Tahammul e Ishq - 4 in Hindi Moral Stories by M choudhary books and stories PDF | तहम्मुल-ए-इश्क - 4

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तहम्मुल-ए-इश्क - 4

एपिसोड 4 

"यक़ीन न किया अपनों ने
ज़िंदगी से हम हार बैठे"

वो दोनों एक खुशनुमा दिन गुज़ार कर घर वापस आ रहे थे। कई सालों बाद जेरिश ने आज आज़ादी से खुलकर सांस ली थी। अस्र का वक़्त था, हमेशा की तरह आज गर्मी और दिन से ज़्यादा तेज़ होती जा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे आग के शोले बरस रहे हों। गाड़ी रोड पर दौड़ रही थी। आज बहुत ट्रैफिक था और वैसे भी दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता और आज तो वैसे भी संडे था, लोग अपनी फैमिली के साथ घूमने निकले हुए थे।

गाड़ी घर के अंदर आई और पोर्च में आकर रुकी। दो नौकर भागते हुए आए थे उनकी तरफ़। आमिर गाड़ी से बाहर निकला और नौकरों को सामान अंदर रखने को बोल कर अपनी बहन के साथ अंदर की तरफ बढ़ गया था।

वो दोनों लाउंज में पहुँचे तो सामने ही आफ़िरा टीवी देखती हुई मिली। आमिर वहीं पर आकर बैठ गया जबकि जेरिश अपने रूम में जाने लगी थी।

"हो गई आप दोनों की शॉपिंग?" आफ़िरा ने जेरिश को मुख़ातिब किया।

"हम्म्म!!"

जेरिश के बजाय आमिर की तरफ़ से जवाब मिला था। "आफ़िरा पानी ही पिला दो। वैसे तुम्हें खुद को तो दिखता नहीं है कि बन्दा बाहर से आया है, पानी ही दे दो।" आमिर ने अपनी छोटी बहन से कहा। वो मुँह आड़े-टेढ़े करती हुई उठ खड़ी हुई, जेरिश की तरफ़ देखा और कुछ बड़बड़ाती हुई किचन की तरफ चली गई थी।

"आमिर, मैं ज़रा पैकिंग कर लूँ।" जेरिश बोलती वहाँ से चली गई थी जबकि वो किसी गहरी सोच में डूब गया था।

"भाई, पानी!!" सोच से बाहर तब निकला जब आफ़िरा ने पानी का गिलास उसकी तरफ बढ़ाकर उसको आवाज़ दी थी। वो "थैंक यू" बोलता हुआ पानी पीने लगा और आफ़िरा फिर से टीवी देखने लगी थी।

"आज इतनी ख़ामोशी क्यों है?" आमिर ने पानी का गिलास टेबल पर रखते हुए आफ़िरा से पूछा।
"मुझे क्या पता?" उसने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया।

"क्यों, तुम घर पर नहीं थी जो तुम्हें पता नहीं है?" आमिर को उसके यूँ कंधे उचकाने पर गुस्सा तो बहुत आया था लेकिन उसने अपने गुस्से पर काबू पाते हुए पूछा।

"मैं घर पर ही थी, यूँ तुम्हारी तरह सैर-सपाटों पर नहीं घूम रही थी।" वो बिगड़ कर बोली।

"तमीज़ तो तुमको छू कर ही नहीं गुज़री।" उसने दाँत किटकिटाए।

"हहहह!!"

"बस्स, तुम्हारी जेरिश चहेती आपी है न, उसको संभाल कर रखो। मुझे कोई शौक नहीं है तमीज़ को अपने पास रखने का।" वो गुस्से से चिल्लाई और पैर पटकती वहाँ से चली गई थी।

"हहहह बदतमीज़!!"
वो भी अपने रूम की तरफ़ बढ़ गया था।


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मगरिब हो गई थी। रात के साये पूरे आसमान पर अपने पर फैला चुके थे। आज की रात कुछ बहुत अजीब सी थी, ऐसा लग रहा था जैसे ये बहुत भयानक रात साबित होने वाली है किसी की ज़िंदगी में। लेकिन कौन जानता था कि किसके हक़ में ये रात भयानक साबित होगी?

वो पैकिंग कर चुकी थी। अब उसका इरादा अपनी माँ को आगाह करने का था, लेकिन उससे पहले वो साद साहब से दो-टूक बात कर लेना चाहती थी। वो आईने में खुद को एक नज़र देखते हुए रूम से बाहर आ गई। अंदाज़ा लगाती हुई स्टडी रूम की जानिब चल दी।

स्टडी रूम का दरवाज़ा उसने खटखटाया। अंदर से इजाज़त मिलते ही वो दरवाज़ा खोलकर अंदर आ गई। हमेशा की तरह साद साहब कोई किताब पढ़ रहे थे।

"वो… मुझे आपसे बात करनी है!!"

वो बिना सलाम किए सीधे बोली। उसके नज़दीक ऐसे लोगों पर सलामती क्यों भेजी जाए जो दूसरों की ज़िंदगी को मज़ाक समझ कर खिलवाड़ करते हैं।

और साद ऐसा ही तो करना चाहते थे उसके साथ। उनके नज़दीक वो एक लड़की से ज़्यादा कुछ भी नहीं थी और शायद वो उसको तवायफ़ समझ रहे थे या फिर बनाने की कोशिश कर रहे थे। जो भी था लेकिन ये काम एक हैवानियत और नाजायज़ काम था, जिसको वो करने को उस पर दबाव डाल रहे थे।

"मैं आपका काम नहीं कर सकती। जो आप बोल रहे हैं, उससे बेहतर है कि मैं अपनी जान लेना पसंद करूँगी।"

"शायद आपके नज़दीक लड़कियों की इज़्ज़त नहीं होती होगी, लेकिन मेरे लिए यही मेरा सब कुछ है। आपने कहा था न फैसला करने को, तो मेरा फैसला ये है कि मैं हरगिज़ भी नहीं करूँगी आपकी ये बेहूदा ख्यालात वाली ऑफ़र को क़ुबूल।"

वो एक ही सांस में बोल गई थी। साद साहब कई लम्हों तक उसको देखते रहे थे लेकिन अचानक वो बहुत ही ख़ौफ़नाक हँसी हँसे थे।

"हाहाहा हाहाहा!!"

"तुम्हें क्या लगा, तुम फैसला सुनाओगी और मैं मान लूँगा? साद अहमद खान की जिस पर एक बार नज़र ठहर गई, उस पर मुहर लग जाती है। अब तक मैंने तुम्हें सौंपा हुआ था फैसला, क्योंकि मुझे लगता था कि तुम बहुत समझदार हो, खुद को मेरे सुपुर्द खुशी-खुशी कर दोगी। लेकिन तुम बेवकूफ़ हो।

"मैंने तुम्हारी माँ को ऐसे ही नहीं तुम्हें यहाँ लाने को कहा था। पागल थोड़ी हूँ जो यूँ ही तुम पर इतना पैसा बर्बाद करूँगा। अब जो पैसा मैंने तुम पर खर्च किया है उसको तो तुम्हें इस सूरत में अदा करना ही होगा।"

वो एकदम खड़े हुए और जेरिश का हाथ पकड़ते हुए एकदम उसको अपनी जानिब खींचना चाहा था, जब दरवाज़ा खुला और अरहा बेगम अंदर आईं। साद साहब ने जेरिश का हाथ अब भी पकड़ा हुआ था और वो अपना हाथ उस ज़ालिम इंसान से छुड़ाने की जद्दोजहद कर रही थी। ये मंज़र अरहा बेगम ने अच्छे से देखा था।

"ये क्या हो रहा है यहाँ??" अरहा बेगम ने उन दोनों की तरफ़ देखते हुए गुस्से से पूछा था।

"अरहा देखो, तुम्हारी बेटी ये क्या करना चाह रही थी। मैंने बहुत समझाया भी इसको लेकिन ये बोल रही थी कि..." साद साहब एकदम ही अरहा बेगम को देखते हुए अपना शैतानी दिमाग़ दौड़ाए और अब जो बोल रहे थे वो नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त था।

"क्या?" अरहा बेगम पूछीं।

"कि मुझसे निकाह कर लो वरना ये मुझ पर रेप का केस कर देगी।"

वो बोलकर ख़ामोश हो गए। जेरिश एकदम लड़खड़ाती हुई गिरने वाली थी, जब उसकी माँ ने उसकी कलाई पकड़ कर सीधा खड़ा किया और उसको संभलने तक का वक़्त भी नहीं मिला था कि एक ज़ोरदार थप्पड़ खींच कर उसके चेहरे पर मारा था।

चटाख!!

पूरे रूम में थप्पड़ की आवाज़ गूँजी थी। फिर अरहा बेगम की आवाज़ आई—
"इतना गिर जाओगी तुम??"

ये सुनकर आमिर और आफ़िरा भी जल्दी से अपने रूम से बाहर निकल कर स्टडी रूम में आए थे।

आँसुओं की लड़ी उसकी आँखों से टूट कर गालों से फिसल कर ज़मीन पर गिरी थी। वो ख़ामोश थी, बिल्कुल ख़ामोश। कोई जवाब पेश नहीं किया था उसने। कोई दलील नहीं थी। क्या फ़ायदा दलील पेश करने का जब यक़ीन ही न हो?

आमिर ने अपनी जान से प्यारी बहन की आँखों में आँसू देखे तो तड़प ही गया था। वो जल्दी से जेरिश के पास आया और उसको कंधों से थामा। वो बुत बनी बस अपनी ज़ात पर लगाए गए इल्ज़ाम को सुन रही थी।

"अ… अम्मी, क्या हुआ? आप आपी पर क्यों चिल्ला रही हैं?" आमिर ने अपनी माँ से पूछा। अरहा बेगम ने अपने बेटे की तरफ़ देखा और फिर बोलीं—
"आमिर, इस से कहो कि ये मेरी आँखों से बहुत दूर चली जाए। बोलो इसको, मुझे इसकी शक्ल भी नहीं देखनी। ये इतनी बेहयाई दिखाएगी, मैंने कभी सोचा भी नहीं था। इसको शर्म नहीं आई अपने बाप जैसे अंकल को ये बोलते हुए।"

अरहा बेगम ने गुस्से से मुँह फेरते हुए अपने बेटे से कहा था।

जेरिश ख़ामोश खड़ी थी, बिल्कुल ख़ामोश। अपनी माँ के अल्फ़ाज़ सुने तो वो तड़प उठी और झटके से सर उठा कर आँसुओं से लबालब आँखों से अपनी माँ को देखा।

यहाँ वो ख़ामोश नहीं रह सकती थी।

"मेरे पास अपनी बेगुनाही का कोई सबूत नहीं है, न मैं अपनी तरफ़ से आपको कोई दलील पेश करूँगी। मैं जो हूँ, जैसी हूँ, वो मैं खुद और मेरा रब जानता है।

"और हाँ!!" उसने बोलकर अपनी माँ और वहाँ खड़े हर शख़्स को देखा और फिर साद साहब को देखा जो उसकी तरफ़ मकरूह हँसी हँस रहे थे।

"और हाँ, आपके हुक्म की तामील करना तो मुझ पर फ़र्ज़ है। मैं कैसे आपके हुक्म छोड़ सकती हूँ भला? मैं आपको बिल्कुल भी ग़लत नहीं कहूँगी, क्योंकि जो आपने देखा, जो सुना और जो आपको बताया गया, उस पर यक़ीन करना तो आपके लिए ज़रूरी है—क्योंकि ये सब आपके अपने हैं न!!

"सही हैं अम्मी आप, जो बोल रही हैं बिल्कुल ठीक। मैं आपको अब कभी यहाँ नज़र नहीं आऊँगी। इतनी दूर चली जाऊँगी कि आप अगर बुलाना चाहेंगी भी तो नहीं आऊँगी।

"वैसे भी मैं आज रात जाने ही वाली थी। मैं ज़िंदगी में अकेली थी, अकेली हूँ और शायद मुस्तक़बिल में भी अकेली ही रहूँ।

"थैंक यू, आमिर—मेरा हर क़दम पर साथ देने के लिए, एक भाई की कमी पूरी करने के लिए और मुझ पर साया बने रहने के लिए।" वो आँख से आँसू पोंछते आमिर से बोली थी।

एक नज़र सब पर डालकर वो भागती हुई अपने रूम की तरफ़ दौड़ी। इस बीच सब ख़ामोश थे। उसके यूँ भागने पर आमिर भी उसके पीछे गया था।

"आपी!! आपी!!" वो दरवाज़ा ज़ोर-ज़ोर से खटखटा रहा था लेकिन जेरिश ने दरवाज़ा नहीं खोला। पाँच मिनट के वक़्फ़े के बाद दरवाज़ा खोल कर जेरिश बाहर निकली। उसके हाथ में सूटकेस था। वो उसको उठाती हुई बाहर आई।

दरवाज़ा खुलते ही आमिर उसकी तरफ़ लपका था। और उसके हाथ में सूटकेस को देखकर वहीं रुक गया।

"आपी, आप?" वो कुछ बोलता, जेरिश ने बीच में ही उसकी बात काटी और बोली—

"आमिर, तुम नहीं जाओगे साथ। ये सफर मेरे अकेले का है, जो मुझे खुद ही तन्हा तय करना है। फ़िक्र मत करो, तुम्हारी आपी इतनी कमज़ोर नहीं है कि इस सफर को तय न कर पाए।

"मैं यहाँ ख़ामोश इसलिए थी कि मैंने जब कुछ किया ही नहीं तो उस पर दलीलें क्यों दूँ? मेरी बेगुनाही का सबूत बहुत जल्द सबके सामने आएगा।

"मेरे बाबा ने मुझे एक बात सिखाई थी—कि अगर तुम्हारी मौजूदगी किसी के लिए परेशानी का बायस बने तो उससे दूरी इख़्तियार कर लो। भले ही आपको खुद अज़ीयत सहनी पड़े लेकिन आप फिर भी मुतमइन रहोगे, क्योंकि कम-अज़-कम आपकी दूरी से उसको सुकून तो मयस्सर हुआ।"

वो एक ट्रांस सी में बोल रही थी, आँखों से अश्क जारी थे।

"कितना अज़ीयतनाक होता है न, जब अपनों की तल्ख़ बातें, उनके अल्फ़ाज़ों से दिल टूट कर चकनाचूर हो जाता है। फिर भी उनसे नफ़रत नहीं होती। पता है क्यों? क्योंकि उनसे हमारा ख़ून का रिश्ता होता है। लाख उनके तल्ख़ अल्फ़ाज़ हों लेकिन फिर भी कहलाएँगे अपने ही।"

वो आँसुओं को पोंछते आगे बढ़ने लगी। धीरे-धीरे क़दम उठा रही थी जब आमिर ने उसके हाथ से सूटकेस का हैंडल लिया और फिर बोला—

"आपी, मैं भाई हूँ आपका। सारी दुनिया को छोड़ सकता हूँ लेकिन आपको नहीं। मेरी बदक़िस्मती है कि मैं रोहेल बाबा का बेटा नहीं, लेकिन मेरी खुशक़िस्मती है कि मैं आपका भाई हूँ। जहाँ आप जाएँगी वहीं मैं जाऊँगा। जिनसे आपका रिश्ता होगा, उनसे ही मेरा होगा। जहाँ रहेंगे आप, वहीं मैं रहूँगा। ये मेरा खुद से वादा है कि मैं, आमिर अहमद खान, आपके साथ साए की तरह रहूँगा। आपकी हर मुसीबत मुझसे होकर गुज़रेगी। ये मेरा आपसे वादा है। और अब आप कुछ नहीं बोलेंगी इस मामले में। मैं बिल्कुल भी नहीं सुनूँगा।"

वो हत्मी फ़ैसला सुनाते हुए अब उसका सूटकेस थामे लाउंज में आया था और एक नौकर को आवाज़ देकर उसने गाड़ी की चाबी मँगवाई। उसकी आवाज़ इतनी बुलंद थी कि अरहा बेगम रूम से बाहर आईं। उनकी आँखें लाल हो रही थीं। साद साहब भी रूम से बाहर आए, आफ़िरा भी।

अरहा बेगम ने आमिर के हाथ में सूटकेस देखा तो वो हैरान-परेशान सी अपने बेटे से बोलीं—
"आ… आमिर, कहाँ जा रहे हो तुम?"

अपनी माँ के सवाल पर आमिर ने चौक कर देखा—
"फ़िक्र न करें अम्मी, कहीं नहीं जा रहा आपका बेटा।" आमिर ने जवाब दिया।
"बस घर छोड़कर जा रहा हूँ।"

वो आखिर में अपने बाप की तरफ देख कर बोला।

जैसे कह रहा हो—"आप बेटों के क़ाबिल हो ही नहीं।"

"पर बेटा, मैं कैसे रहूँगी तुम्हारे बिना?" ये अल्फ़ाज़ उस माँ के थे जो अभी कुछ देर पहले अपनी पहली औलाद से बोल चुकी थी कि "मेरी आँखों से दूर हो जाओ, शक्ल तक देखनी गवारा नहीं।" और अब अपने बेटे से बोल रही थी कि वो अपने बेटे के बिना कैसे रहेगी।

एक तल्ख़ और ज़ख़्मी मुस्कान जेरिश के होंठों पर रेंग गई थी। वो आमिर की तरफ बढ़ी और अपना सूटकेस लेते हुए बोली—

"आमिर, मेरे भाई, पराए लोगों के लिए अपनों के दिल नहीं दुखाया करते। तुम्हें मेरी क़सम, तुम इन सब—यानि अपनों—को छोड़कर कहीं नहीं जाओगे।

"मेरा क्या, मैं रह लूँगी कहीं भी।"

वो अपने आँसुओं को अंदर की तरफ धकेलती हुई सूटकेस थाम कर सब पर हमेशा-हमेशा के लिए एक अलविदाई नज़र डालकर एक नए, तन्हा सफर के लिए निकल गई थी।

पता नहीं अब उसके साथ क्या होने वाला था? क्या वो इस सफर में तन्हा ही रहेगी या फिर कोई उसकी ज़िंदगी में आएगा इस सफर के दौरान?


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"उल्फ़त बदल गई, कभी नीयत बदल गई,
ख़ुदगर्ज़ जब होते हैं तो कभी सीरत बदल गई।
शैतान से भी हैवानियत बन गए,
ज़िंदगी उजाड़ कर दूसरों की।
यक़ीन के पुल तोड़ देते हैं,
अपना क़सूर दूसरों के सर पर डालकर—
कुछ लोग सोचते हैं कि हक़ीक़त बदल गई।।"


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जल्द ही