उजाले की ओर----संस्मरण
ग्रहण
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स्नेहिल नमस्कार मित्रों
मित्रों! अभी चंद्र ग्रहण गया है और मुझे एक बड़ी अजीब सी घटना याद आ गई । जानती हूँ, काफ़ी मित्र इस बात पर हँसेंगे लेकिन किया क्या जाए जब घटना अपने साथ ही घटित हुई हो '। कोई ना--हँस लेना लेकिन बात सच्ची है और अपनी माँ व नानी से सुनी हुई है ।
मेरी माँ के बच्चे होते थे लेकिन बचते नहीं थे । कितनी बार गर्भाधान के बाद भी जब अम्मा के बच्चे बचे नहीं तब उनकी ननसाल बुलंदशहर के एक गाँव बीर खेड़ा में, उनके मामा जी के परिवार में चर्चा हुई और यह निर्णय लिया गया कि मेरी माँ को कुछ दिनों के लिए वहाँ बुला लिया जाए ।
अम्मा, नानी जी के साथ मुझे छोटी बच्ची को गोद में लेकर बीरखेड़ा पहुंचीं ।
अम्मा संस्कृत की अध्यापिका थीं अत: उनका बहुत दिनों तक छुट्टी लेना संभव नहीं था लेकिन सवाल भचए का था इसलिए अम्मा किन्हीं छुट्टियों में अपने नाना के घर मुझे लेकर पहुंचीं । वहाँ उनकी मामियाँ थीं जिन्होंने कुछ पूजा आदि का कार्यक्रम बनाया हुआ था । किसी तरह उनकी भांजी की बेटी बच जाए, बस,,,,,
मेरे लिए कोई पूजा करवाई गई । कुछ ऐसा हुआ कि उन्हीं दिनों में एक दिन ग्रहण लगा । गाँवों में उन दिनों ग्रहण बहुत बड़ी बात माना जाता था । ग्रहण के समय में खान-पीना वर्जित होता था, जमादार व अन्य छोटी जाति के लोग ग्रहण के समय अन्न, पैसा, कपड़ा माँगने आते और जितना हो सकता था उन्हें दिया जाता। उन्हें घर के दरवाज़े से निराश नहीं भेज जाता था ।
निर्णय लिया गया कि मुझे किसी माँगने वाली को दे दिया जाएगा और मैं उसकी गोदी में ग्रहण माँगने जाऊँगी । दे दिया गया मुझे किसी की गोदी में और मैं उस माँगने वाली स्त्री की गोदी में गाँव के हर दरवाज़े पर माँगने गई । मुझे तो कहाँ कुछ पता था मैं मुश्किल से कुछ माह की थी लेकिन मेरी जां बचाने के लिए यह टोटका या इसे जो कुछ भी कह लें, किया गया ।
कहते हैं कि मैं दो/ढाई घंटे बाद वापिस आई थी । मुझे तराज़ू में बैठाया गया और दूसरे पलड़े में कुछ अन्न, कुछ चाँदी, शायद नानी ने ही छोटी सी कोई सोने की चीज़ पलड़े पर रखी । जब सब मिलाकर मेरे वज़न जितना सामान दूसरे पलड़े में हो गया, उस सामान को उस स्त्री को दे दिया गया जिसके साथ मुझे माँगने भेज गया था यानि उससे मुझे उस सामान को देकर खरीद लिया गया था ।
फिर कहा जाता है, कार्यक्रम हुआ मुझे शुद्ध करने का ! गंगाजल के साथ न जाने कौन कौन से जल से मुझे स्नान करवाया गया, फिर दूध से ,फिर गुलाब जल से ! इस प्रकार मुझे साफ़ किया गया और फिर से एक यज्ञ करवाया गया जिसमें काफ़ी लोगों ने भाग लिया और इक्कीस पंडितों के साथ गाँव के प्रमुख लोगों को भोज करवाया गया और स्वीकार कर लिया गया कि अब यह बच्चा बच जाएगा ।
अब भई बच्चा तो बच गया जो आज तक भी बैठा है लेकिन यह नहीं मालूम कि किस प्रताप से बचा ! जब कुछ बड़ी हुई तब सबको यह बात बताई जा चुकी थी और सभी मुझे चिढ़ाते थे । अम्मा के न मेरे से पहले बच्चे बचे थे और न ही मेरे बाद ! अब मालूम नहीं इसके पीछे किसका हाथ और आशीर्वाद रहा होगा।
अपने बच्चों को कई बार मैंने यह बात साझा की थी, सोचा --अब मित्रों को भी कर ही दूँ । अब जो कुछ भी मित्र सोचें, अब तो चलने की कगार आ चुकी है ।
सस्नेह
प्रणव भारती