हुआ और जब सुलतान कुछ समझ पाता, तब तक पृथ्वीराज अपनी तलवार लिये उसके सिर पर आ चढ़े। सुलतान को बंदी बनाकर वह चित्तौड़ ले आए। महाराणा ने अपने वीर पुत्र की खूब प्रशंसा की और सुलतान को प्राणदान दिया।
पृथ्वीराज की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। पृथ्वीराज भी ऊर्जा से भरे थे और वह अत्यंत युद्धप्रिय थे। मेवाड़ के सैनिक अब उन्हें ‘उमड़ा पृथ्वीराज’ कहने लगे थे। वह सुबह यहाँ होते तो शाम को दो सौ मील दूर रणभूमि में देखे जाते।
इन विजयों और ख्याति से उत्साहित पृथ्वीराज को इसी बीच एक और समाचार मिला। उसकी बुआ गिरनार के राजा मांडलिक से ब्याही गई थीं। मांडलिक विलासी था और पत्नी के रोकने-टोकने पर भी वह उसे बुरी तरह प्रताडि़त करता था। यह समाचार पृथ्वीराज को मिला तो वह सेनापति सहित गिरनार जा पहुँचे और राजा मांडलिक को बंदी बना लिया। वह प्राणदान माँगने लगा तो बुआ रमाबाई के कहने पर उसे जीवन दान तो दे दिया, लेकिन दंडस्वरूप उसका एक कान काट लिया, फिर वे अपनी बुआ को मेवाड़ ले आए।
अपनी बहन की व्यथा सुनकर राणा रायमल द्रवित हो उठे और वीर पुत्र का धन्यवाद किया, जिन्होंने अपनी बुआ को अत्याचार से मुक्ति दिलाई। महाराणा ने अपनी बहन को सदैव के लिए मेवाड़ में रख लिया और जीवन-निर्वाह के लिए ज्वार परगना भेंट कर दिया। इसी बीच महाराणा ने सूरजमल का भी विवाह कर दिया और उसे भेंट में भेंसरोड परगना दे दिया। पृथ्वीराज ने अपने पिता को बहुत समझाया कि सूरजमल वास्तव में वह नहीं है, जो वह दिखता है और उसे शक्ति देना मेवाड़ के लिए संकट पैदा करना है, लेकिन महाराणा के तथ्यों के सामने उसकी एक न चली।
पृथ्वीराज निरुत्तर हो गए और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे कि कब वह सूरजमल पर आक्रमण करें। उन्हें यह अवसर तब मिला, जब सूरजमल ने मेवाड़ के शत्रु सारंगदेव से मित्रता कर ली। पृथ्वीराज ने इसी बात का बहाना बनाकर सूरजमल पर आक्रमण कर दिया और सूरजमल से उसकी जागीर छीनकर उसे वहाँ से भागने पर विवश कर दिया।
अब सूरजमल पूरी तरह अपने रंग में आ गया और सारंगदेव के कहने पर मालवा के सुलतान की शरण में जाकर सहायता माँगी। मालवा के सुलतान ने पहले ही चित्तौड़ पर आक्रमण करने की योजना बना ली। सूरजमल ने यहाँ भी अपनी बुद्धिमानी का परिचय दिया और आक्रमण का वह दिन चुना, जब पृथ्वीराज जालौर में युद्धरत थे।
अब मालवा की सेना चित्तौड़ की ओर बढ़ चली। महाराणा को सूरजमल का यह विश्वासघात अच्छा न लगा और वे स्वयं मेवाड़ की सेना का नेतृत्व करने निकल पड़े। गंभीरी नदी के मैदान में सूरजमल तुर्क सरदारों के साथ अकड़ा खड़ा था तो महाराणा ने उसे कुलघाती कहा।
युद्ध आरंभ हो गया। वृद्ध महाराणा का पराक्रम दर्शनीय था, लेकिन शीघ्र ही उन्हें कुछ घातक वार सहने पड़े, जिससे उनका युद्धरत रहना कठिन सा लगा। मेवाड़ की पराजय के लक्षण दिखने लगे। सूरजमल उत्साहित था, लेकिन तभी रणभूमि में आँधी सी उठ गई। पृथ्वीराज बड़ी तेजी से उधर ही बढ़े चले आ रहे थे।
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अब संग्राम सिंह को मेवाड़ में हो रही सभी गतिविधियों की सूचना मिल रही थी और वे प्रसन्न थे कि पृथ्वीराज ने मेवाड़ की ख्याति में वृद्धि कर दी थी। तुर्क और अफगानों की पराजय के समाचार अधिक हर्षित करने वाले थे। वे अपनी पत्नी को अपने पराक्रमी भाई की सफलताओं के किस्से बड़े चाव से सुनाते और उसकी प्रशंसा में बहुत सी बातें करते। उनकी पत्नी बहुत सुशील और समझदार राजकन्या थी, परंतु वे कई बार यह सोचकर आश्चर्यचकित भी होती थी कि जिस व्यक्ति ने उसके पति के प्राण लेने का षड्यंत्र रचा था, उसी की प्रशंसा उसके पति कैसे करते हैं! ऐसा भ्रातृत्व और महानता कम ही लोगों में मिलती है। वह गर्व का अनुभव करती। साँगा निर्विकार भाव से अपने कार्यों में व्यस्त रहते। उनकी दिनचर्चा बड़ी व्यस्त होती। सेना का नियमित प्रशिक्षण और सीमा-सुरक्षा का प्रतिदिन निरीक्षण करना साँगा की दिनचर्चा का आवश्यक अंग था। ‘‘कुँवर!’’ राव कर्मचंद ने एक दिन पूछा, ‘‘सैन्य प्रशिक्षण नियमित होने से शक्ति और कुशलता का संचय तो समझ में आता है, परंतु प्रतिदिन सीमाओं का निरीक्षण करने का क्या लाभ? वहाँ हमारे सैन्य-शिविर स्थापित हैं। किसी प्रकार का संकट आने पर हमें सूचना मिल जाएगी।’’
‘‘महाराज! जब किसी रियासत ने ताजा-ताजा उन्नति की हो तो उसे सदैव सजग रहना चाहिए। सीमाओं की ओर से निश्चिंत नहीं होना चाहिए। शत्रु जरा सी शिथिलता देखते ही प्रबल हो उठते हैं। सीमा-भ्रमण से हमें क्षण-क्षण की जानकारी मिलती है और हमारे सीमाप्रहरियों में उत्साह बना रहता है।’’
‘‘वास्तव में तुम एक कुशल सेनापति और प्रशासक हो। सैन्य-मानसिकता का तुम्हें अच्छा अनुभव है।’’ राव कर्मचंद मंत्रमुग्ध होकर बोले।
‘‘मेवाड़ में यह अनुभव बच्चे-बच्चे को होता है।’’
‘‘इन दिनों तो मेवाड़ की ख्याति चारों ओर फैल रही है। अजमेर विजय का लाभ तो हमें भी मिला है। हमारी यह सीमा सुरक्षित हो गई है।’’
‘‘इस समय भ्राता पृथ्वीराज को चाहिए कि सभी राजपूत राजाओं को एक मंच पर लाकर विदेशी शक्तियों के पूर्ण दमन का लक्ष्य रखें। इससे भारतवर्ष में पुनः राजपूत शक्ति का वर्चस्व होगा और हमारी संस्कृति व सभ्यता का क्षरण रुकेगा।’’
‘‘तुम्हारा दृष्टिकोण उचित है और आशा है कि पृथ्वीराज भी इस दिशा में सोचेंगे। मेरा विचार तो यह है कि यदि बीती बातों को भुलाकर तुम भी पृथ्वीराज का साथ दो तो यह स्वप्न निचश्य ही पूरा हो सकेगा।’’
‘‘महाराज, प्रतीत होता है कि आप मुझे श्रीनगर से भगाना चाहते हैं।’’
‘‘अरे नहीं कुँवर, हम कदापि ऐसा नहीं चाहते।’’
कुँवर साँगा को राव कर्मचंद की सलाह तो उचित लगी थी, परंतु अमल करने योग्य नहीं। ..