Rote Huve Saye in Hindi Short Stories by Piyush Parmar books and stories PDF | रोते हुए साए

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रोते हुए साए

रोते हुए साए


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✍ Introduction 

ज़िन्दगी की राहों पर चलने वाला हर इंसान अपने साथ कुछ साए लिए घूमता है।
कभी यह साए उसके बचपन की अधूरी हँसी होते हैं, कभी जवानी के टूटे सपनों के, और कभी रिश्तों की चुप्पियों के।
ये साए बोलते नहीं, मगर उनका बोझ दिल को रुला देता है।
यह किताब उन्हीं सायों की दास्तान है—कुछ मेरी, कुछ आपकी, और कुछ उन सबकी, जो इस दुनिया में मुस्कान के पीछे अपने आँसुओं को छुपाए फिरते हैं।

“रोते हुए साए” कोई सीधी-सादी कहानी नहीं है।
यह भावनाओं का संगम है—कभी दर्द, कभी मोहब्बत, कभी उम्मीद और कभी हकीकत।
यह किताब आपको अपने अंदर झाँकने पर मजबूर करेगी और शायद आपके साए भी आपसे बातें करने लगें।




1




रात का वक़्त था।
गली के आख़िरी सिरे पर लगे स्ट्रीट लाइट की टिमटिमाती रोशनी आधे-अधूरे सन्नाटे को और गहरा बना रही थी। हवा में ठंडक थी, पर वह ठंडक शरीर से ज़्यादा दिल को जमा देने वाली लग रही थी।

अरविंद उस छोटे से कमरे में अकेला बैठा था। कमरा यूँ तो चार दीवारों का था, मगर उन चारों दीवारों पर जैसे अनगिनत कहानियाँ चिपकी हुई थीं।
एक तरफ़ किताबों का ढेर रखा था—कभी ज्ञान की भूख में खरीदी गईं, मगर अब धूल से ढकी हुईं। दूसरी तरफ़ एक टूटी कुर्सी, जिस पर अब सिर्फ़ कपड़े टांगे जाते थे। और बीच में एक लकड़ी की पुरानी टेबल थी, जिस पर अधूरी चिट्ठियाँ, मुड़े हुए काग़ज़ और आधी बुझी सिगरेट पड़ी थी।

अरविंद की आँखें थकी हुई थीं।
नींद उसके पास आने से इनकार कर चुकी थी।
वो खिड़की से बाहर झाँक रहा था, जहाँ अँधेरे के बीच कभी-कभी कुत्तों का भौंकना सुनाई देता।
उसने धीरे से बुदबुदाया—
“क्या सचमुच इंसान कभी अकेला होता है? या फिर उसके साथ हमेशा उसके साए रहते हैं?”

साए…
अरविंद जानता था कि उसके साए सिर्फ़ कमरे की दीवारों पर पड़ने वाली परछाइयाँ नहीं थे।
वे उसके अतीत की आवाज़ें थीं—अनकहे शब्द, अधूरे रिश्ते, और टूटी उम्मीदें।
वह जितना उनसे भागने की कोशिश करता, उतना ही वे उसके पास लौट आते।

उसकी नज़रें टेबल पर रखी एक पुरानी डायरी पर ठहर गईं।
वो डायरी उसके कॉलेज के दिनों की थी।
धीरे-धीरे उसने उसे खोला।
पहला पन्ना पलटा—उसमें बचपन का एक दोस्त ‘रघु’ का ज़िक्र था।
रघु… जो हमेशा उसके साथ रहता था।
मगर एक हादसे में उसे खो देने के बाद, अरविंद ने पहली बार सीखा था कि ज़िंदगी सिर्फ़ जीने का नाम नहीं है, बल्कि हर पल किसी न किसी कमी के साथ गुज़रने का नाम है।

उसकी आँखों के सामने रघु की हँसी घूम गई।
एक पल को लगा जैसे वो अब भी पास बैठा कह रहा हो—
“डर मत, सब ठीक हो जाएगा।”
लेकिन सच तो यह था कि सब कभी ठीक हुआ ही नहीं।

अरविंद ने अगला पन्ना पलटा।
इस बार वहाँ कुछ प्रेम-पत्र थे।
अक्षरों में स्याही तो थी, मगर शब्दों में मोहब्बत का दर्द।
वो ‘अनामिका’ का नाम पढ़ते ही सिहर उठा।
अनामिका, उसकी पहली मोहब्बत।
वो लड़की जिसने उसकी दुनिया बदल दी थी, मगर उसे छोड़कर ऐसे चली गई जैसे कभी आई ही न हो।
हर पंक्ति पढ़ते हुए उसके दिल में टीस उठती थी।
वो सोच रहा था—
“क्या मोहब्बत सच में किसी को पूरा करती है या सिर्फ़ तोड़कर अधूरा छोड़ देती है?”

खिड़की से आती ठंडी हवा ने पन्नों को हिला दिया।
एक पन्ना फड़फड़ाता हुआ ज़मीन पर गिरा।
अरविंद झुका, उसने पन्ना उठाया।
उस पर लिखा था—
“कभी-कभी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन उसका अपना अतीत होता है।”

अरविंद देर तक उस वाक्य को पढ़ता रहा।
उसे लगा जैसे ये पंक्ति किसी और ने नहीं, बल्कि उसके अपने साए ने लिखी हो।

कमरे में सन्नाटा और गहरा हो गया।
उसने अपनी कलम उठाई और खाली पन्ने पर लिखना शुरू किया—

“मैं भागना चाहता हूँ, पर साए पीछा नहीं छोड़ते।
मैं हँसना चाहता हूँ, पर अंदर की आवाज़ मुझे रुला देती है।
शायद ज़िंदगी का असली सच यही है कि इंसान कभी अकेला नहीं होता—
वो हमेशा अपने रोते हुए सायों के साथ जीता है।”

कलम रुक गई।
उसकी आँखें भर आईं।
वो चुपचाप बैठा रहा, मानो सन्नाटा भी उससे बातें कर रहा हो।

और यूँ, उस रात की ख़ामोशी में, अरविंद ने अपनी कहानी का पहला क़दम रखा—
सन्नाटे का पहला क़दम।


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2




सुबह की पहली किरण कमरे में दाख़िल हुई, मगर उसके साथ कोई रौशनी नहीं आई।
कमरा अब भी उतना ही भारी और उदास था जितना पिछली रात।
अरविंद ने करवट बदली।
उसकी आँखें सूजी हुई थीं—जैसे पूरी रात रोते-रोते थक चुकी हों।

टेबल पर रखी डायरी अब भी खुली पड़ी थी।
रात की लिखी हुई आख़िरी पंक्तियाँ उसकी आँखों में चुभ रही थीं।
उसने धीरे से पन्ना बंद किया, मानो किसी ज़ख़्म पर पट्टी बाँध दी हो।

लेकिन ज़ख़्म ऐसे होते हैं क्या?
काग़ज़ बंद करने से क्या दर्द रुक जाता है?

वह उठकर आईने के सामने गया।
आईना पुराना था—किनारों से टूटा हुआ।
उसमें उसका चेहरा बिखरा हुआ नज़र आता था।
जैसे कोई इंसान नहीं, बल्कि टूटी हुई परछाई हो।
वह मुस्कुराने की कोशिश करता, मगर आईना उसकी हँसी को भी तोड़कर लौटा देता।

उसे अचानक याद आया—
“आईना कभी झूठ नहीं बोलता।”
यह बात उसकी माँ ने बचपन में कही थी।
मगर अब उसे लगता था कि आईना भी सच्चाई नहीं दिखाता।
सच्चाई तो वह है जो दिल में चल रही है—
और दिल में तो सिर्फ़ अँधेरा था, सन्नाटा था, और वो रोते हुए साए।

अरविंद ने चेहरा धोया और बाहर निकलने की कोशिश की।
गली की हवा कुछ अलग थी।
बच्चों की हँसी, चाय वाले की पुकार, दूध वाले की साइकिल की घंटी—सब कुछ वैसे ही था।
दुनिया चल रही थी।
बस वही था जो कहीं अटका हुआ था।

वह बाज़ार की ओर बढ़ा।
भीड़ में चलते हुए भी उसे अकेलापन महसूस होता था।
हर चेहरा जैसे नक़ाब पहने था।
हर कोई हँस रहा था, मगर उनकी आँखों में वही खालीपन था जो उसके अपने अंदर था।

चाय की दुकान पर बैठकर उसने एक कप चाय मँगवाई।
दुकानदार ने मुस्कुराकर पूछा—
“क्या हुआ बाबूजी, बहुत थके-थके लग रहे हो?”

अरविंद ने बस इतना कहा—
“नींद नहीं आई।”

दुकानदार हँस पड़ा—
“नींद किसे आती है साहब? हर कोई अपने-अपने सायों से जूझ रहा है। फर्क बस इतना है कि कोई बताता है, कोई छुपाता है।”

ये सुनकर अरविंद चौंक गया।
क्या सच में हर किसी के पास उसके जैसे साए होते हैं?
क्या ये दर्द सिर्फ़ उसी का नहीं, बल्कि सबका साथी है?

उसने गहरी साँस ली।
चाय की गर्मी उसके होंठों से होकर दिल तक पहुँची।
पहली बार उसे लगा कि शायद यह सफ़र सिर्फ़ उसका नहीं है।
शायद यह टूटे आईने के टुकड़े हर किसी के पास हैं।

भीड़ में खोए हुए चेहरों को देखकर उसने महसूस किया—
“शायद मैं अकेला नहीं हूँ।
शायद ये दुनिया भी मेरे जैसी परछाइयों से बनी है।
हर किसी के आईने में दरार है, बस कोई दिखाता है, कोई छुपाता है।”

उस दिन अरविंद को पहली बार समझ आया कि उसके साए सिर्फ़ उसके नहीं हैं।
दुनिया का हर इंसान अपने-अपने टूटे आईनों के साथ जी रहा है।


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3



उस शाम आसमान पर हल्के बादल छाए हुए थे।
हवा में नमी थी, जैसे बारिश आने से पहले धरती भी अपनी साँस रोक लेती है।
अरविंद अपने कमरे में लौट आया था।
दिनभर की भागदौड़ और लोगों के बीच रहकर भी उसकी थकान कम नहीं हुई थी।
कमरा खोलते ही उसे वही पुरानी गंध मिली—बासी काग़ज़ों, अधूरे सपनों और सिगरेट की राख की।

टेबल पर डायरी रखी थी।
उसकी नज़र बार-बार उसी पर जाती।
मगर इस बार उसने डायरी नहीं उठाई, बल्कि नीचे रखे पुराने बक्से को खोला।
बक्सा खोलते ही पुरानी यादों का दरवाज़ा खुल गया।

उसमें दर्जनों चिट्ठियाँ थीं—कुछ लिखी हुई, कुछ अधूरी, और कुछ सिर्फ़ काग़ज़ जिन पर पहला शब्द लिखकर छोड़ दिया गया था।
वो चिट्ठियाँ जैसे उसकी ज़िन्दगी का आईना थीं।

उसने पहली चिट्ठी उठाई।
उसमें लिखा था:
“प्यारी अनामिका,
शायद मैं तुमसे कभी कह नहीं पाया, लेकिन हर बार तुम्हें देखकर मुझे लगता है कि दुनिया की सारी रोशनी तुम्हारी आँखों में कैद है…”

यह पढ़ते ही उसका गला सूख गया।
उसकी आँखों के सामने अनामिका का चेहरा तैरने लगा—उसकी मासूम मुस्कान, उसकी बातें, और वह दिन जब वह हमेशा के लिए उससे दूर चली गई थी।

अरविंद ने वह चिट्ठी वापस रख दी।
उसने दूसरी चिट्ठी उठाई।
यह अधूरी थी।
सिर्फ़ इतना लिखा था:
“रघु, तेरे जाने के बाद सब खाली हो गया है…”

उसके हाथ काँप गए।
यह चिट्ठी उसने अपने दोस्त की मौत के बाद लिखी थी, मगर कभी भेजी नहीं।
क्योंकि रघु को अब भेजने की जगह ही कहाँ बची थी।

एक-एक चिट्ठी खोलते हुए उसके सीने पर बोझ बढ़ता जा रहा था।
हर पन्ना एक कहानी था, हर शब्द एक ज़ख़्म।
कुछ चिट्ठियाँ माँ के लिए थीं, जिनमें उसने अपनी नाकामियों की कसक लिखी थी।
कुछ खुद के लिए—मानो आईने में खड़े होकर अपने आप से बातें कर रहा हो।

आख़िरकार उसने सबसे नीचे से एक चिट्ठी निकाली।
उस पर धूल जम चुकी थी।
खोलते ही उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
इसमें लिखा था:

“प्यारे अरविंद,
अगर कभी तुझे लगे कि तू अकेला है, तो इन चिट्ठियों को पढ़ लेना।
ये तेरे साए नहीं, तेरे हिस्से हैं।
इनमें तेरी मोहब्बत भी है, तेरी दोस्ती भी, तेरी हार भी और तेरी उम्मीद भी।
मत भूलना, इंसान अपने सायों के साथ जीता है, उनसे भागकर नहीं।”

यह चिट्ठी उसकी अपनी लिखी हुई थी—अपने ही लिए।
वो चौंक गया।
क्या उसने सच में ये लिखा था?
कब लिखा था?
उसे याद ही नहीं।

लेकिन उस पन्ने ने जैसे उसकी आत्मा को हिला दिया।
उसने पहली बार महसूस किया कि शायद इन अधूरी चिट्ठियों में ही उसकी पूरी ज़िन्दगी छुपी है।
और अगर वह इन्हें स्वीकार कर ले, तो शायद उसके साए रोना छोड़ दें।

उसने सारी चिट्ठियाँ वापस बक्से में रखीं और गहरी साँस ली।
उस रात खिड़की से बाहर देखते हुए उसने सोचा—
“शायद मेरी ज़िन्दगी की किताब इन्हीं अधूरी चिट्ठियों से पूरी होगी।”

और यूँ, उसकी कहानी एक नए मोड़ पर पहुँच गई।
रोते हुए साए अब बोलने लगे थे।


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4




रात ढल चुकी थी।
आसमान पर बादल अब और गहरा गए थे।
धीरे-धीरे गरज की आवाज़ आई, फिर अचानक बूँदें गिरने लगीं।
बारिश की बूँदें टिन की छत पर पड़ते ही कमरे में एक अजीब-सी धुन बनाने लगीं।
हर बूँद जैसे अरविंद के दिल की धड़कन से ताल मिला रही थी।

वह खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया।
बाहर सब कुछ धुँधला था—गली, पेड़, बिजली का खंभा—सब बारिश में भीगते हुए जैसे एक-दूसरे से गले लग रहे थे।
मगर अरविंद को लगा कि वह अकेला खड़ा है, जैसे इस बारिश में भी पानी उसे छू नहीं पा रहा।

उसे बारिश हमेशा से पसंद थी।
बचपन में वह रघु के साथ भीगता था, कीचड़ में खेलता था।
अनामिका भीगते हुए बालों को झटकते हुए हँसती थी।
बारिश उसके लिए कभी उम्मीद की निशानी थी।
लेकिन अब वही बारिश उसे अपने अंदर डुबो रही थी।

उसने खिड़की खोली।
ठंडी बूँदें उसके चेहरे पर गिरीं।
पहली ही बूँद के साथ उसके मन की परतें खुलने लगीं।
वह सोचने लगा—
“क्या यह बारिश सचमुच धो देती है इंसान का दर्द?
या यह सिर्फ़ बाहर की धूल हटाती है और भीतर की गंदगी और गहरी कर देती है?”

वह धीरे से खिड़की की चौखट पर बैठ गया।
बाहर सन्नाटा था, बस बारिश की आवाज़ थी।
उसने आँखें बंद कर लीं।
कुछ पल बाद उसे लगा मानो बारिश के बीच उसके साए खड़े हैं।
वे भीग रहे हैं, काँप रहे हैं, मगर उनकी आँखों में आँसू अब भी साफ़ दिख रहे हैं।

अरविंद को लगा जैसे वे साए उससे कुछ कहना चाहते हैं।
एक साया फुसफुसाया—
“हम तेरे हिस्से हैं। हमें मिटाने की कोशिश मत कर। हमें समझ, अपनाना सीख।”

अरविंद चौंक गया।
क्या सचमुच साए बोल सकते हैं?
या यह उसके दिल की आवाज़ थी?

बारिश और तेज़ हो गई।
उसके अंदर भी तूफ़ान उठने लगा।
वह उठा, और टेबल से एक नया पन्ना निकाला।
कलम उठाकर उसने लिखा—

“आज बारिश में मैंने अपने सायों को देखा।
वे मुझसे भाग नहीं रहे थे, बल्कि मेरे पास आकर खड़े हो गए थे।
शायद अब वक्त आ गया है कि मैं उनसे डरना छोड़ दूँ।
क्योंकि बारिश ने मुझे सिखाया है—
भिगोना बुरा नहीं होता,
कभी-कभी भीगकर ही इंसान साफ़ होता है।”

कलम रुक गई।
उसके होंठों पर हल्की मुस्कान आई।
बहुत दिनों बाद, शायद पहली बार।

उसने खिड़की से बाहर देखा।
बारिश अब हल्की हो चुकी थी।
गली में पानी जमा था, और उसमें स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी चमक रही थी।
पानी में तैरते उस उजाले को देखकर उसे लगा—
“अँधेरे में भी रोशनी ढूँढी जा सकती है… बस हिम्मत चाहिए।”

और उस रात अरविंद ने अपने अंदर की ख़ामोशी को सुनना सीखा।
बारिश ने उसे अकेला नहीं छोड़ा,
बल्कि उसे उसके सायों से मिलवा दिया।


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 5




सुबह की धूप खिड़की से भीतर आई, लेकिन कमरे का अँधेरा अब भी जस का तस था।
अरविंद ने करवट बदली और उठकर खड़ा हो गया।
रात की बारिश ने गली को धुला-धुला बना दिया था, पत्तों पर चमकती बूँदें मोती जैसी लग रही थीं।
बाहर दुनिया नई-नई सी लग रही थी, मगर उसके भीतर की दुनिया वैसी ही भारी थी।

वह सोचने लगा—
“शायद बाहर की चमक और भीतर का अँधेरा कभी एक जैसा नहीं होता।”

थोड़ी देर बाद उसने तय किया कि आज वह बाहर जाएगा।
अपने आप को चारदीवारी में कैद रखना अब और मुश्किल था।
वह अपने पुराने दोस्तों से मिलने शहर के बाज़ार की तरफ़ निकल पड़ा।

सड़कें भरी हुई थीं।
गाड़ियाँ दौड़ रही थीं, रिक्शों की घंटियाँ बज रही थीं, और हर तरफ़ लोग ही लोग थे।
भीड़ में धक्के खाते हुए भी अरविंद को अजीब-सा अकेलापन महसूस हो रहा था।
मानो वह उस भीड़ का हिस्सा होकर भी उस भीड़ से बिल्कुल अलग हो।

वह एक कैफ़े में बैठ गया।
शहर के उस कैफ़े में चारों तरफ़ हँसी, बातें और गुनगुनाहट थी।
लोग अपने दोस्तों से बातें कर रहे थे, कोई मोबाइल में बिज़ी था, कोई किताब पढ़ रहा था।
लेकिन अरविंद… वह बस खामोश बैठा रहा।
कप में डाली गई कॉफी ठंडी हो चुकी थी, मगर उसके होंठ तक नहीं पहुँची।

अचानक उसकी नज़र सामने बैठे एक लड़के पर पड़ी।
वह लड़का अकेला बैठा था, सामने लैपटॉप खुला था लेकिन उसकी आँखें बार-बार भीग रही थीं।
अरविंद के दिल ने कहा—
“यह चेहरा भी वही कहानी कह रहा है जो मेरी है।”

वह सोच में डूब गया।
क्या सचमुच हर इंसान भीड़ के बीच अकेला है?
क्या यह दुनिया बाहर से जितनी रंगीन दिखती है, भीतर से उतनी ही खाली है?

उसी पल, वेटर पास आया और मुस्कुराकर बोला—
“सर, कॉफी ठंडी हो गई है, क्या मैं आपको नई बना दूँ?”

अरविंद ने उसकी आँखों में देखा।
वो मुस्कान नक़ली नहीं थी, बल्कि सचमुच अपनापन लिए हुए थी।
उस पल अरविंद को एहसास हुआ—
“भीड़ के बीच अकेलापन टूट सकता है, बस एक सच्चे चेहरे की ज़रूरत होती है।”

उसने धीरे से सिर हिलाया और कहा—
“हाँ, नई कॉफी ले आइए।”

यह पहला मौका था जब उसने इतने दिनों बाद किसी से मुस्कुराकर बात की थी।
वह मुस्कान छोटी थी, लेकिन उसके दिल के अँधेरे में जैसे एक छोटी लौ जल गई हो।

उस शाम अरविंद कैफ़े से बाहर निकला तो उसे लगा,
“शायद भीड़ बुरी नहीं होती।
भीड़ हमें अकेला नहीं बनाती,
बल्कि हमें यह दिखाती है कि हर इंसान अपने-अपने सायों से जूझ रहा है।
और कभी-कभी, अजनबी की मुस्कान भी हमारे सायों को थोड़ी देर के लिए रुलना बंद करवा देती है।”


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6



कई दिन हो गए थे।
अरविंद अपने सायों से बातें करता, कभी लड़ता और कभी उन्हें अपनाने की कोशिश करता।
लेकिन उसके दिल के एक कोने में अब भी एक बोझ था—उसका पुराना घर।

वह घर, जहाँ उसका बचपन बीता था।
जहाँ माँ की लोरी, पिता की डाँट और रघु की खिलखिलाहट गूँजती थी।
जहाँ पहली बार अनामिका से मुलाक़ात हुई थी।
वह घर अब जर्जर हो चुका था, और अरविंद ने सालों से उस गली में क़दम तक नहीं रखा था।

उस दिन अचानक उसने सोचा—
“क्या मैं सचमुच अपने अतीत से भाग सकता हूँ?
या अब समय आ गया है कि मैं अपने घर की दहलीज़ पर लौटूँ?”

दिल में डर था, लेकिन कदम अपने आप चल पड़े।
वह धीरे-धीरे उस गली की तरफ़ बढ़ा।
हर मोड़ उसके लिए यादों का दरवाज़ा था।
एक जगह वह रुका—जहाँ बचपन में पतंग उड़ाई थी।
दूसरी जगह—जहाँ कभी दोस्त संग क्रिकेट खेला था।
हर जगह जैसे कोई साया खड़ा होकर उसे देख रहा था।

आख़िरकार वह घर के सामने पहुँचा।
दरवाज़ा पुराना था, लकड़ी की झिरीयों से झाँकती धूप भीतर गिर रही थी।
उसने काँपते हाथों से दरवाज़ा धकेला।
अंदर अंधेरा था, दीवारों पर जाले और टूटी खिड़कियों से आती हवा की सीटी।
मगर उस अंधेरे में भी अरविंद को अपने अतीत की रोशनी दिखाई दी।

उसे लगा जैसे माँ अभी भी रसोई से पुकार रही है—
“अरविंद, खाना ठंडा हो जाएगा।”
पिता अख़बार पढ़ते हुए कह रहे हैं—
“पढ़ाई में ध्यान लगा।”
और रघु हँसते हुए पीछे से उसका हाथ पकड़कर भाग रहा है।

उसकी आँखें भर आईं।
यह घर भले ही खंडहर हो गया था, लेकिन इसमें अब भी उसकी यादें ज़िंदा थीं।
उसने धीरे-धीरे हर कमरे को देखा।
हर कोने में कोई न कोई अधूरी कहानी पड़ी थी।

वह रसोई में गया।
पुराना चूल्हा अब राख हो चुका था, लेकिन उसे माँ के हाथ की खुशबू महसूस हुई।
वह अपने कमरे में गया।
दीवार पर अब भी हल्की-सी लिखावट नज़र आई—
“अरविंद + अनामिका”
उसकी आँखें नम हो गईं।
वह मुस्कुराया भी, क्योंकि यादें दर्द भी देती हैं और सहारा भी।

वह दहलीज़ पर आकर बैठ गया।
घर के आँगन में खड़ा नीम का पेड़ अब भी जिंदा था।
उसकी छाँव ने अरविंद को ढक लिया।
उसने गहरी साँस ली और अपने सायों से कहा—
“देखो, मैं लौट आया हूँ।
भागना अब और नहीं।
अगर तुम मेरे हिस्से हो, तो यह घर भी मेरा हिस्सा है।”

उसने मिट्टी की एक मुट्ठी उठाई और अपनी हथेली में भर ली।
वह बोला—
“यह घर टूटा हो सकता है, लेकिन मेरे भीतर की जड़ें अब भी यहीं से जुड़ी हैं।”

उस शाम जब वह वहाँ से लौटा, तो उसके कदम हल्के थे।
क्योंकि उसने पहली बार अपने अतीत को अपनाया था,
न कि उससे भागा था।


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7



उस रात अरविंद ने अपने पुराने घर से लौटकर पहली बार सुकून की नींद ली।
सुबह उठते ही उसने महसूस किया कि उसके दिल से कुछ बोझ हल्का हो गया है।
लेकिन भीतर अब भी बहुत-सी गाँठें बाकी थीं।

उसने अलमारी से वही पुराना बक्सा निकाला, जिसमें चिट्ठियाँ रखी थीं।
लेकिन आज उसने सिर्फ़ पढ़ा नहीं—बल्कि नए पन्ने लिखने का इरादा किया।

वह टेबल पर बैठा और पहला काग़ज़ उठाया।
उसने अनामिका के नाम लिखना शुरू किया—

“अनामिका,
सालों बीत गए हैं, मगर तेरी हँसी अब भी मेरे कानों में गूँजती है।
शायद तू जहाँ भी होगी, खुश होगी।
मैं अब तुझसे कोई सवाल नहीं करना चाहता।
ना ये कि तूने मुझे क्यों छोड़ा,
ना ये कि तूने किसी और का हाथ क्यों थामा।
बस इतना कहना चाहता हूँ—धन्यवाद।
क्योंकि तेरे जाने ने मुझे यह समझाया कि मोहब्बत पाना ही सब कुछ नहीं होता।
कभी-कभी मोहब्बत खोकर भी इंसान पूरा हो सकता है।”

उसने पन्ना मोड़ा और बक्से में रख दिया।

फिर उसने दूसरा पन्ना उठाया और रघु के नाम लिखा—

“रघु,
तू आज होता तो शायद मेरी आधी परेशानियाँ हँसते-हँसते मिटा देता।
तेरी कमी हर पल चुभती है।
लेकिन आज मैं तुझसे वादा करता हूँ कि मैं अब तेरी याद को बोझ नहीं बनने दूँगा।
तू जहाँ भी है, शायद चाहता होगा कि मैं जीऊँ, हँसू और आगे बढ़ूँ।
तो आज से मैं तेरी याद को अपनी ताक़त बनाऊँगा, न कि कमजोरी।”

यह लिखते हुए उसकी आँखों से आँसू बहे, लेकिन इन आँसुओं में एक अजीब-सी शांति थी।

तीसरा पन्ना उसने अपनी माँ के नाम लिखा—

“माँ,
तू हमेशा कहती थी कि बेटा, सच्चाई से भाग मत।
लेकिन मैं सालों तक भागता रहा।
आज समझ आया कि भागने से दर्द और गहरा होता है।
अब तेरी एक बात याद रखूँगा—
ज़िन्दगी जितनी भी कठिन हो, उसका सामना करना ही जीत है।”

जब वह लिख चुका, तो उसके सामने तीन पन्ने रखे थे।
तीन अधूरे रिश्तों को पहली बार शब्द मिले थे।
ये ख़त शायद कभी उन तक नहीं पहुँचेंगे,
लेकिन अरविंद जानता था कि इन्हें लिखने से उसके दिल तक ज़रूर पहुँच चुके हैं।

उसने गहरी साँस ली और बुदबुदाया—
“शायद इन्हें भेजना ज़रूरी नहीं।
ज़रूरी यह है कि मैं इन्हें महसूस करूँ।
कभी-कभी ख़त अपने गंतव्य तक नहीं,
बल्कि लिखने वाले की आत्मा तक पहुँचते हैं।”

उस रात अरविंद ने पहली बार महसूस किया कि
सायों से डरना नहीं चाहिए, उनसे संवाद करना चाहिए।


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8




रात गहरी थी।
कमरे की लाइट बंद थी, बस खिड़की से आती चाँदनी दीवारों पर गिर रही थी।
अरविंद टेबल पर बैठा था, लेकिन इस बार उसके सामने कोई चिट्ठी या डायरी नहीं थी।
उसकी नज़र बार-बार आईने पर जा रही थी—वही पुराना टूटा हुआ आईना।

कई दिन से वह अपने सायों से भागने के बजाय उनसे बातें कर रहा था।
लेकिन आज उसे लगा कि अब आईने से भी बात करनी चाहिए।
उसने धीरे से कुर्सी खींची और आईने के सामने बैठ गया।

उसने खुद से सवाल किया—
“तू कौन है?
वही जो दुनिया को दिखाता है या वही जो अंदर छिपा है?”

आईने में उसका चेहरा बिखरा हुआ था।
टूटे टुकड़ों में नज़र आती परछाईं मानो कह रही थी—
“तू दोनों है।
दुनिया को दिखाने वाला चेहरा भी तू ही है, और रोते हुए सायों का बोझ उठाने वाला भी तू ही।”

अरविंद की आँखें भर आईं।
उसने हाथ बढ़ाकर आईने को छुआ।
ठंडी सतह ने उसे भीतर तक हिला दिया।

वह बुदबुदाया—
“मैं हमेशा सोचता रहा कि मैं अकेला हूँ… लेकिन सच तो यह है कि मैं खुद से ही सबसे ज़्यादा दूर हो गया था।”

आईने का टूटा हिस्सा उसकी आँखों के पास चमका, और उसे लगा जैसे जवाब आ रहा हो—
“हाँ, तू अकेला नहीं है।
तेरे साए तेरे साथ हैं,
तेरी यादें तेरे साथ हैं,
और सबसे बढ़कर… तू खुद अपने साथ है।”

उस पल अरविंद को एहसास हुआ कि असली लड़ाई दूसरों से नहीं,
बल्कि खुद से होती है।
और जब इंसान आईने के सामने खुद से समझौता कर ले,
तो आधा दर्द वहीं ख़त्म हो जाता है।

उसने गहरी साँस ली और आईने में अपनी आँखों में झाँकते हुए कहा—
“हाँ, मैं टूटा हूँ।
हाँ, मेरे पास अधूरी कहानियाँ हैं।
लेकिन मैं अब भी ज़िंदा हूँ, और यही सबसे बड़ी ताक़त है।”

इतना कहते ही उसके होंठों पर हल्की-सी मुस्कान आ गई।
वह मुस्कान छोटी थी, मगर सच्ची थी।
वह टूटा हुआ आईना अब उसे डरावना नहीं लगा।
बल्कि लगा जैसे वह उसके जीवन का सबसे सच्चा साथी है।

उस रात अरविंद ने आईने से वादा किया—
“अब मैं भागूँगा नहीं।
अब मैं अपने सायों को अपनाऊँगा, और उनसे सीखूँगा।”

और शायद पहली बार,
आईने के टूटे टुकड़े उसे जोड़ते हुए लगे,
तोड़ते हुए नहीं।


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9




सुबह की धूप हल्की-सी सुनहरी थी।
अरविंद ने तय किया कि आज वह बाहर जाएगा, बस यूँ ही — बिना किसी कारण के।
कभी-कभी इंसान को अपने कमरे की दीवारों से बाहर झाँकना पड़ता है, वरना वे दीवारें उसके दिल की कैदख़ाना बन जाती हैं।

वह शहर की भीड़-भाड़ वाली सड़क पर निकला।
लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे।
किसी को ऑफिस पहुँचना था, किसी को दुकान खोलनी थी, कोई बच्चे का हाथ पकड़कर स्कूल की ओर जा रहा था।
हर चेहरे पर जल्दी थी, मगर हर आँख में थकान भी।

अरविंद सड़क पार करते-करते अचानक रुक गया।
सामने एक छोटी सी फूलों की दुकान थी।
रंग-बिरंगे फूल धूप में चमक रहे थे।
वह अनायास ही उस दुकान की ओर बढ़ा।

दुकान पर बैठी एक बूढ़ी औरत मुस्कुरा रही थी।
उसकी मुस्कान सादी थी, मगर उसमें अपनापन था।
उसने अरविंद से कहा—
“बेटा, फूल लोगे? ये आज सुबह ही तोड़े हैं।”

अरविंद चौंक गया।
कई दिनों बाद किसी ने उसे इतने प्यार से ‘बेटा’ कहा था।
वह कुछ पल खामोश खड़ा रहा, फिर धीमे से बोला—
“हाँ… दो गुलाब दे दो।”

औरत ने फूल देते हुए कहा—
“ये ले, तेरे चेहरे पर उदासी अच्छी नहीं लगती।
फूल हमेशा याद दिलाते हैं कि हर चीज़ मिटने से पहले खिलती ज़रूर है।”

अरविंद ने फूल हाथ में लिए और पहली बार महसूस किया कि उसकी हथेली में कुछ हल्का-सा उजाला उतर आया है।
वह बोला—
“माँजी, आप मुस्कुराती क्यों रहती हैं? ज़िंदगी ने आपको कभी दुख नहीं दिया?”

औरत ने हँसते हुए जवाब दिया—
“दुख तो सबको मिलता है बेटा।
लेकिन दुख से लड़ने का एक ही तरीका है—उस पर मुस्कुराना।
अगर तू मुस्कुराएगा नहीं, तो तेरे साए तुझे हमेशा रुलाते रहेंगे।”

अरविंद कुछ कह नहीं पाया।
बस चुपचाप उसने उन्हें धन्यवाद कहा और वहाँ से चल पड़ा।
लेकिन उसके दिल में उनकी मुस्कान घर कर गई।

रास्ते में चलते हुए उसने सोचा—
“सचमुच… एक अजनबी की मुस्कान भी कभी-कभी सबसे गहरी दवा बन जाती है।”

उसने अपने हाथ में पकड़े फूल को देखा।
गुलाब की पंखुड़ियाँ ओस से भीगी हुई थीं, मगर फिर भी खिले हुए थे।
उसे लगा जैसे फूल कह रहे हों—
“आँसू होने के बावजूद ज़िन्दगी खूबसूरत हो सकती है।”

उस दिन अरविंद के साए थोड़ी देर के लिए रोना भूल गए।
क्योंकि उन्होंने भी अजनबी की मुस्कान से जीना सीख लिया था।


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10



शाम का वक़्त था।
आसमान पर हल्की गुलाबी रोशनी थी, जैसे दिन धीरे-धीरे रात को सौंपा जा रहा हो।
अरविंद घर के एक कोने में रखे पुराने हारमोनियम के पास जा बैठा।
वह हारमोनियम उसके पिता का था—जिसे उन्होंने कभी बड़े शौक़ से खरीदा था।
बचपन में अरविंद घंटों उसके पास बैठा करता, लेकिन अब सालों से उस पर धूल जम चुकी थी।

उसने धीरे से उसकी कुंजियाँ दबाईं।
पहली ही आवाज़ बेसुरी निकली, मानो वक़्त ने उसकी धुनें चुरा ली हों।
अरविंद हल्के से मुस्कुराया—
“शायद मैं भी इसी हारमोनियम की तरह हो गया हूँ… टूटा हुआ, बेसुरा, और अधूरा।”

लेकिन उसने हार नहीं मानी।
धीरे-धीरे उसने फिर से सुर पकड़ने की कोशिश की।
हर धुन अधूरी थी, हर राग टूटा हुआ, लेकिन उसके दिल में कहीं गहराई से कुछ जाग रहा था।
उसे लगा जैसे हर बेसुरा सुर भी उसकी ज़िन्दगी का सच कह रहा हो।

अचानक उसे याद आया—
रघु गिटार बजाता था, और दोनों मिलकर गुनगुनाते थे।
अनामिका अक्सर हँसते हुए कहती—
“तुम्हारी धुनें अधूरी होती हैं, लेकिन तुम्हारे जज़्बात पूरे।”

यह याद आते ही अरविंद की उँगलियाँ तेज़ी से कुंजियों पर चलने लगीं।
सुर अब भी अधूरे थे, लेकिन उनमें एक लय थी।
वह लय उसके दिल की धड़कन से मिल रही थी।

उसने आँखें बंद कर लीं।
धुनों के बीच उसे अपने साए नज़र आए।
वे अब पहले जैसे उदास नहीं थे।
वे मानो उस अधूरी धुन पर झूम रहे थे।

अरविंद ने सोचा—
“शायद ज़िन्दगी का संगीत कभी पूरा नहीं होता।
हर धुन अधूरी होती है, लेकिन अधूरी चीज़ें भी खूबसूरत हो सकती हैं।”

उसकी आँखों से आँसू बहे, लेकिन इस बार वे आँसू दर्द के नहीं थे।
वे आँसू थे—राहत के, स्वीकार के।

वह बुदबुदाया—
“अगर मैं अधूरा हूँ, तो क्या हुआ?
अधूरेपन में भी तो एक अलग किस्म की सच्चाई है।”

उस रात हारमोनियम की अधूरी धुन पूरे कमरे में गूँजती रही।
और अरविंद ने महसूस किया कि उसके साए अब उसके साथ बैठकर गा रहे हैं,
रो नहीं रहे।


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11





उस दिन अरविंद अचानक अपने पुराने मोहल्ले चला गया।
वह जगह, जहाँ उसने बचपन बिताया था।
सालों बाद लौटकर जब उसने उस गली में कदम रखा, तो हवा में मिट्टी और धूल की वही पुरानी गंध थी, जो उसके दिल के सबसे गहरे कोनों को हिला गई।

गली अब वैसी नहीं थी।
पक्के मकानों की जगह ऊँची-ऊँची इमारतें खड़ी हो गई थीं, लेकिन कुछ चीज़ें अब भी वही थीं—
गली के मोड़ पर नीम का पेड़, जिसके नीचे कभी वह दोस्तों संग खेला करता था।
दीवार पर हल्के-हल्के उकेरे गए नाम, जो वक्त की मार के बावजूद मिटे नहीं थे।

अरविंद रुककर पेड़ के नीचे बैठ गया।
उसे याद आया—
“रघु यहीं खड़ा होकर गिटार बजाता था।
हम सब मिलकर बेसुरी आवाज़ में गाते थे और हँसते थे।”
वह मुस्कुराया, मगर उसकी आँखें भीग गईं।

अचानक उसे हवा में कुछ महक आई—जैसे ताज़ा बने पराठों की खुशबू।
वह जानता था, यह खुशबू पास वाली शर्मा आंटी के घर से आ रही है।
वो आंटी, जो हर बच्चे को बिना वजह डाँटती भी थीं और फिर प्यार से गुड़ का टुकड़ा भी खिला देती थीं।
अरविंद ने सोचा—
“क्या वो अब भी ज़िंदा होंगी?”

वह उनके दरवाज़े तक पहुँचा, मगर दरवाज़ा बंद था।
कुंडी पर जंग जमी हुई थी।
शायद अब वहाँ कोई और रहता था।

अरविंद ने गली का एक-एक कोना देखा।
हर जगह उसके बचपन की परछाई थी।
यह गली मानो उससे कह रही थी—
“तू लौट आया है, लेकिन हम तुझे पहचानते नहीं।
तेरा वक़्त निकल चुका है।”

उसके दिल में चुभन सी हुई।
ज़िंदगी की सच्चाई सामने थी—
गुज़रे हुए दिन कभी लौटकर नहीं आते।
गंध वही रहती है, यादें भी रहती हैं,
मगर लोग और वक़्त बदल जाते हैं।

अरविंद धीरे-धीरे वापस चला गया।
पीछे मुड़कर उसने आख़िरी बार गली को देखा।
उसे लगा जैसे नीम का पेड़ उसे हाथ हिलाकर अलविदा कह रहा हो।

उसने बुदबुदाकर कहा—
“कुछ साए हमेशा इसी गली में रह जाएंगे… और शायद मैं भी।”

उसकी आँखें फिर भर आईं,
लेकिन इस बार वह आँसू किसी कोने में छुपाने की कोशिश भी नहीं कर रहा था।


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12





आसमान घने बादलों से ढका था।
अरविंद खिड़की से बाहर देख रहा था—
सड़क पर पानी भर चुका था, बच्चे छींटें उड़ाते हुए खेल रहे थे,
और वह खुद कमरे की अंधेरी कोठरी में कैद था।

कुछ देर बाद वह खड़ा हुआ और बिना छाता लिए ही बाहर निकल गया।
बारिश की पहली बूँद उसके चेहरे पर गिरी, तो उसे लगा जैसे किसी ने उसके पुराने ज़ख़्म पर ठंडी मरहम रख दी हो।
वह धीरे-धीरे सड़क पर चलता रहा।

हर कदम पर पानी उसके जूतों में भर रहा था, लेकिन उसे परवाह नहीं थी।
बरसात के मौसम में उसे हमेशा अनामिका की याद आती थी।
वही लड़की, जिसने एक बार कहा था—
“बारिश इंसान को धो देती है, जैसे उसके सारे ग़म बहा ले जाए।”

लेकिन अरविंद सोच रहा था—
“अगर बारिश सच में ग़म बहा ले जाती, तो मैं आज इतना भारी क्यों महसूस कर रहा हूँ?”

वह भीगता रहा।
उसके कपड़े शरीर से चिपक गए थे,
और हर बूँद उसके भीतर उतरती जा रही थी।

अचानक उसे लगा जैसे कोई उसके साथ चल रहा हो।
उसने मुड़कर देखा—
खाली सड़क थी, मगर पानी पर उसके साथ-साथ किसी और की परछाई भी झिलमिला रही थी।
वह वही साया था, जो अब हर जगह उसका पीछा करता था।

अरविंद ने रुककर परछाई से कहा—
“क्यों पीछे पड़े हो मेरे?
क्या तुम भी चाहते हो कि मैं गिर जाऊँ?”

साया चुप था, लेकिन बारिश की बूंदों ने जवाब दे दिया।
वे कह रही थीं—
“हम तेरे हिस्से का बोझ धो नहीं सकतीं।
तुझे खुद ही इसे ढोना होगा।”

अरविंद का दिल और भारी हो गया।
वह ज़ोर से चिल्लाया—
“फिर क्यों आई तुम, बारिश?
अगर दर्द कम नहीं कर सकती, तो कम से कम यादें तो मत जगाओ!”

उसकी चीख सड़कों पर गूँजकर गुम हो गई।
लोग खिड़कियों से झाँककर उसे देखते रहे, लेकिन किसी ने पास आकर कुछ नहीं कहा।
वह अकेला ही भीगता रहा, जैसे पूरी दुनिया से कटा हुआ।

कुछ देर बाद वह सड़क किनारे बैठ गया।
पानी उसकी आँखों से निकले आँसुओं के साथ मिलकर बहने लगा।
कोई फ़र्क ही नहीं रहा—कौन-सा पानी आसमान से आ रहा था और कौन-सा उसके दिल से।

वह बुदबुदाया—
“शायद मेरी ज़िंदगी भी इस बारिश की तरह है…
लगातार गिरती रहती है, मगर किसी को ठहरकर भिगोती नहीं।”

उस पल उसने महसूस किया कि बारिश ने उसे हल्का नहीं किया।
बल्कि और गहरा डुबो दिया है।


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13





रात बहुत लंबी थी।
कमरे की दीवारें जैसे उसके चारों ओर सिकुड़ रही थीं।
अरविंद बिस्तर पर लेटा था, लेकिन नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।

खामोशी इतनी भारी थी कि उसकी अपनी साँसें भी बोझिल लग रही थीं।
अचानक उसने महसूस किया कि कमरे के कोने में एक हल्की हलचल है।
उसने गर्दन उठाई—
वहीं, वही साया खड़ा था।

वह अब पहले से और साफ़, और गहरा दिख रहा था।
उसकी आँखें जैसे चमक रही थीं, मानो वह जीत के करीब हो।

अरविंद ने थकी आवाज़ में कहा—
“तुम फिर आ गए… क्यों?”

साया धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा।
उसकी चाल में ठहराव था, जैसे उसे पता हो कि इस बार हार अरविंद की ही है।

अरविंद ने खुद को समझाने की कोशिश की—
“नहीं… मैं मज़बूत हूँ।
मैं तुम्हें जीतने नहीं दूँगा।”

लेकिन उसकी आवाज़ काँप रही थी।
साया मुस्कुराया नहीं, बोला भी नहीं—
बस उसकी आँखों में झाँकता रहा।
और अरविंद का दिल मानो पिघलता गया।

उसे अचानक याद आया—
कितनी बार उसने लोगों के बीच रहकर भी अकेलापन महसूस किया था।
कितनी बार उसने अपनी ही मुस्कान से खुद को धोखा दिया था।
कितनी बार उसने चाहा कि कोई उसका दर्द समझे,
लेकिन कोई नहीं समझा।

साया अब उसके बिल्कुल पास था।
अरविंद ने काँपते हाथों से उसे रोकने की कोशिश की,
मगर उसकी हथेलियाँ खाली हवा से टकराईं।
साया उसके सीने में उतर गया।

अरविंद ने महसूस किया कि उसका दिल अब और भारी नहीं रहा।
वह बोझ जो सालों से उसे दबा रहा था,
अब उसके भीतर ही बैठ गया था।

वह बुदबुदाया—
“शायद लड़ाई ख़त्म हो गई है…
और तुम जीत गए हो।”

साया शांत था, लेकिन उसकी मौजूदगी पूरे कमरे में छा गई।
अरविंद की आँखें धीरे-धीरे बंद होने लगीं।
उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया।
वह बस समर्पण कर चुका था।

उस रात पहली बार उसे लगा कि वह सचमुच हार गया है।
और हार में ही उसे अजीब-सी राहत मिल रही थी।


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14





सुबह की हल्की धूप कमरे में फैल रही थी,
लेकिन अरविंद के भीतर अब भी रात की काली छाया ही थी।
वह मेज़ पर बैठा था, सामने एक काग़ज़ और पुराना पेन रखा था।

कई दिनों से उसके मन में शब्द उमड़-घुमड़ रहे थे,
मगर आज उसने तय कर लिया—
“अब इन्हें लिखकर हमेशा के लिए छोड़ देना है।”

उसने काग़ज़ पर पहला शब्द लिखा—
"प्रिय दुनिया…"

कलम काँप रही थी, लेकिन उसकी सोच अब स्थिर थी।
उसने लिखा—

“मैंने बहुत कोशिश की तुम्हारे साथ चलने की,
लेकिन शायद मेरी चाल हमेशा धीमी रही।
लोग आगे बढ़ते गए, मैं पीछे छूटता गया।
मुझे लगा था कोई हाथ थाम लेगा,
मगर किसी के पास वक़्त नहीं था।”

काग़ज़ पर आँसुओं के धब्बे गिरने लगे,
लेकिन वह लिखता रहा।

“मेरे भीतर जो साया है, उसने मुझे हर दिन खाया है।
मैंने लड़ा,
मैंने रोया,
मैंने हँसने का नाटक किया…
लेकिन अब थक चुका हूँ।

अगर कभी कोई मेरी तलाश करे,
तो बस इतना कहना कि अरविंद हार गया।
और शायद यही उसकी मुक्ति थी।”

उसने आख़िरी पंक्ति में लिखा—
“मेरा ग़म अब मेरी कहानी है।
और इस कहानी का अंत यहीं है।”

कलम नीचे गिर गई।
काग़ज़ पर स्याही और आँसुओं का धुंधलापन था।

अरविंद ने चिट्ठी को मोड़कर मेज़ पर रख दिया।
फिर वह खिड़की से बाहर देखने लगा।
आसमान में बादल छँट रहे थे,
जैसे दुनिया उसके बिना भी हमेशा साफ़-सुथरी रहती।

उसके होंठों पर हल्की-सी मुस्कान आई—
एक अजीब-सी, टूट चुकी मुस्कान।
मानो उसने अपनी हार को स्वीकार कर लिया हो।


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15


शाम ढल रही थी।
आसमान में हल्की-हल्की लालिमा थी,
और हवाओं में एक अजीब-सी खामोशी।

अरविंद अपने कमरे से बाहर निकला और पुराने पुल की ओर चला गया।
यह वही पुल था, जहाँ वह कभी अनामिका के साथ बैठकर भविष्य के सपने देखा करता था।
आज वह अकेला था, और भविष्य नाम की चीज़ उसके लिए अब खोखली लग रही थी।

पुल पर खड़े होकर उसने नीचे बहती नदी को देखा।
पानी शांत था, मगर उसकी गहराई डरावनी थी।
अरविंद ने सोचा—
“मेरे अंदर की गहराई भी तो ऐसी ही है,
ऊपर से शांत, मगर भीतर तूफ़ान।”

उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई।
लोग जल्दी-जल्दी अपने घर लौट रहे थे।
किसी को परवाह नहीं थी कि पुल पर खड़ा वह आदमी किन ख्यालों में डूबा है।

उसके भीतर का साया फिर जाग उठा।
वह फुसफुसाया—
“अब और देर मत कर…
तेरा सफ़र यहीं ख़त्म होना चाहिए।”

अरविंद के कदम भारी थे, लेकिन दिल अब हल्का महसूस कर रहा था।
उसने आसमान की तरफ़ देखा—
बादल धीरे-धीरे गहरे होते जा रहे थे,
जैसे पूरी प्रकृति उसकी विदाई की तैयारी कर रही हो।

उसके होंठों से धीरे-धीरे शब्द निकले—
“शायद मैं हमेशा से यहीं आना चाहता था…
यही मेरी मंज़िल थी।”

उसने आँखें बंद कीं।
बीते हुए सारे पल उसकी आँखों के सामने तैर गए—
अनामिका की मुस्कान,
दोस्तों की हँसी,
माँ की डाँट,
और अकेली रातों की चीख।

सब एक झलक में गुज़र गए।
उसके होंठों पर एक आख़िरी बार मुस्कान आई,
मगर उस मुस्कान में टूटन ही टूटन थी।

हवा तेज़ हो गई।
नदी की लहरें मानो उसे पुकार रही थीं।
अरविंद ने अपने कदम आगे बढ़ाए…


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16


रात पूरी तरह उतर चुकी थी।
नदी के ऊपर घने बादल छाए हुए थे,
और हल्की-हल्की बारिश की बूँदें पुल की रेलिंग पर टपक रही थीं।

अरविंद पुल के किनारे खड़ा था।
उसकी आँखें बंद थीं,
चेहरे पर शांति थी,
लेकिन भीतर तूफ़ान अब भी चल रहा था।

उसने बुदबुदाकर कहा—
“शायद अब यही सही है…
यहीं मेरी कहानी पूरी होनी चाहिए।”

अचानक, उसे महसूस हुआ कि वह साया उसके ठीक बगल में खड़ा है।
इस बार वह पहले से और साफ़, और मज़बूत दिख रहा था।
उसकी परछाई अब अलग नहीं थी—
वह खुद अरविंद ही था।

साया फुसफुसाया—
“तूने मुझे हराने की बहुत कोशिश की,
लेकिन अब हम एक हो गए हैं।
तेरे आँसू, तेरी तन्हाई,
सब मेरी हैं अब।”

अरविंद ने आँखें खोलीं,
बारिश की बूँदें उसके चेहरे पर बह रही थीं।
उसने आख़िरी बार आसमान की तरफ़ देखा,
मानो किसी अदृश्य शक्ति से विदा ले रहा हो।

फिर उसने धीरे से कदम बढ़ाए और पुल की रेलिंग पार कर ली।

नदी की गहराई ने उसे अपनी बाहों में समेट लिया।
कुछ ही पलों में पानी की लहरें शांत हो गईं—
जैसे कुछ हुआ ही न हो।

पुल पर केवल उसकी चिट्ठी का एक टुकड़ा पड़ा रह गया,
जो बारिश से भीगकर धुंधला हो चुका था।
उसमें आख़िरी पंक्ति अब भी पढ़ी जा सकती थी—

"मेरा ग़म अब मेरा सच है,
और इस सच से भागकर नहीं जी सकता।"

नदी की लहरें गूँजती रहीं।
बारिश थमती गई।
और रात की खामोशी में बस वही गवाही बची—
रोते हुए साए की।


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