Chapter 1
पत्तों की सरसराहट थम चुकी थी।
आसमान फट पड़ा था — और मानो देवताओं के क्रोध से बरस रहा था पानी।
हर पेड़, हर झाड़ी, हर तिनका काँप रहा था। हवा में मिट्टी, कीचड़ और काई की गंध घुल चुकी थी। कहीं दूर बिजली की चमक टूटती और धरती को सफ़ेद कर देती।
उस रात जंगल सिर्फ़ जंगल नहीं था, वह एक अखाड़ा था — जीवन और मृत्यु का।
वहीं, उस अंधेरे और तूफ़ानी संसार के बीच एक औरत भाग रही थी।
उसकी साँसें टूटी-टूटी थीं, जैसे कोई पुराना बाँसुरीवादक थक कर भी सुर पकड़ने की कोशिश कर रहा हो। उसके पैर बार-बार फिसलते, कीचड़ में धँस जाते, पर वह फिर उठ खड़ी होती। वह सिर्फ़ भाग नहीं रही थी — वह किसी अदृश्य हाथ से पीछा छुड़ा रही थी।
उसके कपड़े — जो कभी रेशमी और चमकीले थे — अब कीचड़ और बारिश से पहचान से परे हो गए थे। सोने की कढ़ाई कहीं फटकर झूल रही थी, मोतियों की झालरें टूटी हुई थीं। औरत का चेहरा अंधेरे में छिपा था, पर उसके काँपते होंठों और आँखों की बेचैनी को कोई भी देख सकता था। उसकी छाती से कसकर बंधा था एक गीला कपड़े का पोटला और उस पोटले से फूट रही थीं — जीवन की सबसे नर्म और सबसे निर्दयी चीखें।
बच्चे की रोने की आवाज़ मानो जंगल को चीर रही थी। वह चीख बारिश और बिजली से भी तेज़ थी। औरत अपने बिखरे बालों के बीच से झुककर पोटले को थपकियाँ देती —
“शांत रह… प्लीज़… बस थोड़ा और… बस थोड़ी देर…”
पर बच्चा कहाँ समझने वाला था। वह तो मानो इस रात की गवाही दे रहा था कि उसके जन्म का हर पल सिर्फ़ दर्द और त्याग से बुना जाएगा।
वह औरत काँपते हाथों से झाड़ियों को हटाती, पत्थरों पर चढ़ती। कभी उसका घुटना छिल जाता, कभी कोई काँटा पैरों में धँस जाता। होंठों से खून रिसता, पर वह रुकने का नाम नहीं लेती क्योंकि रुकना मतलब हार जाना था।
और हार का मतलब… सब कुछ खत्म।
बारिश में भीगी ज़मीन पर उसके पैरों के निशान मिटते जाते। वह ठिठकी भी नहीं, क्योंकि उसे पता था — हर निशान किसी शिकारी, किसी सैनिक, किसी दुश्मन को उसके पीछे ले आ सकता है। धीरे-धीरे वह एक ऊँचाई पर पहुँची। उसके सामने खड़ा था एक खंडहर।
पत्थरों से बना, काई से ढका, आधा धँसा हुआ। दीवारें टूटी हुईं, मानो किसी पुराने युद्ध की लाशें अब भी खड़ी हों। बारिश की धारें उन पत्थरों को धो रही थीं, पर वे ज़ख्म जैसे मिट नहीं रहे थे।
औरत रुकी। उसकी साँसें काँपती रहीं।उसने चारों ओर देखा — न आदमी, न जानवर, न कोई परछाई। सिर्फ़ बारिश और उसकी थरथराती साँसें।
धीरे से उसने अपने पोटले को खोला। भीतर एक नन्हा बच्चा था। बिल्कुल असहाय, बिल्कुल नंगा। उसकी त्वचा पर ठंड के छोटे-छोटे काँपते उभार थे। आँखें बंद थीं, पर रोना बिना रुके जारी था।
औरत उसे देर तक देखती रही। उसकी आँखों में न आँसू थे, न मुस्कान। बस एक अजीब-सी खामोशी — जो किसी ज्वालामुखी के भीतर दबे लावे जैसी थी।
शायद वह सोच रही थी —
क्या यह बच्चा बोझ है?
या मेरी आख़िरी उम्मीद?
क्या यह मेरा अपराध है?
या मेरा सबसे बड़ा उपहार?
उसके होंठ बुदबुदाए —
“माफ़ करना… मैं नहीं कर सकती…”
उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि बारिश भी उसे सुन न सकी।
फिर उसने काँपते हाथों से बच्चे को उठाया। खंडहर की एक टूटी हुई दीवार के पास गई। बिजली की चमक ने एक पल के लिए उसका चेहरा उजागर किया — आँसुओं से भरा, खून से लथपथ, पर आँखों में लोहे जैसी कठोरता और बिना किसी चीख, बिना किसी विलाप के…
उसने बच्चे को भीतर फेंक दिया।
बच्चे की चीख हवा में गूँजी। खंडहर की काली गहराई ने उसे अपने भीतर समा लिया।
औरत ने आँखें बंद कर लीं। वह रोई नहीं। क्योंकि उसकी आँखों में आँसू बहुत पहले मर चुके थे।
बारिश अब भी बरस रही थी पर जंगल गवाही दे चुका था — कि उस रात सिर्फ़ एक बच्चा नहीं त्यागा गया, बल्कि किसी औरत की पूरी ज़िंदगी, पूरी आत्मा उसी खंडहर में दफ़न हो गई।