Samta ke Pathik: Bhimrao - 12 in Hindi Biography by mood Writer books and stories PDF | समता के पथिक: भीमराव - 12

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समता के पथिक: भीमराव - 12

एपिसोड 12 – अंतिम संघर्ष और अमर विरासत

बीमारी का बोझ

धर्म परिवर्तन के ऐतिहासिक आयोजन (नागपुर, 14 अक्टूबर 1956) के बाद बाबासाहेब अंबेडकर का जीवन मानो अपनी मंज़िल पा चुका था।
उन्होंने अपने लोगों को नया धर्म, नई पहचान और नया जीवन दिया।
लेकिन इसी के कुछ दिनों बाद उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा।

बचपन से ही बाबासाहेब बीमारियों से लड़ते आए थे – आँखों की तकलीफ़, शुगर, ब्लड प्रेशर, और लगातार काम के दबाव ने उनका शरीर कमजोर कर दिया था।
उनके डॉक्टर कहते थे कि वे आराम करें, लेकिन अंबेडकर का कहना था—
“आराम करने का समय मेरे पास नहीं है। अभी बहुत कुछ करना बाकी है।”

आखिरी दिनों की दिनचर्या

दिल्ली के 26 अलीपुर रोड पर उनका निवास था।
वह दिन-रात किताबों से घिरे रहते।
वे बौद्ध धर्म और समाज सुधार पर लिखते रहते।
उनका प्रिय प्रोजेक्ट था – “बुद्ध और उनका धम्म” (The Buddha and His Dhamma)।
यह उनकी अंतिम कृति थी, जिसमें उन्होंने बुद्ध के जीवन और विचारों को सरल भाषा में रखा।

कभी-कभी वे कहते—
“मेरे जीवन की सबसे बड़ी पूँजी यह है कि मैं किताबों के साथ मरूँगा।”

उनका स्वास्थ्य बिगड़ने के बावजूद कलम चलती रही।

अंतिम रात

5 दिसंबर 1956 की रात थी।
ठंड की दिल्ली की सर्द हवा बह रही थी।
बाबासाहेब अपने कमरे में किताबें पढ़ रहे थे और लेखन में लगे हुए थे।
उनकी पत्नी डॉ. सावित्रीबाई उनके पास थीं।

रात लगभग 2 बजे, वह गहरी नींद में चले गए।
सुबह जब उन्हें जगाने की कोशिश की गई, तो वे हमेशा के लिए शांत हो चुके थे।

6 दिसंबर 1956 – यह दिन भारत के इतिहास का काला दिन बन गया।
देश ने अपने महान समाज सुधारक और संविधान निर्माता को खो दिया।

शोक की लहर

अंबेडकर के निधन की खबर जंगल की आग की तरह फैली।
दिल्ली से लेकर मुंबई, नागपुर से लेकर गाँव-गाँव तक लोग रोने लगे।
उनके अनुयायियों को लगा मानो पिता जैसा सहारा छिन गया हो।

दिल्ली से उनका पार्थिव शरीर मुंबई लाया गया।
जहाँ-जहाँ ट्रेन गुज़री, लाखों लोग स्टेशन पर उमड़े।
लोग फूल लेकर आए, नारे लगे—
“जय भीम! बाबासाहेब अमर रहें!”

महापरिनिर्वाण

7 दिसंबर 1956 को मुंबई के दादर चौपाटी (अब चैत्यभूमि) पर उनका अंतिम संस्कार हुआ।
उनकी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार बौद्ध रीति से किया गया।
भिक्षुओं ने त्रिशरण और पंचशील का जाप किया।
लाखों लोगों ने वहीं बौद्ध धर्म की शरण ली।

उस दिन का दृश्य ऐसा था, जैसे समुद्र का किनारा मानव सागर से भर गया हो।
लोगों ने कहा—
“बाबासाहेब गए नहीं हैं, वे हमारे भीतर जी रहे हैं।”

उनके सपने

बाबासाहेब ने हमेशा तीन बातों पर ज़ोर दिया—

1. शिक्षित बनो


2. संगठित रहो


3. संघर्ष करो



ये तीन मंत्र आज भी करोड़ों लोगों की ताक़त हैं।
उन्होंने दलितों को यह विश्वास दिया कि शिक्षा और एकता से वे दुनिया बदल सकते हैं।

राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव

बाबासाहेब के निधन के बाद, उनके विचार एक आंदोलन बन गए।
न केवल दलित समाज, बल्कि पिछड़े वर्ग, महिलाएँ और शोषित वर्ग ने भी उनके विचारों को अपनाया।
भारत की राजनीति में “बहुजन आंदोलन” जन्मा, जिसने आगे चलकर कई राज्यों में सत्ता बदली।

वैश्विक विरासत

आज दुनिया के कई देशों में अंबेडकर का नाम सम्मान से लिया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र तक में उनकी प्रतिमाएँ लगी हैं।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, कोलंबिया यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों में उनके योगदान पर रिसर्च होती है।

आज का अंबेडकर

आज 21वीं सदी में भी अंबेडकर उतने ही प्रासंगिक हैं जितने अपने समय में थे।
जब-जब समानता और न्याय की बात होती है, बाबासाहेब का नाम लिया जाता है।
उनकी सोच सिर्फ दलितों के लिए नहीं थी, बल्कि पूरे मानव समाज के लिए थी।
वे कहते थे—
“मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सिखाता है।

बाबासाहेब का जीवन हमें सिखाता है कि –

शिक्षा से ही बदलाव आता है।

अन्याय के खिलाफ खड़े होना ही असली मानवता है।

और एक अकेला इंसान भी करोड़ों लोगों की किस्मत बदल सकता है।


6 दिसंबर 1956 को उनका शरीर भले ही समाप्त हुआ, लेकिन उनकी विचारधारा आज भी ज़िंदा है।
वो विचार हर पीढ़ी को कह रहे हैं—
“शिक्षित बनो, संगठित रहो, और संघर्ष करो।”