Ulje Rishtey - 4 in Hindi Drama by Akash books and stories PDF | उलझे रिश्ते - भाग 4

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उलझे रिश्ते - भाग 4

Chapter 4

"माँ...............!"

ऋषि अचानक ज़ोर से चिल्ला कर उठ बैठा।

उसके माथे पर पसीना था और सांस तेज़ चल रही थी। कुछ क्षणों तक वह हांफता रहा, फिर खुद से बुदबुदाया—
"एक और नई सुबह... फिर वही सपना। आखिर ये कब तक चलेगा?"

आज पूरे सोलह साल हो चुके थे जब उसने अपनी माँ को खोया था। लेकिन इन सोलह सालों में ऐसा कोई दिन नहीं गया जब यह सपना उसकी नींद में दस्तक न देता हो। यह सपना कभी एक धीमी फुसफुसाहट की तरह आता, तो कभी किसी गूंजते हुए शोर की तरह उसकी आत्मा को झकझोर देता। बचपन में वह इसी डर की वजह से रातों को सोने से कतराता था, लेकिन अब यह उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था—सपना देखना, चिल्लाकर उठना, खुद को संभालना और फिर दिन की शुरुआत करना।

कभी-कभी उसे माँ की महक तक महसूस होती, लेकिन वह सारा दर्द अपने भीतर ही दबा लेता। रोता भी तो अकेले, और फिर खुद को ही समझाकर शांत कर लेता। उसका जीवन अब एक टूटी-फूटी साइकिल बन चुका था—हर रोज़ वही सपना, वही चीख, वही मायूसी और फिर वही दिनचर्या।

उसने अपनी हथेली से अपने आँसू पोंछे और धीरे से कहा—
"कोई बात नहीं ऋषि... तू चाहे जितना रो ले, माँ कभी वापस नहीं आएँगी।"
वह अपने ही कंधे पर हाथ रखकर खुद को ढांढस बंधाता है, जैसे अपने भीतर ही एक पिता और दोस्त खोजने की कोशिश कर रहा हो।

थोड़ी देर बाद उसने अपने चारों ओर नज़र डाली। लोग सुबह की दौड़ में व्यस्त थे, कोई बातचीत में, कोई हँसी-मज़ाक में। लेकिन कई आँखें उसकी ओर भी टिकी थीं—कुछ जिज्ञासा से, कुछ आलोचना से। लगता था जैसे वे आपस में उसी के बारे में बातें कर रहे हों।

ऋषि ने खुद को देखा। उसका जैकेट ओस की नमी से भीग चुका था, जूतों से बदबू आ रही थी और उसका पूरा रूप-रंग किसी आवारा लड़के जैसा था। एक क्षण के लिए उसे शर्मिंदगी हुई। उसने जल्दी से जैकेट झाड़कर बैग में पैक किया और बिना किसी भाव के चेहरा बनाकर वहाँ से चल दिया।


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उधर, घर का माहौल पूरी तरह से ग़म के साये में डूबा हुआ था। रूपा और फुल्की बेचैन होकर रो रही थीं। उनके आँसुओं की आवाज़ पूरे कमरे में गूंज रही थी।

संग्राम मोबाइल हाथ में लिए इधर-उधर टहल रहा था। पहली बार उसके चेहरे पर गहरी चिंता साफ झलक रही थी। वह हमेशा ऋषि के प्रति कठोर रहा था, कभी उसके दर्द की परवाह नहीं की। मगर आज वह बेचैन था। बार-बार फोन मिलाना, लोगों से ऋषि का पता पूछना, और जवाब न मिलने पर गुस्से में आ जाना—ये सब साफ़ बता रहा था कि कहीं न कहीं उसे डर था कि उसने अपना बेटा खो दिया है।

"ओ जी... ऋषि के बारे में कुछ पता चला?"
रूपा ने रोते-रोते पूछा।

संग्राम ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आँखें भी उतनी ही व्याकुल थीं जितनी रूपा और फुल्की की।

रूपा उसके पास जाकर उसके बाहों में लिपट गई। मगर संग्राम को यह स्नेह स्वीकार न हुआ। उसने झुंझलाकर उसे खुद से अलग किया और कठोर स्वर में बोला—
"मुझे कुछ समय के लिए अकेला छोड़ दो।"

इतना कहकर वह अपने कमरे में गया और दरवाजा जोर से बंद कर दिया।

अकेलेपन में उसने दीवार पर टंगी खुशबू (ऋषि की माँ) की तस्वीर को देखा। तस्वीर के सामने खड़े होकर उसका गला रुंध गया।

"मुझे माफ़ करना खुशबू... मैं तुमसे किया हुआ वादा निभा नहीं पाया। तुम्हें भी नहीं बचा सका और अब... अब मैंने हमारे बेटे ऋषि को भी खो दिया।"

उसकी आवाज़ उदास और टूटी हुई थी। जो संग्राम अब तक पत्थर जैसा कठोर आदमी माना जाता था, आज वही पहली बार फूट-फूटकर रो रहा था। उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे, चेहरा नीला पड़ गया था। मानो जंगल का राजा शेर किसी घातक चोट से घायल हो गया हो।


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इधर ऋषि थकान से चूर होकर अपने ठिकाने पर पहुंच चुका था। उसका शरीर पसीने से भीगा हुआ था, चेहरे पर थकान और धूप से झुलसने के निशान थे। उसने चलते-चलते अपना पूरा दिन गुज़ारा था।

जैसे ही वह दरवाजे तक पहुँचा, उसके कदम लड़खड़ाए। उसने दरवाजा खटखटाने की कोशिश की, लेकिन उससे पहले ही उसका शरीर जवाब दे गया। वह वहीं दरवाजे के सामने बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ा—मानो एक टूटी हुई आत्मा की तरह, जो अपनी मंज़िल तक पहुँचकर भी हार मान चुकी हो।


To be continued....