Raktrekha - 2 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 2

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रक्तरेखा - 2

धूम्रखंड की रातें कभी साधारण नहीं होतीं। वे इतनी लंबी लगतीं मानो समय का कोई छोर ही न हो,मानो कोई अदृश्य हाथ घड़ी की सुइयों को रोककर आसमान में गहरा धुआँ भर देता हो।

हर रात भूख एक नये रूप में लौट आती थी —
कभी पेट की खाली गड़गड़ाहट बनकर,कभी आँखों में उतरते आँसुओं की थकान बनकर,और कभी उन बेमकसद सवालों की तरह,जिनका कोई उत्तर धरती पर नहीं होता।

जंगल के सिरे पर एक पुरानी झोंपड़ी खड़ी थी। न तो वह सचमुच घर थी,न ही आश्रय। वह केवल एक कोना थी जीवन का,जहाँ इंसान और प्रकृति ने
किसी अस्थायी संधि पर हस्ताक्षर कर दिए थे।

झोंपड़ी की दीवारें लकड़ी की थीं —
इतनी पुरानी कि हर तख़्ते पर समय की उँगलियों के निशान जमे थे। छत ढहने को झुकी रहती,मानो वर्षों से आसमान का बोझ उठाती-उठाती थक चुकी हो। बारिश की बूँदें छत से भीतर आतीं और मिट्टी की फर्श पर बिखर जातीं, मानो घर के भीतर भी आसमान की नमी उतर आती हो।

उस छोटे से अँधेरे में पाँच साँसें थीं —
युवा धरम, उसका बचपन का साथी बिनाल,
और तीन मासूम चेहरे —
बबलू, रेखा, और सबसे छोटा गगन।

गरमी, भूख और प्रेम ने यहाँ एक-दूसरे के साथ समझौता कर लिया था। जो कुछ नहीं था, वही उनका जीवन था।
धरम लकड़ी के बर्तन में कुछ उबले हुए कंद रख रहा था।
उसकी उँगलियाँ बेहद सावधान थीं —
मानो यह साधारण भोजन न होकर किसी उत्सव का प्रसाद हो।

उसने बबलू के सामने दो छोटे टुकड़े रखे,रेखा के लिए भी उतने ही।
गगन की थाली पहले से खाली थी,क्योंकि उसका हिस्सा माँ के आँचल जैसी ममता से धरम की आँखों में लिखा रहता।

अपने लिए उसने एक टुकड़ा रखा।फिर उसने बिनाल की ओर देखा।
 “बिनाल… तू भूखा सो सकता है न?”
उसके स्वर में अपराधबोध था,और एक अजीब-सी कोमलता भी।

बिनाल हँस पड़ा —
वह हँसी भूख से भी पुरानी थी,थकावट से भी गहरी।

“मेरे पेट को तो आदत हो गई है, धरम…
लेकिन आधा हिस्सा दे देना,ताकि लग सके कि हमने साथ खाया।”
धरम कुछ नहीं बोला। उसने थाली आगे बढ़ाई।

बच्चों ने हाथ जोड़कर आँखें मूँद लीं।
उनकी प्रार्थना भोली थी —
इतनी भोली कि भूख भी कुछ क्षण के लिए उनकी मासूमियत से हार जाती।

बारिश की बूँदें अब घर के भीतर भी बिना शर्म के प्रवेश कर चुकी थीं।
लेकिन किसी चेहरे पर कोई नाराज़गी नहीं थी।
उनके लिए यह भी जीवन का एक हिस्सा बन चुका था।

धरम ने आँखें बंद कीं। वह ईश्वर से माँग नहीं रहा था —
वह केवल सुन रहा था। मानो कोई अदृश्य उपस्थिति उसके भीतर फुसफुसा रही हो।
“देव…
तू रोज़ थोड़ा-थोड़ा देता है।हम उतने में जी लेते हैं।
कल भी थोड़ा देना ,बस भूख मत बढ़ाना…”
उसकी प्रार्थना शब्दों से ज़्यादा उसकी चुप्पी में लिखी थी।

"इस बार की बारिश थमी ही नहीं," बिनाल बोला।
धरम छत से टपकती बूँद की ओर देखता रहा — वह कोई जवाब नहीं ढूँढ रहा था, बस बूँद की आवाज़ सुन रहा था।
"दो महीने… बिना सूरज के। ज़मीन तक ठंडी हो गई है…" बिनाल आगे बोला।
"ठंड सिर्फ मिट्टी में नहीं आई है, बिनाल…" धरम धीमे से कहता है, "अब लोग भी ठंडे होते जा रहे हैं।"
इतना कहकर वह सोने लगता है।

रात बीत गई। पर सुबह कोई उजियारा लेकर नहीं आई। बारिश थमी ज़रूर थी, लेकिन जंगल अब भी भीग रहा था। पेड़ों की डालों से बूँदें टपक रही थीं,मिट्टी नरम होकर रास्तों में घुल रही थी,और उन रास्तों पर नंगे पाँव चलते लोग मानो किसी प्राचीन सज़ा को ढो रहे हों।

धरम सबसे आगे चल रहा था।उसका चेहरा तेज़ था, पर आँखों में जिद भी।
उसकी पीठ पर बाँस की टोकरियाँ थीं,खाली — जैसे जीवन का प्रतीक।

पीछे बिनाल था,जिसकी चाल भारी थी और जिसके शब्द अक्सर धरम से टकरा जाते।

साथ में तीन और गाँववाले थे —
चुप, थके हुए,जिन्हें अब उम्मीदों से ज़्यादा यथार्थ की भूख काट रही थी।

बिनाल ने एक बिंदु पर कंधे से टोकरी उतारी।
 “धरम… अगर कुछ भी नहीं मिला तो?”
उसकी आवाज़ में थकावट से ज़्यादा एक सवाल था —
जैसे वह धरम की नीयत को टटोल रहा हो।
धरम बिना मुड़े बोला —
 “तब कुछ नहीं खाना…
और अगली बार फिर आना।”
उसके स्वर में थकान नहीं थी। उसमें एक अडिग धैर्य था,जो केवल भूख से पैदा होता है।

आख़िरकार वे खंडहरों तक पहुँचे। पत्थरों का टूटा हुआ ढाँचा —
कभी कोई महल रहा होगा,आज केवल चुप्पी की गवाही दे रहा था।
धरम पत्थरों के बीच झाँकने लगा। उसकी नज़रें कुछ खोज रही थीं ,शायद स्मृतियाँ, शायद उम्मीद।

“यहाँ कोई न कोई कुछ छोड़ जाता है…”
वह बुदबुदाया।
“कभी रोटी… कभी हड्डी…
कभी लाश।”
बिनाल चुप रहा। उसके पास शब्द नहीं थे।
केवल एक डर था —
कि कहीं धरम कोई बेमतलब चीज़
न उठा ले।
और तभी—

एक धीमी सी सिसकी। सब रुक गए। पत्थर की टूटी दीवार के नीचे, झाड़ियों के बीच, एक बच्चा पड़ा था।
उसका शरीर मिट्टी से सना था। कपड़े नहीं थे। साँसें बहुत हल्की चल रही थीं —
मानो किसी बुझती हुई लौ की तरह। वह न रो रहा था, न हिल रहा था। बस था।

धरम के होंठों से अनायास निकला —
 “ओह…”
उसकी आँखें फैल गईं। वह क्षणभर के लिए समय से बाहर खड़ा हो गया।

बिनाल की आवाज़ आई —
“कोई छोड़ गया है इसे…”
वह धीमे बोला।
“मरा नहीं है…
पर मरने में देर नहीं बचेगी।”

खंडहर की नमी से टपकती बूँदें,मानो इतिहास की आँखों से रिसता हुआ जल हो।
पत्थर काँप रहे थे —
शायद इसलिए नहीं कि बारिश हुई थी,बल्कि इसलिए कि उनके सामने एक ऐसा दृश्य था जिसे सहना भी कठिन था और देखना भी।

धरम स्थिर खड़ा था।उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं,लेकिन उसके हाथ जमे हुए थे जैसे कोई अदृश्य बंधन उन्हें रोक रहा हो।

बच्चे की आँखें आधी खुली थीं। उनमें जीवन का धुँधलका झिलमिला रहा था,मानो सूर्यास्त के समय आसमान में बची आख़िरी लाली। उसका चेहरा मिट्टी से ढँका था,
लेकिन उस मिट्टी के नीचे एक ऐसी नन्ही मासूमियत छिपी थी जो भूख, डर और मृत्यु से भी बड़ी थी।

धरम के भीतर कुछ पिघल रहा था। वह बच्चा उसे किसी और का नहीं, ख़ुद अपने अतीत का हिस्सा लग रहा था —
जैसे किसी ने उसकी भूख, उसकी प्यास,उसके अपने अनाथपन को पत्थरों में लपेटकर रख दिया हो।

बिनाल ने चुप्पी तोड़ी।
 “धरम…
इसे छोड़ दे। जो छोड़ गया, उसने सोचकर ही छोड़ा होगा।
यह बोझ है…
हम सबके लिए।”

उसकी आवाज़ कठोर थी,लेकिन उसमें भी थकान थी। वह जानता था कि यह बच्चा
एक रोटी, एक साँस, एक आँसू सब बाँट लेगा —
और वे पहले ही बाँटने के लिए खाली थे।

धरम ने धीरे से कहा —
 “बोझ?
यह बोझ नहीं…
यह तो… 
यह तो जीवन है।”



उसकी आवाज़ काँप रही थी। उस काँप में न भूख का डर था,न थकावट की नमी,बल्कि एक अदृश्य करुणा थी,जो हर सीमा तोड़ देना चाहती थी।

गाँववालों में से एक औरत बोली —
“धरम… मत छू इसे।
पता नहीं किस घर से आया है…
किस अभिशाप का हिस्सा है।
छोड़ दे इसे यहीं।
जंगल का नियम है —
जिसे प्रकृति फेंक दे,
उसे उठाना पाप है।”

उसके शब्दों में अंधविश्वास था,लेकिन सच यह भी था कि भूख से जूझते लोग
हर नये मुँह को अभिशाप ही मानते हैं।

धरम चुप रहा। उसकी आँखें बच्चे पर टिकी थीं। वह हर साँस को गिन रहा था,
हर हलचल को देख रहा था,मानो जीवन और मृत्यु का तराज़ू उसी की आँखों के सामने हिल रहा हो।

बिनाल ने फिर कहा —
“धरम… तू समझ क्यों नहीं रहा?
कल तक हम पाँच थे,
भूख हमें ही काट रही थी।
अब अगर यह छठा आ गया,
तो सब मिट जाएँगे।”

धरम ने उसकी ओर देखा —
धीमे, पर तेज़ नज़र से।
“अगर यह मिट गया,
तो हम किस बात के लिए जीएँगे, बिनाल?”

यह सवाल पत्थरों से टकराया
और फिर खामोशी में खो गया।

बारिश थम चुकी थी,पर धरम के भीतर एक तूफ़ान उठ रहा था। उसके कानों में बच्चे की हल्की-सी कराह मानो गूँज बनकर फैल रही थी।
उसके सामने अपने ही चेहरे उभर रहे थे —
बबलू, रेखा, गगन।
क्या यह बच्चा भी वैसा ही मासूम नहीं था?
क्या यह भी भूख और मृत्यु के बीच उसी पतली रस्सी पर लटका नहीं था?

धरम धीरे-धीरे आगे बढ़ा।
उसके कदम मिट्टी में धँसते जा रहे थे।
गाँववालों ने घबराकर पीछे हटना शुरू किया।
किसी ने फुसफुसाया —
“पागल हो गया है…
यह खुद को भी डुबोएगा,
हमें भी।”

बिनाल ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“धरम!
सुन… यह रास्ता नहीं है।
छोड़ दे।
मैं तुझे भाई मानता हूँ…
पर अगर तूने इसे उठाया,
तो मैं तेरे साथ नहीं चल पाऊँगा।”

धरम का चेहरा कठोर हो गया।
उसके होंठ काँपे।
लेकिन उसकी आँखों में आँसू तैर उठे।
“तू मेरे साथ मत चल…
पर मुझे रुकने को मत कह।”

उसने हाथ आगे बढ़ाया पर तभी —
उसकी उँगलियाँ रुक गईं। जैसे किसी ने भीतर से पकड़ लिया हो।
एक क्षण के लिए उसका पूरा अस्तित्व दो हिस्सों में बँट गया —
एक हिस्सा बच्चे की ओर झुक रहा था,दूसरा हिस्सा गाँववालों की ओर।

धरम चुप रहा।
उसने उस बच्चे को देखा — उसकी साँसें, जैसे किसी चिराग की बाती हो।
धड़कन धीमी, आँखें सूनी, और बदन ठंडा।
 "क्या मेरा एक निर्णय — एक जान बचा सकता है… या सबकी मुश्किल बढ़ा देगा?"
"“अगर मैं इसे उठाऊँ… तो क्या मैं करुणा का देवता बनूँगा,
या उन भूखे हाथों की नज़र में हमेशा का गद्दार?”

धरम के भीतर की आवाज़ें आपस में लड़ने लगीं। बचपन की यादें — जब उसे किसी ने नहीं उठाया था और फिर ये आज — जब वो किसी को उठा सकता था।

“अगर मैंने कुछ नहीं किया — तो क्या मैं भी उसी सड़ी दुनिया का हिस्सा हूँ, जिसे मैं कोसता रहा?”
फिर शांति। सब चुप।
पक्षियों की आवाज़ें भी थम गईं।

धरम अब झुका नहीं था — बस खड़ा रहा।
हवा के साथ उसकी साँसें भी हिल रही थीं, पर मन स्थिर था… या जड़?
बिनाल उसकी ओर देख रहा था — एक ऐसे आदमी की नज़र से, जिसने अपने दोस्त को टूटते देखा हो।
गाँव वालों की आहट पीछे जा रही थी — जैसे संसार ने उस क्षण पीठ मोड़ ली हो।
धरम की उंगलियाँ ज़मीन के पास थीं — बहुत पास, जैसे एक क्षण और… पर नहीं।

“कभी-कभी इंसान के भीतर इतनी आवाज़ें होती हैं, कि वह किसी को छूने से पहले ही थक जाता है।”
उसने अपनी आँखें मूंद लीं — जैसे किसी निर्णय से नहीं, किसी हार से बुझ गया हो।

बच्चे की साँसें चल रही थीं, लेकिन धरम ने उसे नहीं छुआ।
कुछ क्षण यूँ ही बीते — जैसे पूरी दुनिया रुक गई हो।
फिर…
धरम धीरे-धीरे पीछे हटा। हवा थम गई। पत्ते चुप हो गए। जंगल ने साँस रोक ली।
उसने झाड़ियों की ओर दोबारा देखा — पर उस नज़र में अब कोई लहर नहीं थी।
ना सवाल, ना करुणा — बस एक गहरी चुप्पी, जो स्वीकार कर चुकी थी।

बिनाल ने उसका कंधा छुआ — और पहली बार, धरम ने विरोध नहीं किया।
“चल… घर चलते हैं,” बिनाल बोला।