महाराणा साँगा की मालवा-विजय
महाराणा साँगा की जय-जयकार सारे मेवाड़ में गूँज रही थी। उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि वीर पुरुषार्थ उसके आंतरिक भावों से ही शक्ति पाता है। विजय की लालसा ने उन्हें भी इस युद्ध में बड़ी शक्ति दी। उन्होंने अपने सामंत सरदारों को विश्वास दिला दिया कि अपंगता उनके लिए कोई मायने नहीं रखती और उनका रणकौशल अभी भी अद्भुत था। धौलपुर के भव्य युद्ध की विजय ने राजपूती गौरव को और भी सज्जित कर दिया था। इस युद्ध में लोदी की शर्मनाक हार के साथ ही राजपूत सेना ने उसके कई परगने भी मेवाड़ के अधीन कर दिए। महाराणा साँगा ने इस विजय का श्रेय मेदिनीराय को दिया और इब्राहिम लोदी से छीनी चंदेरी रियासत भी उन्हें पुरस्कार में दे दी। मेदिनीराय का वर्चस्व बढ़ा और यह समाचार मालवा के सुलतान महमूद द्वितीय को मिला तो वह तिलमिला गया। अतः उसने मेदिनीराय को मिले चंदेरी प्रदेश को छीनने का निर्णय कर दिया।
सन् 1519 में सुलतान महमूद द्वितीय ने मुजफ्फरशाह की सेना के साथ अपनी सेना इकट्ठी की और गागरोन पर चढ़ाई कर दी। मेदिनीराय के पुत्र भीमराज ने आक्रमण का डटकर सामना किया और पीछे से मेदिनीराय भी आ गए। दोनों पिता-पुत्र बड़ी वीरता से अपनी रियासतों की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगाने को आतुर थे। इस युद्ध की सूचना महाराणा साँगा को मिली तो उन्होंने तत्काल अपनी सेना ले जाकर मेदिनीराय को सहायता दी। जब राणा साँगा युद्धभूमि में आ गए तो मेदिनीराय का साहस तो अपने आप ही दोगुना हो जाने वाला था। अब उन्हें कोई चिंता नहीं रह गई थी। राणा साँगा की उपस्थिति मात्र से एक-एक राजपूत सैनिक में प्रेरणा और उत्साह बढ़ता था। शीघ्र ही सुलतान महमूद को पता चल गया कि उसने क्रोध में गलत निर्णय ले लिया था। अब स्थिति यह बन गई थी कि कहाँ तो महमूद जीत के लिए आया था और कहाँ अब उसे अपनी जान बचाने की चिंता सताने लगी। उसका सेनापति आसफ खाँ बुरी तरह घायल हो गया था और स्वयं उसकी दशा भी चिंताजनक थी।
‘‘मैदान छोड़ दो।’’ सुलतान महमूद को कहना ही पड़ा। इस तरह तत्काल ही बची-खुची सेना बच निकलने के रास्ते खोजने लगी और सुलतान महमूद भी इसी चक्कर में था, लेकिन वह उस समय सन्न रह गया, जब राणा साँगा की तलवार ने उसकी गरदन को स्पर्श कर लिया था।
सुलतान महमूद सूखे पत्ते की भाँति काँप उठा। उसकी आँखों में याचना के भाव उतर गए। सुलतान को बंदी बना लिया गया। मालवा पर राणा साँगा का अधिकार हो गया।
युद्ध में सुलतान महमूद बुरी तरह जख्मी हो गया था और हार के साथ जख्मों की पीड़ा से वह बार-बार बेहोश होने जैसी स्थिति में चला जाता था। महाराणा ने उसकी यह दीन दशा देखी तो द्रवित हो उठे। भले ही वह शत्रु था, लेकिन था तो इनसान ही। महाराणा मानवता के प्रबल पक्षधर थे और इसे वैश्विक धर्म के रूप में देखते थे। इसलिए उन्होंने अपने राजवैद्यों से सुलतान का समुचित उपचार करने को कहा।
महमूद को तो अपने जीवन की आशा ही नहीं थी, लेकिन महाराणा की दयालुता ने उसके मन को झकझोर दिया। जब उसने देखा कि उसे बंदी बनाकर भी एक अतिथि की भाँति उसका सेवा-सत्कार किया जा रहा है तो वह मन-ही-मन महाराणा की प्रशंसा कर उठा। अगले तीन माह में वह पूर्ण स्वस्थ हो गया था। महाराणा प्रतिदिन उसका हालचाल पूछने आते और बड़े प्रेम से उससे वार्त्तालाप करते।
एक दिन महाराणा ने सुलतान के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव रखा तो सुलतान ने गद्गद होते हुए कहा, ‘‘यह तो मेरी खुशनसीबी है महाराणा! मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं हमेशा आपका विश्वासपात्र बनकर रहूँगा।’’
‘‘यदि आप ऐसा कर सकते हैं तो मैं आपको मालवा का आधा राज्य देता हूँ, परंतु राजनीतिक कारणों से इसमें एक शर्त होगी।’’
‘‘मुझे आपकी यह शर्त मंजूर है।’’
सुलतान महमूद बंदी तो पहले भी नहीं था, लेकिन अब उसे कारागार से बाहर लाया गया। उसे आदर सहित दरबार में बिठाया गया, जहाँ उसने महाराणा की अधीनता स्वीकार करते हुए मालवा का सुलतानी चिह्न रत्नजडि़त मुकुट और कमरपेटी महाराणा को सौंप दी। फिर महाराणा ने उसे आधा राज्य देने की घोषणा करके राजधानी मांडू को उसे सौंप दी। सुलतान महमूद ने भी शर्त निभाते हुए अपने एक पुत्र को चित्तौड़ में छोड़ दिया।
यह महाराणा की मानवतावादी विजय तो थी ही, साथ ही साथ यह राजनीतिक विजय भी थी। अब मालवा पूरी तरह उनके अधीन था। सुलतान महमूद ने झूठा वादा नहीं किया था, जैसा कि कुछ राजपूत सरदारों ने आशंका जताई थी, उसने महाराणा के प्रति वफादार रहने का सबूत देते हुए सबसे पहले मालवा से मुजफ्फरशाह की सेनाओं को भगाया और अपने सरदारों को कड़ा दंड दिया, जो आज भी मेवाड़ पर आक्रमण करने की सलाह देते रहते थे।
महाराणा साँगा के कारण ही सुलतान महमूद एक गंभीर और प्रजा के हित में सोचने वाला शासक बन गया था। हालाँकि इस बात से गुजरात का शासक मुजफ्फरशाह महमूद पर रुष्ट भी हुआ, लेकिन अब राणा साँगा का कृपापात्र बने सुलतान महमूद ने उसका कोई भय नहीं माना।
*********
महाराणा साँगा की गुजरात विजय
सन् 1520 तक महाराणा साँगा की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई थी और इसमें उनकी दूरदर्शिता और कूटनीति का बड़ा योगदान रहा। उन्होंने राजपूतों की शक्ति को संगठित करने के लिए वैवाहिक संबंधों को वरीयता दी। स्वयं उन्होंने 28 विवाह किए और 27 राजपूतों (राजाओं) की न केवल मित्रता पाई, बल्कि उनकी सैन्य शक्ति का भी प्रयोग मेवाड़ के हित में किया। मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई राव रत्नसिंह की पुत्री मीराबाई (कृष्ण भक्त मां मीरा) का विवाह राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ था। इस प्रकार महाराणा साँगा ने व्यक्तिगत संबंधों को भी मेवाड़ की प्रगति के लिए स्थान दिया। उनके मित्र और संबंधी राजपूत राजा उनका गुणगान करते न थकते थे। मेवाड़ के भाट और चारणों ने तो महाराणा की प्रशंसा में काव्य तक रच डाले थे, जिन्हें वे किसी भी दरबार में जाकर सुनाते और पुरस्कार पाते थे।
ऐसे ही एक बार भाट महाराणा की प्रशंसा करता हुआ इस परगने से उस परगने घूम रहा था और धन एकत्र कर रहा था। यही भाट एक दिन गुजरात में अहमदाबाद पहुँच गया, जहाँ सुलतान मुजफ्फरशाह का दरबार सजा हुआ था। भाट ने इनाम की अपेक्षा में अपना सराहनीय काव्य सुना दिया, जो महाराणा साँगा की वीरता और दयालुता की प्रशंसा में रचा गया था। इस प्रशंसा-पद को सुनकर सुलतान मुजफ्फरशाह क्रोध से भाट को देखने लगा, जो भय से सहम गया।
उसी दरबार में सुलतान का नया हाकिम मलिक हुसैन बहमनी भी बैठा था, जो गुजरात भर में अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध था। उसने सुलतान की तनी भृकुटि देखी और भाट को फटकारने लगा।
‘‘बदअमल भाट! तेरी हिम्मत कैसे हुई सुलतान के दरबार में दुश्मन की तारीफ करने की, उस अपाहिज और एक आँख वाले राणा की, जिसे हमारा एक सिफती भी धूल चटा दे। अरे, अगर वह इतना ही बहादुर है तो हमसे रायमल की रक्षा करके दिखाए। अपने उस अपाहिज राजा से कह दे कि मलिक हुसैन बहमनी अब सुलतान का हाकिम है और रायमल का सिर जल्दी ही कलम होगा।’’
मलिक हुसैन बहमनी की यह बात सुनकर भाट की त्योरी तो चढ़ी, लेकिन वह राणा साँगा तक इस बात को पहुँचाना चाहता था, अतः उसने क्रोध पर काबू रखा और वहाँ से चित्तौड़ लौट आया। उसने चुनौती को दोहराया। महाराणा का क्रोध उबल आया और बहमनी की अभद्रता की भुजाओं का बल मापने की इच्छा से राजपूत सेना गुजरात की ओर मोड़ दी।
जब मुजफ्फरशाह को पता चला कि राणा साँगा के नेतृत्व में विशाल राजपूत सेना मलिक हुसैन बहमनी पर आक्रमण करने आ रही है तो वह चिंतित हो उठा। उसने अपनी सेना तो बहमनी की मदद के लिए भेज दी, लेकिन स्वयं रणभूमि में जाने के नाम पर हिचक गया। उसे राणा साँगा से एक ही भय था कि कहीं वह उसे भी बंदी बनाकर मालवा के सुलतान की तरह विवश न कर दे। यह सोचकर मुजफ्फरशाह चला गया।
इधर क्रोध में भरे राणा साँगा अपने चालीस हजार राजपूत सैनिकों के साथ बागड़ आ पहुँचे, जहाँ उनका साथ देने के लिए डूँगरपुर के रावल सिंह, जोधपुर के राव गंगा और मेड़ता के राव वीरमदेव भी अपनी-अपनी सेना के साथ आ पहुँचे थे।
राणा साँगा को पता चला कि बहमनी के नेतृत्व में तुर्क सेना ने ईडर घेर लिया है और रायमल संकट में है तो वह बागड़ से ईडर की ओर चल पड़े। भयंकर युद्ध आरंभ हो गया और बहमनी युद्ध के मैदान से भाग गया। वह अहमदनगर के किले में जाकर छुप गया। महाराणा साँगा ने पहले तो ईडर को पूर्णतया सुरक्षित किया और रायमल को सांत्वना दी कि वह तनिक भी न घबराए। इसके बाद उन्होंने बहमनी का पीछा किया। जब राणा साँगा ने अहमदनगर किले को घेर लिया तो बहमनी चिंतित हो उठा। उसकी इस घबराहट को देखकर अहमदनगर के हाकिम ने उसे ढाढ़स बँधाया ‘‘घबराइए मत हुजूर, यहाँ आप महफूज हैं। राजपूत कितने भी बहादुर हों, लेकिन किले में दाखिल नहीं हो सकते। यहाँ का फाटक इतना मजबूत है कि इसे तोड़ना मुश्किल है।’’
बहमनी को विश्वास तो नहीं हो रहा था, लेकिन और उपाय भी क्या था?
उधर राणा साँगा ने किले की मजबूती को परखा तो मानना पड़ा कि वह अभेद्य और सुरक्षित किला था। फाटक की अतिरिक्त सुरक्षा से उसे तोड़ना बहुत ही कठिन कार्य था। पूरा दिन युक्ति सोचने में ही व्यतीत हो गया था। उस रात बहमनी को लगा कि उसने एक सुरक्षित जगह पर शरण पाई है। राजपूती सेना कितने दिन किले का घेरा डाल पाएगी? आखिर एक दिन तो उसे यहाँ से लौटना पड़ेगा।
राणा साँगा भी इसी बात पर विचार कर रहे थे।
‘‘यह कठिन समस्या है। बहमनी को छोड़ना हमें स्वीकार नहीं और किले को तोड़ना आसान नहीं लग रहा है। इस प्रकार कब तक घेरा डाले रहेंगे?
‘‘इस फाटक की नुकीली कीलों से हाथी की टक्कर भी कारगर नहीं।’’
अचानक ही एक घटना घटी। एक राजपूत युवक कान्हा उस फाटक की कीलों से सटकर खड़ा हो गया था और हाथी ने आगे बढ़कर टक्कर मारी। कान्हा का शरीर कीलों में जा धँसा और हाथी टक्कर मारता रहा। आखिकार फाटक टूट गया। राणा साँगा ने उस वीर राजपूत युवक की मुक्तकंठ से प्रशंसा की और उसके बलिदान को राजपूत जाति का आदर्श कहा। जिस कौम में ऐसे राजभक्त हों, उसकी विजय-यात्रा अनवरत रहती है। राजपूती सेना किले में घुस गई और भीषण युद्ध छिड़ गया। बहमनी ने वीरता से राजपूत सैनिकों का सामना किया और मारा गया।
अहमदनगर राजपूतों के अधीन हो गया। इसके बाद विजयी सेना ने बड़नगर का घेरा डाला, लेकिन राणा साँगा को ज्ञात हुआ कि वहाँ ब्राह्मण अधिक थे तो आगे बढ़ चले। उन्होंने आगे बीसलनगर पर धावा बोल दिया और उसे भी अपने अधिकार में ले लिया। राणा साँगा ने गुजरात के बहुत से किलों को इसी अभियान में अपने अधीन कर लिया था और इन विजयों से उन्हें बहुत सारी धन-दौलत की प्राप्ति हुई। गुजरात विजय का भव्य उत्सव मनाया गया।