प्रेम वस्तुतः किनारे और लहर की कहानी है। यह कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी सृष्टि स्वयं। एक ऐसी कथा, जिसमें मिलन का सुख क्षणिक है और जुदाई का दर्द शाश्वत। एक ओर किनारा है, जो स्थिर है, गम्भीर है और प्रतीक्षा में डूबा है। दूसरी ओर लहर है, जो व्याकुल है, चंचल है और हर पल अपने प्रवाह में बँधी है। दोनों एक-दूसरे से अनिवार्य रूप से जुड़े हैं, फिर भी नियति ने उन्हें सदा अधूरेपन की बेड़ियों में बाँध रखा है।
किनारे की मौन पीड़ा
किनारा अपने वजूद में स्थिर है। उसकी रेत पर समय के अनगिनत निशान अंकित हैं। वह हर क्षण यही चाहता है कि कोई उसके पास आए, उसके साथ ठहर जाए। उसकी सूनी धरती अपने भीतर वेदनाओं का समुद्र समेटे बैठी है। कभी सूरज की तपिश उसे झुलसा देती है, तो कभी चाँदनी की शीतलता उसकी तन्हाई को और गहरा बना देती है। किनारा अक्सर अपने भीतर पूछता है—क्या कभी कोई लहर आएगी जो केवल छूकर न जाए, बल्कि उसकी गोद में ठहर भी जाए? पर नियति उसे कहीं चलने नहीं देती। वह केवल प्रतीक्षा करता रहता है—हर उस लहर की, जो उसे छूकर भी उससे दूर चली जाती है।
लहर की व्याकुलता
दूसरी ओर, लहर है। वह चंचल है, व्याकुल है, और अपने अनन्त प्रवाह में डूबी हुई है। उसका अस्तित्व ही गति है, ठहरना तो जैसे उसके भाग्य में लिखा ही नहीं। वह बार-बार दौड़कर किनारे तक आती है, अपनी बाहों में उसे समेटना चाहती है। उसकी फेनिल बाँहें किनारे की रेत को आलिंगन में भीगों देती हैं। किनारे को छूकर वह कुछ पल के लिए सुकून पाती है, जैसे उसकी व्याकुलता को ठहराव का आभास हुआ हो। पर अगले ही क्षण समय और भाग्य उसे लौटा ले जाते हैं। लहर जितना चाहती है, उतना ही बंधन में भी है।
अधूरा मिलन
यहीं से प्रेम की सबसे बड़ी सज़ा जन्म लेती है। एक चाहकर भी चल नहीं सकता, दूसरा चाहकर भी रुक नहीं सकता। एक को हर समय इंतज़ार का दर्द झेलना पड़ता है, तो दूसरे को हर मिलन अधूरा छोड़कर लौट जाना पड़ता है। यह अधूरापन ही प्रेम की त्रासदी है—जहाँ चाहत अपनी गहराई में असीम है, पर परिस्थितियाँ उन्हें पूर्ण होने नहीं देतीं। किनारा और लहर एक-दूसरे से दूर भी नहीं हो सकते, और पूरी तरह पास भी नहीं आ सकते।
नियति का खेल
कितनी विचित्र है यह नियति!
किनारा स्थिर रहकर भी हर पल थका हुआ है, क्योंकि उसका धैर्य उसकी सबसे बड़ी कैद है। लहर गतिमान रहकर भी हर पल अधूरी है, क्योंकि उसका ठहरना असम्भव है। दोनों को अपनी-अपनी सीमाएँ दी गई हैं—एक को स्थिरता का श्राप, दूसरे को चंचलता का। वे चाहकर भी एक-दूसरे की दुनिया का हिस्सा नहीं बन सकते। यही प्रेम का सबसे गहरा सत्य है: प्रेम केवल मिलन का नाम नहीं, बल्कि जुदाई में भी जुड़े रहने की पीड़ा का नाम है।
प्रेम की बेबसी
प्रेम की असली बेबसी यही है—कि मिलकर भी बिछड़ना पड़ता है, और बिछड़कर भी मिलन की तड़प कभी ख़त्म नहीं होती। किनारा हर रात अपने सीने पर लहरों के निशान सँभाले सो जाता है, जैसे उसकी रेत पर लहरों की लिखी चिट्ठियाँ हों। वह उन चिट्ठियों को पढ़ता है, पर उनमें हमेशा अधूरा संदेश ही मिलता है। और लहर हर सुबह अपने आँचल में अधूरे मिलन की राख लेकर लौट जाती है। उसकी हर वापसी एक नए मिलन की आशा होती है, पर हर मिलन जुदाई में बदल जाता है।
अनकहा सत्य
सच तो यह है कि किनारा और लहर का संबंध केवल स्पर्श का नहीं, बल्कि आत्मा का है। वे चाहे मिलें या न मिलें, एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। किनारा अपनी तन्हाई में लहरों की प्रतीक्षा से ही जीवित है, और लहर अपनी व्याकुलता में किनारे के स्पर्श से ही। उनका मिलन क्षणिक सही, पर उसी क्षणिक मिलन में शाश्वत प्रेम की गहराई छुपी है। यही उनकी नियति है, यही उनकी बेबसी है, और यही उनकी अमर प्रेम-कहानी है।
. - राहुल पट्टनायक