Maharana Sanga - 20 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा - भाग 20

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महाराणा सांगा - भाग 20

बाबर के विरुद्ध अभियान की योजना 

1519-20 में महत्त्वाकांक्षी मुगल शासक बाबर के कदम पश्चिमोत्तर भारत में पड़े थे। बाबर तुर्क जाति के चगताई वंश का महत्त्वाकांक्षी योद्धा था, जिसकी रगों में पिता की ओर से तैमूर की पाँचवीं पीढ़ी और माता की ओर से चंगेज खान की चौदहवीं पीढ़ी का रक्त था। 14 फरवरी,1483 को फरगना में जन्मे बाबर ने मात्र 11 वर्ष की उम्र में समरकंद को जीतकर अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। सन् 1504 में उसने काबुल जीता और यहीं से उसके मन में भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने की ललक जागी। 

बाबर ने 1519 में भारत में अपना पहला अभियान आरंभ किया, जिसमें उसका सामना युसुफजई लोगों से हुआ। बाबर ने पहली सफलता के तौर पर बाजोए और भेरा पर अधिकार कर लिया। मंगोल लड़ाके और तोपखाने उसकी बड़ी शक्ति थे। इसी वर्ष उसने पेशावर को जीत लिया और अगले ही वर्ष सैयदपुर उसके अधीन हो गया। बाबर की गूँज पश्चिमोत्तर भारत में सुनाई देने लगी थी। उसकी सेना और तोपखाने की चर्चा होने लगी थी। 

यही वह समय था, जब दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी और लाहौर के गवर्नर दौलत खाँ के बीच राजनीतिक मतभेद चल रहे थे। दौलत खाँ ने जब बाबर की शक्ति और महत्त्वाकांक्षाओं को जाना तो उसने इब्राहिम लोदी के खिलाफ बाबर से ही सहायता माँग ली। यह बाबर जैसे दूरदर्शी योद्धा के लिए आदर्श स्थिति थी। उसे तो ऐसा कोई कंधा चाहिए था, जिस पर रखकर उसकी तोपें चलाई जा सकें और भारत-विजय का मार्ग प्रशस्त हो। बाबर का भाग्य भी कम बुलंद नहीं था, क्योंकि दिल्ली सल्तनत में उसे एक घर का भेदी भी मिल गया था। यह इब्राहिम लोदी का चाचा आलम खाँ था, जो दिल्ली के सिंहासन को प्राप्त करना चाहता था। 

बाबर को ऐसे अवसर मिलते जा रहे थे तो वह अपने उद्देश्य में असफल कैसे होता? उसने अपने हजार मंगोल सैनिकों के साथ दिल्ली पर आक्रमण कर दिया, लेकिन इब्राहिम लोदी की सेना ने उसे बुरी तरह खदेड़ा। यहाँ तक कि उसे पंजाब से भी बाहर कर दिया। अब बाबर ने पंजाब को ही अपने कब्जे में करना चाहा। उसने 1524 में भेरानगर भेज दिया, फिर उसने आलम खाँ को भी पकड़ लिया और पंजाब पर अपना अधिकार कर लिया। यहाँ बाबर ने दिल्ली-विजय की योजना बनाई। 

बाबर ने बड़े धैर्य से दिल्ली की शक्ति का जायजा लिया और अपनी तैयारी करता रहा। उसने सत्तर हजार सैनिक की विशाल सेना एकत्र कर ली थी और उसका वीर पुत्र हुमायूँ भी उसके साथ था। अपनी महत्वाकांक्षी योजना के प्रथम चरण में बाबर को दिल्ली पर आक्रमण का हुक्म दिया। यह सेना 12 अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान में पहुँच गई। इसी दिन इब्राहिम लोदी भी अपनी सेना लेकर मैदान में आ डटा। इसके बाद भी अगले दस दिन तक युद्ध नहीं हुआ। 21 अप्रैल को भीषण गर्जना के साथ दोनों सेनाएँ भिड़ गईं, लेकिन युद्ध का निर्णय दोपहर में तभी हो गया, जब दिल्ली का सम्राट् इब्राहिम लोदी मारा गया। बाबर को बड़ी सफलता मिली।

 इस युद्ध में बाबर को बहुत सा धन भी मिला, जिसे उसने अपनी सेना में बाँट दिया। इस प्रथम भारत-विजय पर झूमते बाबर ने अपने देश काबुल के प्रत्येक नागरिक को चाँदी का एक-एक सिक्का दिया। उसे लोगों ने ‘कलंदर’ की उपाधि से नवाजा। बाबर दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और मुगल सल्तनत की दीर्घकालीन नींव पड़ गई। पानीपत की विजय से बाबर ने अफगानों की शक्ति क्षीण कर दी थी और धीरे-धीरे अफगानों से आगरा तक के सारे क्षेत्र छीनकर अपने अधिकार में कर लिए थे, फिर वह अपनी विशाल फौज के साथ बयाना की ओर बढ़ा, जो राजनीतिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण किला था। यह किला इस समय महाराणा साँगा के अधीन था, जिसका हाकिम निजाम खाँ था। 

बाबर को दिल्ली में ही महाराणा साँगा और राजपूत सेना के विषय में पता चल गया था और वह मानता था कि उसके भारत-विजय अभियान की सबसे बड़ी बाधा चित्तौड़ ही बनेगा। वह महाराणा साँगा की कूटनीति से तब परिचित हो गया था, जब लाहौर-विजय के पश्चात् उसे महाराणा के दूत द्वारा दिल्ली आक्रमण के समय सहायता का आश्वासन तो दिया, लेकिन सहायता नहीं दी गई। बाबर जान गया कि महाराणा साँगा अफगान शक्ति को क्षीण करके दिल्ली पर शासन करने का इच्छुक था, लेकिन शासन तो स्वयं बाबर करने आया था। वह भी समूचे भारतवर्ष पर! राजपूताने पर और मेवाड़ पर भी। 

बाबर ने बयाना को जीतने से पहले महाराणा साँगा की शक्ति के विषय में पूरी जानकारी ले ली थी। उसे पता चल गया था कि राजपूती सेना में इस समय गजब का संगठन है और महाराणा साँगा अपाहिज होने के बाद भी इतना पराक्रमी है कि एक पूरी सैन्य टुकड़ी का सामना करने में सक्षम है। यद्यपि उसके पास भी विशाल सेना थी, लेकिन वह सेना युद्ध नहीं लड़ना चाहती थी, जिससे उसे भारत-विजय अभियान को पराजय का दंश सहना पड़े। उसे बयाना तो हर हाल में ही चाहिए था तो उसने कूटनीतिक चाल चली। उसने बयाना के हाकिम निजाम खाँ से भेंट की और उसे अपनी ओर मिला लिया; आलिम खाँ को भी अपने साथ कर लिया। 

वास्तव में बाबर ने निजाम खाँ को आश्वस्त नहीं पाया था और उसे लग रहा था कि वह महाराणा के विरुद्ध बाबर का साथ पूरे मन से नहीं देगा, इसलिए बाबर ने यह दोहरा इंतजाम किया था। निजाम खाँ अभी तक असमंजस में था। कभी उसे लगता कि बाबर का साथ देने में लाभ है और कभी महाराणा का वफादार बने रहने में। अंततः अपने जमीर की बात मानकर वह महाराणा से ही मिला। 

महाराणा साँगा जानते थे कि एक दिन बाबर की महत्त्वाकांक्षा का सामना राजपूती महत्त्वाकांक्षा को करना ही होगा। पिछले छह साल से बाबर सुर्खियों में था और राणा साँगा उस संभावित शत्रु पर पैनी नजर रखे हुए थे। उन्होंने इसीलिए अपना दूत बाबर के पास भेजा था कि वह भारत को लूटकर भागने के लिए नहीं आया, बल्कि यहाँ टिककर मुगल साम्राज्य की स्थापना करने के लिए आया है। महाराणा को तभी पता चल गया कि राजपूत साम्राज्य को एक प्रबल शत्रु का सामना करना ही पड़ेगा।

 ‘‘महाराणा, बयाना संकट में है।’’ निजाम खाँ ने कहा, ‘‘मुगल योद्धा बाबर किसी भी तरह अपने विजय अभियान को बढ़ाना चाहता है। उसने मुझे भी अपनी बातों में उलझाकर भ्रमित कर दिया कि आपसे विश्वासघात करूँ। खुदा का शुक्र है कि वक्त रहते अक्ल आ गई कि मैंने आपका साथ देने का संकल्प किया।’’ 

‘‘अच्छा किया निजाम खाँ! जीत और हार तो राजनीतिक सत्ता के दो पहलू हैं। इनमें तो शासकों को जूझते ही रहना है। जो हार जाता है, वह जीतने के प्रयास करता है और जो जीत जाता है, वह फिर जीतने के प्रयास करता है, पर जो वफादारी और विश्वास मर जाता है तो हार-जीत फीकी पड़ जाती है।’’

‘‘यही बात मेरे दिल में भी आई थी।’’ निजाम खाँ ने कहा, ‘‘सत्ता और सिंहासन तो फानी चीजें हैं, इनसान को मारकर अल्लाह को भी जवाब देना है। मुझे बाबर का भय नहीं हुआ, खुदा का हुआ।’’ 

‘‘निजाम खाँ, हमें इस संसार में भगवान् ने आम जनता की सेवा करने के लिए भेजा है। साम्राज्यवादी नीतियाँ इस काम में हमेशा आडे़ आती हैं। बाबर एक कुशल योद्धा और कूटनीतिज्ञ है। वह जानता है कि बयाना को प्राप्त करना एक प्रकार से राजपूताने में सेंध लगाना है। यहीं से गुजरात, मालवा और दक्षिण भारत का मार्ग प्रशस्त होगा, परंतु वह यह भी जानता है कि बयाना मिलना सरल नहीं है। अतः उसने कूटनीतिक चाल चली है।’’ 

‘‘बयाना तो उसे आसानी से नहीं मिलेगा।’’ 

‘‘बाबर इस समय समूचे भारतीय साम्राज्य के लिए खतरा है। क्या तुर्क, क्या अफगान और क्या राजपूत, बाबर सबको पददलित करके भारत में मुगल शासन की स्थापना करना चाहता है। दिल्ली की पराजय से उसे अपने उद्देश्य में एक बड़ी सफलता मिली है, परंतु राजपूताना उसकी राह में एक बड़ी बाधा है।’’ 

‘‘राणाजी, आपके होते उसका सपना कैसे पूरा हो सकता है?’’ 

‘‘यह तो समय ही बताएगा कि क्या होगा, परंतु यह तो निश्चित है कि हम उसे आसानी से जड़ें नहीं जमाने देंगे।’’

 ‘‘मेरे लिए क्या हुक्म है?’’ 

‘‘आप बयाना की सुरक्षा करें। निर्भय होकर करें। हम आपके साथ हैं और हमें आपकी वीरता पर भी कोई संदेह नहीं है। बयाना आपका है और आप उसकी रक्षा करने में समर्थ हैं। आवश्यकता पड़ने पर हम अपनी सेना भी भेजेंगे।’’ 

‘‘ठीक है राणाजी!’’ 

निजाम खाँ उत्साह से बयाना लौट गया और अपनी सेना को सुदृढ किया। बाबर ने उसकी तैयारियाँ देखी तो जान गया कि वह महाराणा का वफादार मुगलों से अवश्य ही युद्ध करेगा। बाबर ने अपने एक योद्धा तईबेग को सेना के साथ बयाना पर आक्रमण करने भेज दिया। तय हुआ था कि किले का फाटक आलिम खाँ खोल देगा, जिससे युद्ध जीतने में सरलता होगी। निजाम खाँ को भी अपने भाई पर विश्वास नहीं था, इसलिए उसने उस पर भी नजर रखी थी। जब बाबर की सेना बयाना पहुँची तो निजाम खाँ ने अपने भाई को कैद कर लिया और अपनी सेना को आक्रमण का आदेश दिया। भीषण युद्ध हुआ और निजाम खाँ ने मुगल सेना को बुरी तरह परास्त करके खदेड़ दिया। 

बाबर ने इस युद्ध से जान लिया कि उसे किस प्रकार इस क्षेत्र में युद्ध करना और जीतना है। उसने अपनी विशाल सेना की एक छोटी सी टुकड़ी दिल्ली के समीप राजपूताने में भेज दी, जिससे महाराणा का ध्यान उस ओर लग गया। बाबर ने बड़ी ही कूटनीति से बयाना पर तब आक्रमण किया, जब महाराणा वहाँ से कई सौ मील दूर थे। यद्यपि निजाम खाँ ने बड़ी बहादुरी से सामना किया था, लेकिन इस बार बाबर ने निश्चित जीत के लिए आक्रमण किया। निजाम खाँ को परास्त होना पड़ा और बयाना उसके अधिकार में आ गया। जब यह समाचार महाराणा साँगा को मिला तो वे चिंतित हो उठे। उनके वीर सरदारों ने आवेश में आकर बयाना पर आक्रमण करने की राय दी। 

‘‘नहीं, अभी नहीं, यह उचित समय नहीं है। हमें बाबर को हल्के में नहीं लेना चाहिए। अब बात केवल बयाना पर फिर से अधिकार करने से नहीं बनेगी, अपितु अब हमें दिल्ली व पंजाब से भी बाबर को बाहर करना होगा, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब पूरे भारत पर मुगल साम्राज्य स्थापित हो जाएगा।’’ 

‘‘महाराणा, ऐसा कदापि संभव नहीं है। मेवाड़ कभी उस मंगोल के सामने नहीं झुकेगा। वह चाहे तो सारे भारत में विजय प्राप्त कर ले, किंतु मेवाड़ को किसी भी मूल्य पर प्राप्त नहीं कर सकता।’’ 

‘‘पिछले पाँच सौ वर्षों तक हम राजपूतों ने राजपूताने को सशक्त बनाए रखा है और तुर्कों से निरंतर युद्ध किए हैं। यदि सभी एकजुट हो जाते तो तुर्की सल्तनत इतना विस्तार न कर पाती। कन्नौज, उज्जैन, अवध, मगध और वैशाली जैसे राज्य एकसूत्र में बँध जाएँ तो भारत में किसी बाहरी शक्ति का वर्चस्व स्थापित नहीं हो सकता। यह उचित समय है, जब तुर्कों और अफगानों की शक्ति क्षीण हो रही है और मंगोल शक्ति उभार पर है। अब सभी राजाओं को एकजुट होकर इस उभरती शक्ति का दमन करना होगा, तभी भारतवर्ष सुरक्षित रहेगा। मेवाड़ सदैव युद्धरत रहकर अपनी स्वतंत्रता को तो बचाए रख सकता है, किंतु बाबर को जड़ें जमाने से नहीं रोक सकता।’’

यह तो बहुत असंभव दिवास्वप्न जैसी बात है, महाराणाजी, भारतवर्ष की सबसे बड़ी दुर्बलता तो इसका विखंडन ही है। हमें अपनी शक्ति और ऊर्जा को मेवाड़ रक्षा में लगाना चाहिए।

 ‘‘नहीं सरदार साहब! हमें बाबर के खिलाफ एक मजबूत संगठन बनाना होगा। एक ऐसा संगठन, जो मैदान चाहे जो भी हो, एकजुट होकर बाबर को खदेड़ दे। यही समय की माँग है और भारतवर्ष की रक्षा का उपाय भी। तुर्क और अफगान भी बाबर के इस हस्तक्षेप को स्वीकार करने वाले नहीं हैं। अतः इसे उचित समय भी कहा जा सकता है। हमें इन सभी से विचार करना चाहिए।’’ 

महाराणा साँगा की यह बात अपने स्थान पर बिल्कुल ठीक थी, परंतु कुछ सरदारों के गले नहीं उतर रही थी।