एपिसोड 13 – राजनीति की ओर पहला कदम
समाज सुधार से राजनीति की ओर
महाड़ सत्याग्रह और कालाराम मंदिर सत्याग्रह जैसे आंदोलनों के बाद अंबेडकर अब केवल सामाजिक सुधारक नहीं रहे थे। वे दलितों के लिए प्रेरणा, आत्मसम्मान और विद्रोह का प्रतीक बन चुके थे।
उनकी छवि एक ऐसे नेता की थी जो डरता नहीं, झुकता नहीं, और अन्याय के खिलाफ सीधा खड़ा हो जाता है।
दलित समाज को अब अहसास हुआ कि आंदोलन और सत्याग्रह से जागरूकता तो बढ़ सकती है, पर असली बदलाव तब आएगा जब सत्ता और राजनीति में उनकी हिस्सेदारी होगी।
अंबेडकर ने भी साफ कहा था—
“अगर सत्ता पर आपका कोई हिस्सा नहीं है, तो समाज में आपका सम्मान कभी नहीं हो सकता।”
कांग्रेस से वैचारिक मतभेद
उस समय भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन तेज़ी से चल रहा था और कांग्रेस उसकी अगुवाई कर रही थी। महात्मा गांधी भारतीय राजनीति के सबसे बड़े नेता थे।
गांधी का मानना था कि दलित समाज को ‘हरिजन’ कहकर सम्मान मिल सकता है, और हिंदू धर्म के भीतर सुधार करके छुआछूत मिटाई जा सकती है।
लेकिन अंबेडकर का दृष्टिकोण अलग था।
उन्होंने गांधी के दिए शब्द हरिजन को अस्वीकार कर दिया। उनका कहना था—
“हमें किसी के दया-भाव से मिला नाम नहीं चाहिए। हमें इंसान के रूप में हमारी पहचान चाहिए। हम बराबरी चाहते हैं, न कि कृपा।”
गांधी और अंबेडकर दोनों ही दलितों की बेहतरी चाहते थे, परंतु उनके रास्ते अलग थे।
गांधी सामाजिक सुधार और धार्मिक चेतना को समाधान मानते थे, जबकि अंबेडकर का मानना था कि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म की जड़ों में बसी है, और इसे तोड़े बिना दलित कभी स्वतंत्र नहीं हो सकते।
राजनीति में उतरने का निर्णय
1930 के दशक में अंबेडकर ने यह समझ लिया कि दलित समाज की स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए राजनीति में उतरना ज़रूरी है।
यदि दलित कांग्रेस पर निर्भर रहेंगे, तो उनकी आवाज़ दब जाएगी और वे हमेशा पिछड़े रहेंगे।
इस सोच ने उन्हें एक स्वतंत्र राजनीतिक संगठन बनाने की ओर प्रेरित किया।
इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का जन्म
1936 में अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP) की स्थापना की।
यह सिर्फ दलितों की पार्टी नहीं थी, बल्कि मजदूरों, किसानों और सभी शोषित वर्गों की आवाज़ थी।
इस पार्टी के तीन बड़े उद्देश्य थे—
1. छुआछूत और जाति-आधारित अन्याय को समाप्त करना।
2. मजदूरों और किसानों के अधिकारों की रक्षा करना।
3. राजनीति में समानता और सामाजिक न्याय की नई धारा स्थापित करना।
ILP का गठन भारतीय राजनीति के लिए ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि पहली बार दलित समाज को महसूस हुआ कि अब उनकी भी अपनी राजनीतिक ताकत है।
1937 का चुनाव और पहली सफलता
1937 के बॉम्बे प्रांतीय चुनावों में ILP ने हिस्सा लिया।
लोगों को उम्मीद नहीं थी कि एक नई पार्टी कुछ खास कर पाएगी, लेकिन अंबेडकर की करिश्माई नेतृत्व क्षमता और स्पष्ट विचारधारा ने कमाल कर दिया।
ILP ने 17 सीटों पर जीत हासिल की।
यह जीत छोटी थी, लेकिन दलित राजनीति के लिए ऐतिहासिक साबित हुई।
अंबेडकर ने विधानसभा में मजदूरों की समस्याएँ, किसानों के शोषण, और छुआछूत के खिलाफ कानून की माँग उठाई।
उनका एक ऐतिहासिक भाषण गूंजा—
“अगर यह देश आज़ाद होगा लेकिन दलित गुलाम ही बने रहेंगे, तो ऐसी आज़ादी हमें स्वीकार नहीं। स्वतंत्रता सबके लिए समान होनी चाहिए।”
यह वाक्य विधानसभा से निकलकर पूरे देश में गूँज गया।
गांधी और अंबेडकर का संवाद
1930 के दशक में गांधी और अंबेडकर के बीच कई संवाद और बहसें हुईं।
गांधी चाहते थे कि दलित कांग्रेस के साथ जुड़ें, ताकि स्वतंत्रता आंदोलन एकजुट होकर लड़ा जा सके।
लेकिन अंबेडकर ने साफ कहा—
“दलितों को कांग्रेस से कोई फायदा नहीं। कांग्रेस केवल ऊँची जातियों की पार्टी है, जो दलितों को इस्तेमाल करना चाहती है।”
इन विचारों के कारण दोनों के बीच दूरी और भी बढ़ गई।
फिर भी, दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते थे। गांधी ने माना कि अंबेडकर एक सच्चे नेता हैं, जबकि अंबेडकर ने गांधी के व्यक्तिगत त्याग की सराहना की, पर उनके विचारों से सहमत नहीं हुए।
दलित चेतना की लहर
ILP की सफलता ने दलितों के बीच आत्मविश्वास जगाया।
अब वे महसूस करने लगे कि वे केवल सहानुभूति के पात्र नहीं, बल्कि राजनीति की धुरी भी बन सकते हैं।
गाँव-गाँव और शहर-शहर में अंबेडकर की बातें चर्चा का विषय बनने लगीं।
दलित समाज अब कहने लगा—
“हमारे पास भी नेता है, हमारी भी आवाज़ है, और हम भी राजनीति में अपनी जगह बना सकते हैं।”