दिल्ली पर आक्रमण की योजना
मालवा का अयोग्य सुलतान महमूद अपने पिता के समय से ही सरदारों के विद्रोहों से परेशान था, जो अब इतने अधिक हो गए थे कि उसे अपने सरदारों से प्राणों का भय सताने लगा था। उसका अपना छोटा भाई शहजादा साहिब खाँ भी विद्रोही सरदारों से मिलकर उसके तख्तापलट की योजना बना रहा था। सुलतान महमूद को कहीं से एक भनक भी लगी थी कि उसके विरोधी उसकी हत्या की योजना बना रहे थे तो वह डरकर मांडू भाग गया। उसे कहीं से मदद की आशा नहीं थी। ऐसे में उसे मदद मिली मालवा राजपूत सरदार मेदनीराय से। मेदनीराय एक ऐसा वीर राजपूत था, जिसके पराक्रम से पठान सरदार भी थर-थर काँपते थे। उसने सुलतान महमूद को रक्षा का ही वचन नहीं दिया, अपितु उसे उसका अधिकार दिलाने के लिए भी सेना एकत्र कर ली।
मेदनीराय ने चालीस हजार राजपूती सेना के साथ सुलतान साहिब खाँ की पठान सेना पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण इतना प्रबल था कि साहिब खाँ को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। उसके हिमायती पठान सरदार भी भागते ही नजर आए। महमूद द्वितीय को सुलतान का ताज दोबारा मिल गया, जिसके लिए वह मेदनीराय का अहसानमंद था। उसने मेदनीराय को मालवा का प्रधानमंत्री बना दिया। मेदनीराय कुशल प्रशासक थे तो उन्होंने खोज-खोजकर विरोधी सरदारों का दमन शुरू कर दिया, इससे पठान सरदारों में खलबली मच गई। मेदनीराय की बढ़ती प्रतिष्ठा से भी इन सरदारों को चिढ़ थी। अतः कुछ तो दिल्ली सम्राट् सिकंदर लोदी के पास पहुँचे और कुछ ने गुजरात के सुलतान मुजफ्फरशाह की शरण ली। इन सरदारों ने दोनों सम्राटों को बताया कि मेदनीराय राजपूत सरदार है, जो अयोग्य सुलतान महमूद की आड़ में मालवा पर राजपूती शासन स्थापित करना चाहता है। इस प्रकार इन सरदारों ने एक गुट बना लिया, जिसका नेतृत्व चंदेरी का शासक बोहजत खाँ करने लगा। साहिब खाँ को भी इस गुट ने अपना सुलतान घोषित कर दिया, जिसका वजीर बोहजत खाँ बना। दिल्ली सम्राट् सिकंदर लोदी ने भी बारह हजार घुड़सेना अपने विश्वस्त सरदारों इमादुल्मुल्क और सहीद खाँ के नेतृत्व में इन विद्रोही सरदारों को भेज दी। मुजफ्फर शाह ने भी सैन्य सहायता दी।
यह संयुक्त सेना मालवा पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ी तो मेदनीराय ने मालवा की सेना को युद्ध में उतार दिया और पीछे से चालीस हजार राजपूती सेना के आक्रमण से संयुक्त सेना के छक्के छुड़ा दिए। वीर मेदनीराय का कुशल नेतृत्व विजय का कारण बना।
मेदनीराय की कारगुजारियों का अंत यहीं नहीं होता है बल्कि गुजरात के चंदेरी पर विजयी आक्रमण करके विद्रोहियों के हौसलों को पस्त कर दिया। नालछा के मैदान में एक बार फिर से मेदनीराय ने संयुक्त सेना को परास्त किया। मेदनीराय के पराक्रम ने विद्रोहियों को संधि करने पर विवश कर दिया, पर यह संधि मेदनीराय के हित में नहीं थी। इन सरदारों ने धर्म के नाम पर सुलतान महमूद को ही बर्गला दिया और वह अदूरदर्शी सुलतान अपने रक्षक मेदनीराय पर ही शक करने लगा। विद्रोहियों को सफलता मिली तो वे और भी सक्रिय हो उठे और मेदनीराय की हत्या का षड्यंत्र रच दिया, जिसमें सुलतान ने सहमति दे दी। मेदनीराय पर धोखे से जानलेवा आक्रमण भी हुआ, परंतु भाग्य से वह बच गया और जान गया कि कृतघ्न सुलतान ही उसकी जान लेना चाहता है। जब यह बात मेदनीराय के राजपूत साथी सरदारों को पता चली तो वे कुपित होकर सुलतान के विरुद्ध हो गए। सुलतान अपने प्राण बचाकर भाग गया और मुजफ्फरशाह ने मालवा पर आक्रमण की तैयारी कर ली। मेदनीराय ने देखा कि विद्रोही सरदारों ने मालवा की सेना को भी अपनी ओर कर लिया है और धर्म को इस युद्ध का मुख्य कारण बना दिया गया।
मेदनीराय ने ऐसे समय में युद्ध करने की अपेक्षा कूटनीति अपनाई। उसने महाराणा साँगा से सहायता माँगी। मेदनीराय के पराक्रम से प्रभावित राणा साँगा ने उनकी सभी प्रकार से सहायता का वचन दिया। मालवा पर महमूद फिर से जा बैठा। मेदनीराय चित्तौड़ में ही राणा साँगा द्वारा प्राप्त गगरोण सहित कई परगनों पर शासन करने लगा। मेदनीराय एक वीर योद्धा था और राणा साँगा को ऐसे ही वीरों की आवश्यकता थी। उन्होंने दिल्ली पर आक्रमण करने की सारी तैयारियाँ भी कर ली थीं, क्योंकि अब दिल्ली की पठान शक्ति का ह्रास हो रहा था। सिकंदर लोदी की मृत्यु हो गई थी और दिल्ली के सिंहासन पर उसका महत्त्वाकांक्षी पुत्र इब्राहिम लोदी आसीन हुआ था। साँगा का विचार था कि इब्राहिम लोदी अभी अनुभवहीन शासक है, जिसे आसानी से परास्त करके दिल्ली को विजित किया जा सकता है।
इधर इब्राहिम लोदी ने नया-नया शासन सँभाला था तो उसके सामने बहुत-सी चुनौतियाँ थीं। सुलतान सिकंदर लोदी के समय से ही इब्राहिम लोदी ने इन विद्रोहियों का दमन कर दिया और कुछ बचे विद्रोही भाग खड़े हुए। इसी बीच उसके गुप्तचरों ने खबर दी कि मेवाड़ का राणा साँगा दिल्ली पर आक्रमण करने की योजना बना रहा है। इब्राहिम लोदी के क्रोध का ठिकाना न रहा और उसने विशाल फौज लेकर मेवाड़ पर आक्रमण की घोषणा कर दी। पठान सेना मेवाड़ की ओर बढ़ चली।
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इब्राहिम लोदी की पराजय
महाराणा साँगा को अफगानी सेना के आक्रमण की सूचना मिल गई थी तो उन्होंने तत्काल राजपूत सरदारों की बैठक बुलाई। वीर मेदनीराय भी इस बैठक में थे। महाराणा ने गंभीरता से वार्त्तालाप आरंभ किया।
‘‘हमारे राजपूत सरदारों, एक समय था जब अजमेर के वीर राजा पृथ्वीराज चौहान ने राजपूत साम्राज्य का विस्तार किया था। उनके बाद से हिंदूशाही का निरंतर पतन हुआ है और मेवाड़ को छोड़कर किसी ने भी विदेशी शक्तियों को जवाब नहीं दिया।’’ महाराणा बोले, ‘‘दिल्ली की गद्दी पर बहुत समय से हिंदू सम्राट् नहीं बैठा। हमने इन विदेशी साम्राज्यों को भारत से खदेड़ने का स्वप्न देखा है।’’
‘‘आपके इस स्वप्न को पूरा करने के लिए हम अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे। जितने भी युद्ध करना पड़े, हम करेंगे।’’ मेदनीराय ने दृढता से कहा।
‘‘हमें ऐसे ही संकल्प वाले वीर राजपूतों का साथ चाहिए। दिल्ली का नया-नवेला अफगानी बादशाह मेवाड़ को विजित करने का स्वप्न देखता आ रहा है। जो काम उसके अनुभवी और वीर पिता से न हुआ, उसे वह कल का लड़का करने की इच्छा रखता है। विडंबना यह है कि वह अपना बल आजमाने मेवाड़ की धरती पर आ रहा है। अब हम उस सुलतान को दिखाएँगे कि सिंहों की माँद में घुसकर शिकार करने का दुस्साहस करना कितना घातक सिद्ध होता है?’’
‘‘हमारे गुप्तचरों ने बताया है कि दिल्ली से बहुत बड़ी सेना मेवाड़ की ओर चली आ रही है।’’ एक राजपूत सरदार ने कहा।
‘‘इसे इस परिप्रेक्ष्य में न लो सरदार पूर्ण सिंह! इसे यह कहकर समझो कि हमारी तलवारों को ज्यादा-से-ज्यादा रक्त पीने का अवसर मिलेगा। जितने अधिक शत्रु होंगे, उतना ही शिकार का आनंद बढे़गा। हमारी सेनाएँ तैयार हैं और हमें आज सायं को ही प्रस्थान करना है, जिससे हम शत्रुदल को राजपूताने की रेत में घेरकर मार सकें।’’
‘‘महाराणा साँगा की जय!’’ सभी सरदारों ने समवेत जयघोष किया और अपनी-अपनी तैयारी करने लगे। सायं होने तक मेवाड़ की राजपूती सेना सज-धजकर रणभूमि की ओर चल पड़ी। महाराणा साँगा के नेतृत्व में उस राजपूती सेना में विचित्र सा जोश था, जिससे सब दिशाएँ गूँज रही थीं।
जब यह सेना घड़ौती सीमा पर खातौली गाँव के समीप पहुँची तो इब्राहिम लोदी की सेना से उसका सामना हो गया। दोनों सेनाओं के शिविर लग गए और प्रातः होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। दोनों खेमों में युद्ध की व्यूह रचना हो रही थी। महाराणा साँगा ने चौतरफा युद्ध की व्यूह नीति का समर्थन किया।
सवेरा होने पर युद्ध का बिगुल बज उठा और दोनों ओर से सेनाएँ आपस में भिड़ गईं, मगर राजपूत-व्यूह ने चारों ओर से अफगानी सेना को घेर लिया और भीषण मारकाट मचा दी। बीच मैदान में महाराणा साँगा और मेदनीराय जैसे वीर योद्धा अफगानों की कठिन परीक्षा ले रहे थे। उनकी तलवार ने जो विध्वंस मचाया, उसे देखकर दुश्मन के कलेजे काँप उठे। महाराणा साँगा तो जैसे साक्षात् कालरूप ही हो गए थे। उनकी तलवार से रक्त उड़-उड़कर जा रहा था और उसी अनुपात में शत्रुओं के सिर कट-कटकर उछल रहे थे। मेदनीराय भी पीछे नहीं थे। सलूंबर के रावत राजा रतन सिंह का कौशल भी दर्शनीय था। मेड़ता नरेश राजा वीरमदेव भी एक मोर्चे पर अपनी तलवार की प्यास बुझा रहे थे। इस चौतरफा व्यूह ने अफगानों के भागने के भी सारे रास्ते बंद कर दिए थे। शाम ढलते-ढलते दिल्ली सेना के होश फाख्ता हो गए थे और उसके सैनिक बचने के रास्ते खोजने लगे थे। ऐसे भयानक युद्ध लड़ने की उन्हें आशा न थी।
अकस्मात एक विष बुझे तुर्क तीर ने राणा साँगा की बाईं भुजा के कवच को भेद दिया और इसकी तीव्र पीड़ा से राणा तिलमिला उठे। तभी बाएँ पैर में भी जंघा के निकट एक तीर आर-पार हो गया। मेदनीराय ने देखा तो तत्काल राणा साँगा को सँभाला। शत्रु-दल अब निश्चित पराजित हो गया था और भाग खड़े होने के रास्ते खोज रहा था। राणा साँगा के घायल होने पर उन्हें यह अवसर भी मिल गया और बुरी तरह पराजित होकर इब्राहिम लोदी अपने प्राण बचाकर भाग ही निकला। उसके भागते ही अफगानी सेना भी भाग खड़ी हुई। राजपूत विजयी हुए, पर राणा साँगा घायल हो गए।
राजवैद्य ने उनका उपचार आरंभ किया। उसने देखा कि जाँघ में लगा तीर घातक तो नहीं था, परंतु उसने एक हड्डी को चीर दिया था, जबकि बाँह में लगा तीर विषबुझा होने के कारण जानलेवा हो सकता था। राणा के प्राण बचाने के लिए कुशल वैद्य ने उस हाथ को काट डाला अन्यथा जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था। अफगानों पर मिली इस विजय से मेवाड़ में उत्सव का माहौल उत्पन्न हो गया था, परंतु महाराणा के साथ हुए हादसे ने यह खुशी अधूरी कर दी। बहुत दिनों में वे स्वस्थ तो हुए, परंतु अब उनका एक ही हाथ रह गया था और लँगड़ाहट आ गई थी। महाराणा साँगा ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और अपने एक हाथ से भी उन्होंने नियमित तलवारबाजी का अभ्यास किया। राजपूत सरदार उस महाराणा साँगा की जीवटता को देखकर हर्ष से भर उठते और आश्चर्य में पड़ जाते थें।