Karanpishachini - Night of Tantra in Hindi Horror Stories by NBV Novel Book Universe books and stories PDF | करणपिशाचिनी - तंत्र की रात्रि

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करणपिशाचिनी - तंत्र की रात्रि

 प्रस्तावना : शापित होंठों की कथा
“कुछ औरतें जन्म से पवित्र होती हैं…
कुछ औरतें पाप से गढ़ी जाती हैं…
और कुछ औरतें, पाप और पुण्य दोनों को निगल जाती हैं।
उन्हें ही लोग ‘करणपिशाचिनी’ कहते हैं।” कहते हैं छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में एक गाँव था — करणगांव।
गाँव इतना साधारण था कि कभी नक्शे पर भी दर्ज नहीं हुआ। लेकिन उसकी मिट्टी में एक ऐसा रहस्य दबा था, जो इंसानों के लिए नहीं था। बरसों पहले वहाँ एक औरत रही — द्रौपदी लोग कहते थे, उसके होंठों पर हमेशा ताले लगे रहते।
क्योंकि जब भी वो बोलती, किसी न किसी की मौत हो जाती। गाँववालों ने उसे डायन कहा।
तांत्रिकों ने उसे शापित देवी माना।
और अंत में, पंचायत ने उसे जिंदा जला दिया। लेकिन जिस आग में उसका शरीर भस्म हुआ,
उसी आग में एक औरत नहीं, बल्कि पिशाचिनी का जन्म हुआ। उस दिन से करणगांव पर अंधेरा स्थायी हो गया। कुआँ सूख गया… पेड़ों पर काले कपड़े लटकने लगे… और हर अमावस की रात, कोई ना कोई औरत गर्भवती हो जाती —बिना किसी पुरुष के छुए।
गाँव धीरे-धीरे ख़ाली हो गया। बचे हुए लोग कहते थे —
“उसकी चीख अब भी कुएँ से सुनाई देती है… होंठ सिले होने के बावजूद।”
अध्याय 1 : करणगांव की आख़िरी रात
"जिस रात उसे जलाया गया, आकाश से काली राख गिरी थी… और सुबह तक पूरा गाँव खामोश हो गया था।" छत्तीसगढ़ के सुदूर जंगलों में बसा करणगांव, कभी हंसता-खेलता गाँव था। लेकिन आज, वहाँ सिर्फ वीरानी है। ना कोई पक्षी चहचहाता है, ना कोई इंसान दिखता है… बस एक पुराना कुआँ, जहाँ से रात के तीसरे पहर में कोई औरत रोती है…

🌒 23 साल पहले —
गाँव के पंचायत चौक में एक भीड़ जमा थी। बीच में खड़ी थी द्रौपदी — जिसे गाँववालों ने डायन कहकर बाँध रखा था। उसके होंठों पर लोहे के ताले थे। क्योंकि कहते हैं —
“जिस दिन उसने कुछ कहा, तंत्र जाग जाएगा…”
गाँव के तांत्रिक विशनाथ बाबा ने तंत्र से अग्नि बुलाई और उसे जिंदा जला दिया।...पर जलते हुए उसकी आँखें बदल गईं थीं —काली, लाल डोरी वाली… पिशाचिन-सी। और तभी हुआ था पहला रहस्य —
आग बुझी नहीं। गाँव का कुआँ सूख गया।
और चौबीस घंटे में गाँव की आधी औरतें गर्भवती हो गईं…...बिना किसी पुरुष के संपर्क के।
उस रात के बाद, द्रौपदी को "करणपिशाचिनी" कहा गया।
🌘 वर्तमान समय —
रिया — दिल्ली यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट, अपने डॉक्युमेंट्री प्रोजेक्ट के लिए एक हॉन्टेड गाँव पर रिसर्च कर रही थी।
इंटरनेट पर उसे एक पुरानी न्यूज क्लिप मिली:
 "करणगांव में 23 सालों में कोई इंसान जिंदा नहीं बचा। जो गया, लौटा नहीं।
आखिरी बार एक फ़ोटोग्राफ़र गया था, उसने जाते समय कहा था —
‘मैं उसकी तस्वीर लेना चाहता हूँ।’
और फिर… कैमरा वापस मिला, लेकिन फ़ोटोग्राफ़र नहीं…” रिया की आँखें चमक उठीं —
“यही मेरी फिल्म होगी — The Karanpichasni Tapes”

वो अपने साथ तीन लोगों को लेकर निकली —
वीर (कैमरामैन)
अमन (साउंड टेक्नीशियन)
निधि (लाइट असिस्टेंट)
उनका उद्देश्य था —
करणगांव को एक्सप्लोर करना, और करणपिशाचिनी के अस्तित्व की सच्चाई उजागर करना।
लेकिन उन्होंने एक गलती कर दी —
वो अमावस की रात को पहुँचे थे।
अध्याय का अंत डायलॉग:
 “तू कैमरा ले जा… लेकिन याद रख, वहाँ वो अब भी जिंदा है… और तेरे कैमरे की लाइट से नहीं डरती, तेरे मन के डर से ताकत लेती है।”
— एक बूढ़ी औरत, जो करणगांव की सीमा पर मिली थी।
अध्याय 2 : होंठ सिले हुए थे… पर चीख गूंज रही थी

करणगांव की सीमा पार करते ही रिया और उसकी टीम को अजीब सा एहसास हुआ।
सड़क मानो अचानक ख़त्म हो गई थी, और सामने सिर्फ़ काली झाड़ियाँ और टूटे हुए मकान थे।
वीर (कैमरामैन):
“यार, यहाँ तो नेटवर्क भी नहीं है… सब जगह राख सी जमी है।”
निधि (लाइट असिस्टेंट):
“ये राख है या मिट्टी? देख, इसमें अजीब सी गंध है।”
रिया ने नोटबुक खोली और लिखा —
"गाँव में प्रवेश करते ही ज़मीन पर काली राख, संभवतः पुराने दाह संस्कारों की राख।"
🌑 पहली रात — गाँव का कुआँ

उनका कैंप गाँव के बीच में बने एक सूखे कुएँ के पास लगाया गया।
अमन ने साउंड रिकॉर्डर ऑन किया।
शुरुआत में सब सामान्य था — झींगुरों की आवाज़, पत्तों की सरसराहट… लेकिन फिर अचानक रिकॉर्डिंग में कुछ और आया —
एक औरत की धीमी सिसकी। अमन सिहर उठा —
“रिया… ये सुन… यहाँ कोई रो रहा है।”
रिया ने ध्यान से सुना। आवाज़ सचमुच कुएँ से आ रही थी।
वो काँपते होंठों से बोली —
“लेकिन उसके होंठ तो सिले हुए थे…” कैमरे में पहला साया

वीर ने कैमरा कुएँ की तरफ़ घुमाया।
लेंस में कुछ काला सा हिला।
जैसे किसी ने ज़ोर से झटके से सिर बाहर निकाला हो… और तुरंत पीछे हट गया हो।

निधि ने चीख मारी —
“वो… वो औरत थी! उसके मुँह पर ताले लटके थे!”

वीर ने स्क्रीन रिप्ले की,
लेकिन उसमें सिर्फ़ धुंध थी।
कोई औरत नहीं।

रिया की आँखों में डर और जिज्ञासा दोनों थे।
“ये ही तो है करणपिशाचिनी…
वो कैमरे में कैद नहीं होती,
बल्कि देखने वाले की आत्मा में उतरती है।”


---

🌒 रात का तीसरा पहर

करीब 3 बजे अमन ने फिर से रिकॉर्डर चलाया।
इस बार उसमें सिर्फ़ एक वाक्य गूंजा —
“ताले खोल दे…”

आवाज़ इतनी भयानक थी कि चारों की रूह काँप गई।
उनकी रीढ़ की हड्डी जैसे जम गई हो। और तभी… कुएँ से उठती ठंडी हवा में राख उड़ी, और राख से बनी परछाईं ने आकार लिया। वो परछाईं थी — एक औरत की, जिसके होंठों पर ताले लगे थे, लेकिन चीख इतनी तेज़ थी कि पूरी हवेली हिल गई।
 अध्याय का अंत डायलॉग
 रिया (काँपते हुए):
“ये संभव ही नहीं… होंठ सिले हुए हैं, फिर भी आवाज़…”
कुएँ से गूंजती हुई चीख:
“जब होंठ खुलेंगे… तो तेरा खून होगा…”

अध्याय 3 : शवगृह के पीछे जो मिला…

रिया और उसकी टीम ने रात किसी तरह काटी।
सुबह होते ही उन्होंने गाँव की खोजबीन शुरू की।
सूरज की रोशनी में भी करणगांव वीरान और भयावह लग रहा था।
चारों ओर सिर्फ़ टूटे मकान, जले हुए पेड़ और चिथड़े पड़े कपड़े।
 पुराना शवगृह
गाँव के किनारे पर एक टूटा-फूटा ढांचा खड़ा था।
उस पर काले धब्बे और राख जमी हुई थी।
दरवाजे के ऊपर faded अक्षरों में लिखा था —
“श्मशान गृह”
वीर ने कैमरा ऑन किया।
अमन ने दरवाज़ा धक्का दिया।
दरवाज़ा चर्र-चर्र की आवाज़ करते हुए खुला।
अंदर अंधेरा और बदबू भरा था।
दीवारों पर खून जैसे निशान थे।
कुछ जगह राख में हाथों के प्रिंट दबे थे —
जैसे कोई अंदर से भागने की कोशिश कर रहा हो।
 लाशों का रहस्य
निधि ने टॉर्च जलाकर कोने में रोशनी डाली।
वहाँ लकड़ी के तख्तों पर कुछ कंकाल रखे थे।
उनकी खोपड़ियाँ टूटी हुई थीं,
और हर खोपड़ी के मुँह पर लोहे का ताला लटका था।
निधि चिल्ला उठी —
“ये सब… ताले क्यों?”
रिया धीरे से बोली —
“ये उसी का श्राप है…
जो भी यहाँ मरता है, उसके होंठ बंद कर दिए जाते हैं।
ताकि कोई और उसकी आवाज़ न सुने।”
दीवार के पीछे
अमन की नज़र एक टूटी दीवार पर पड़ी। उसने हाथ से धक्का दिया। दीवार टूटते ही एक छोटा सा कमरा खुल गया। अंदर सिर्फ़ एक चीज़ थी —एक लकड़ी का संदूक। जिस पर काले धागे, नींबू और तांत्रिक मंत्र लिखे हुए थे। वीर ने कैमरा और ज़ूम किया। रिया ने काँपते हाथों से संदूक पर से धागे हटाए। ताला खुला… और संदूक के अंदर था —
एक पुराना कैमरा। उस पर खून के धब्बे थे।
श्रापित कैमरा
रिया ने धीरे से कहा —
“ये… वही कैमरा है…
जो उस आखिरी फोटोग्राफर का था।” अमन ने फौरन रिकॉर्डर चालू किया लेकिन जैसे ही कैमरा बाहर निकाला गया, शवगृह की हवा बदल गई।
अचानक सब तरफ़ से फुसफुसाहट गूंजने लगी —
“तू उसकी आँखों से देख रहा है…
अब वो तुझे अपनी आँखें दिखाएगी…”
वीर ने हड़बड़ाकर कैमरा ऑन किया। कैमरे की स्क्रीन में बस काला धुंधला धुआँ दिख रहा था। लेकिन अचानक स्क्रीन पर उभरा — एक औरत का चेहरा, जिसके होंठ सिले हुए थे।
अध्याय का अंत डायलॉग
स्क्रीन पर औरत की फुसफुसाहट:
“तुमने मेरा कैमरा छुआ है…
अब तुम्हारी आखिरी तस्वीर मैं खींचूँगी…”

अध्याय 4 : तंत्र के 7 निशान
शवगृह से निकलने के बाद टीम पर अजीब साया सा मंडराने लगा।
वो पुराना कैमरा अब वीर के पास था,
लेकिन जैसे ही उसने उसे पकड़ रखा था, उसकी आँखों में लाल डोरियाँ उतर आई थीं।
 वीर का पहला डर
रात होते ही वीर को नींद नहीं आ रही थी।
वो बार-बार कैमरे की स्क्रीन देखता।
स्क्रीन पर कभी अंधेरा, कभी धुंध… और कभी वही औरत का चेहरा। रिया ने उसे टोका — “वीर, इसे मत देख… ये श्रापित है।” लेकिन वीर मुस्कराया, उसकी आँखें अजीब हो गईं — “रिया… वो मुझे बुला रही है…
वो कहती है कि असली कहानी कैमरे में नहीं, गाँव की दीवारों पर है।”
 दीवारों पर तंत्र के निशान सुबह होते ही टीम गाँव की खोजबीन पर निकली।
गाँव के हर टूटे मकान की दीवार पर अजीब चिन्ह बने थे। कभी त्रिकोण, कभी उल्टा चंद्रमा, कभी लाल रंग से खींची गई आँखें। रिया ने उन्हें ध्यान से देखा और अपनी डायरी में लिखा —
“ये तंत्र के 7 निशान हैं।
हर निशान का मतलब अलग है… और हर निशान एक बलि से जुड़ा है।”

1. त्रिकोण का निशान — पहली बलि, एक बच्चे की।
2. उल्टा चंद्रमा — दूसरी बलि, एक कुंवारी कन्या की।
3. लाल आँखें — तीसरी बलि, जो देखने वाला है।
4. भस्म का चक्र — चौथी बलि, तांत्रिक की।
5. सात खंजर का चित्र — पाँचवीं बलि, खून से।
6. काले कौए की परछाई — छठी बलि, आत्मा की।
7. बंद होंठों वाला मुख — सातवीं बलि… जो करणपिशाचिनी की मुक्ति देगा।
तांत्रिक का ग्रंथ
अमन ने गाँव के मंदिर के खंडहर में एक फटा हुआ ग्रंथ पाया। उसमें साफ़ लिखा था:
 “जब सात निशानों की सात बलियाँ पूरी होंगी,
तब करणपिशाचिनी के होंठ खुलेंगे।
और उसकी पहली चीख से सात गाँव भस्म हो जाएँगे। निधि काँपते हुए बोली —
“रिया… कहीं हम उसी अमावस की रात पर तो नहीं आ गए, जब ये सातवाँ चक्र पूरा होने वाला है?”
रिया का चेहरा पीला पड़ गया।
उसकी डायरी से एक पन्ना उड़कर ज़मीन पर गिरा।
पन्ने पर वही आखिरी निशान बना था —
बंद होंठों वाला मुख।
रात का तीसरा पहर —
अचानक हवा में सीटी जैसी आवाज़ गूंजी। कुएँ से राख उड़कर सीधी टीम की तरफ़ आई। वीर ने कैमरा उठाया… और चीखा — “देखो! दीवार पर नया निशान बना है!” सभी ने मुड़कर देखा। गाँव की टूटी दीवार पर ताज़ा खून से बना था — बंद होंठों वाला मुख।
अध्याय का अंत डायलॉग
 दीवार से गूंजती आवाज़:
“आखिरी बलि का समय आ गया है…
और वो बलि… तुम लोग हो।”

अध्याय 5 : रक्त की प्यास
रात आधी बीत चुकी थी। जंगल के बीचोबीच हवाओं में एक अजीब-सा कंपन था। कुत्तों के झुंड अचानक भौंककर चुप हो जाते, जैसे किसी अदृश्य ताकत ने उनकी आवाज़ दबा दी हो। काली नदी के किनारे, जहां घना कुहासा हर चीज़ को निगल रहा था, वहाँ गांव के लोग इकट्ठा थे। किसी ने कहा था कि "आज करनपिचासनी को रक्त चाहिए... नहीं तो पूरा गाँव भस्म हो जाएगा।"बुजुर्गों ने सबको सचेत किया —
"उसकी प्यास सिर्फ़ खून से बुझती है। अगर बलि नहीं दी गई, तो वह घर-घर घूमकर बच्चों को उठा ले जाएगी।" गाँव के चौपाल पर दीयों की कतार जल रही थी, लेकिन लौ काँप रही थी, जैसे हर एक बाती डर से मर रही हो। औरतों की आँखों में भय था, बच्चों को गोद में छुपाकर वे फुसफुसा रही थीं। अचानक एक औरत की चीख गूँजी —
"वो आई...!!" सभी ने देखा, धुंध के बीच एक औरत खड़ी थी। उसके बाल इतने लंबे कि ज़मीन पर रेंग रहे थे, आँखें खून जैसी लाल। होंठ फटे और दाँत नुकीले। उसकी देह मानो राख से बनी हो, और हर सांस के साथ धुआँ निकल रहा हो। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ी, और अपने नाखून से एक बकरी का गला फाड़ दिया। गर्म खून ज़मीन पर गिरते ही, उसने पागलपन से उसे पी लिया। गाँव के लोग डर के मारे ज़मीन पर बैठ गए।
उसकी आवाज़ गूँजी —
"खून... मुझे और खून चाहिए। अगर नहीं मिला... तो मैं हर घर से एक बच्चा ले जाऊँगी।"
वातावरण सिहर उठा।
अब सब समझ गए थे — करनपिचासनी सिर्फ़ एक आत्मा नहीं... बल्कि रक्त की असीम प्यास थी।
अध्याय 6 : करनपिचासनी की अधूरी दास्तान
कहते हैं — हर आत्मा की कोई कहानी होती है। कोई जन्म से दानवी नहीं बनता, बल्कि हालात उसे उस राह पर धकेलते हैं। सैकड़ों साल पहले, यही गाँव आबाद था। यहाँ "करणी" नाम की एक स्त्री रहती थी। वह बेहद खूबसूरत थी, लेकिन उसकी ज़िंदगी दर्द और अपमान से भरी थी। उसका पति शराबी और जुआरी था, जो उसे आए दिन पीटता। गाँव के लोग करणी की सुंदरता से जलते थे। औरतें उसे कुलटा कहतीं, मर्द उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठाना चाहते। लेकिन करणी सब सहकर भी जी रही थी। एक रात, गाँव के कुछ दबंगों ने उसके घर में आग लगा दी। उसका पति उसे बचाने की बजाय भाग गया। करणी ने अपनी गोद में सो रही बच्ची को उठाकर भागने की कोशिश की, लेकिन लपटों में फँस गई।उसकी चीखें पूरे गाँव ने सुनीं, लेकिन किसी ने मदद नहीं की। उसकी बच्ची जलकर मर गई। करणी भी आग में तड़प-तड़प कर मर गई। मरते वक्त उसने कसम खाई —
"मैं लौटूँगी... और हर उस इंसान का खून पियूँगी जिसने मुझे जलते हुए देखा और मेरी मदद नहीं की।"
उसके बाद, कहते हैं गाँव के श्मशान से हर रात किसी औरत की सिसकियाँ आती थीं। धीरे-धीरे, लोगों ने उसकी आत्मा को "करण-पिचासनी" कहना शुरू किया। वह औरत अब सिर्फ़ औरत नहीं रही... वह राख, खून और बदले की प्यास बन चुकी थी।
गाँव के बुज़ुर्ग मानते हैं कि जब तक उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी, तब तक हर पीढ़ी उसकी बलि चढ़ाएगी।
अध्याय 7 : पहली मुठभेड़
बरसों बाद गाँव में रामलाल नाम का एक जमींदार आया। वह पढ़ा-लिखा था और भूत-प्रेत जैसी बातों पर विश्वास नहीं करता था। गाँव वालों ने उसे कई बार चेताया —
"रात को श्मशान की तरफ़ मत जाना… वहाँ करनपिचासनी का डेरा है।"

लेकिन रामलाल हँसता,
"ये सब अंधविश्वास है। अगर कोई औरत होती तो अब तक मर चुकी होती।"

एक अमावस की रात, वह शराब पीकर अपने दोस्तों के साथ शर्त लगाने निकल पड़ा। शर्त थी —
"जो श्मशान घाट की पुरानी नीम के नीचे जाकर दिया जलाएगा, वही असली मर्द कहलाएगा।"

रामलाल हाथ में लालटेन लिए वहाँ पहुँचा। नीम का पेड़ सन्नाटे में खड़ा था। पेड़ के नीचे ताज़ा राख बिखरी थी, मानो किसी ने अभी-अभी चिता जलाकर राख उड़ाई हो।

जैसे ही उसने दिया जलाया, अचानक हवा तेज़ हो गई। लालटेन बुझ गई और अँधेरा छा गया।

अंधेरे में एक आवाज़ आई…
"खून… मुझे खून चाहिए…"

रामलाल काँप गया। उसने लालटेन दोबारा जलाने की कोशिश की, पर लौ नहीं जली। तभी नीम के पीछे से एक परछाईं निकली। लंबी, काले बालों से ढकी, चेहरा आधा जला हुआ, आँखें लाल अंगारों जैसी।

वह धीरे-धीरे आगे बढ़ी और अपनी लंबी नाखून जैसी उँगलियाँ रामलाल की गर्दन पर फेरते हुए बोली —
"तुम भी उन्हीं जैसे हो… जिन्होंने मुझे जिंदा जलते देखा था। अब तुम्हारी बारी है…"

रामलाल ने चीख मारने की कोशिश की, लेकिन आवाज़ उसके गले में ही फँस गई। अगले दिन सुबह लोग उसे श्मशान में मरा हुआ पाए। उसके शरीर पर कोई चोट नहीं थी, बस गले से सारा खून सूख चुका था।

गाँव वालों ने उस दिन से मान लिया —
करनपिचासनी को कोई चुनौती नहीं दे सकता। जो देता है, वह जिंदा नहीं बचता।

अध्याय 8 : पहला तांत्रिक
रामलाल की मौत के बाद गाँव में दहशत फैल गई। लोग दिन में खेत जाते, मगर अंधेरा होते ही दरवाज़े बंद कर लेते। बच्चों की हँसी गायब हो गई थी, और हर घर में बस सिसकियाँ गूँजतीं।

गाँव के बुज़ुर्गों ने पंचायत बुलाई। सबने तय किया कि अब किसी बड़े तांत्रिक को बुलाना ही पड़ेगा।
काफी खोजबीन के बाद, वे तांत्रिक गजाधर नाथ को लेकर आए।

गजाधर नाथ दुबला-पतला, पर आँखों में चमक लिए बूढ़ा आदमी था। उसके गले में हड्डियों की माला और हाथ में खप्पर था। आते ही उसने गाँव की मिट्टी उठाकर सूंघी और बोला —
"यहाँ बहुत बड़ा श्राप है। यह औरत साधारण आत्मा नहीं, बल्कि रक्तपिशाचिनी बन चुकी है।"

उसने कहा कि अमावस्या की रात, श्मशान के नीम के पेड़ तले यज्ञ करना होगा। तभी उसकी आत्मा को बाँधा जा सकता है।

गाँव वाले डरते हुए भी राज़ी हो गए।

रात को श्मशान में चारों तरफ़ मंत्रोच्चारण शुरू हुआ। दीपक जलाए गए, धूप की गंध फैलने लगी। गजाधर नाथ खप्पर में काली हल्दी और चढ़ावा डालकर मंत्र पढ़ रहा था।

अचानक हवा तेज़ हुई। धूप की राख उड़ने लगी। नीम का पेड़ हिलने लगा और उसी वक्त उसकी ठंडी आवाज़ गूँजी —
"तुम मुझे बाँध नहीं सकते… मैं खून से बँधी हूँ, और खून से ही मुक्त होऊँगी।"

गजाधर नाथ ने जोर से त्रिशूल जमीन में गाड़ा। मंत्रों का वेग बढ़ा। तभी धुंध के बीच करनपिचासनी प्रकट हुई — लहूलुहान बाल, फटी चीत्कार करती आँखें, और उसके पैरों के पास रेंगती लाल-लाल लपटें।

तांत्रिक ने उसे बाँधने की कोशिश की, लेकिन वह इतनी शक्तिशाली थी कि चारों ओर जलते दीपक फूट पड़े। गजाधर नाथ का खप्पर उसके हाथ से छूट गया और उसकी देह ज़मीन पर गिरते ही जलने लगी।

गाँव वाले भाग खड़े हुए।
और उस रात से सबको यक़ीन हो गया —
कोई भी तांत्रिक करनपिचासनी को रोक नहीं सकता।
अध्याय 9 : पहली बलि

गजाधर नाथ की जलकर मौत ने पूरे गाँव को हिला दिया। अब सबको यक़ीन हो गया था कि करनपिचासनी इंसानी ताक़त से नहीं रुक सकती।

गाँव की पंचायत फिर जुटी। बुज़ुर्गों ने कहा —
"अगर उसे खून चाहिए… तो हमें देना ही होगा। वरना वह खुद आकर हर घर से ले जाएगी।"

डर और बेबसी में सबने हामी भर दी। और उसी दिन से गाँव में एक खूनी प्रथा शुरू हुई।

हर साल अमावस्या की रात, श्मशान के नीम के नीचे एक बलि दी जाती। शुरू में लोग जानवरों का खून चढ़ाने लगे — बकरा, भैंस, मुर्गा। लेकिन करनपिचासनी शांत नहीं हुई।

एक रात उसने पूरे गाँव के बीच आकर कहा —
"जानवरों का खून मुझे संतुष्ट नहीं करता… मुझे इंसानी खून चाहिए। अगर तुमने बलि नहीं दी… तो मैं अपने लिए खुद चुन लूँगी।"

उसकी आवाज़ में ऐसी दहशत थी कि औरतें चीखकर बच्चों को सीने से चिपका लीं।
आखिरकार, पंचायत ने सबसे गरीब परिवार से एक बच्ची को उठा लिया और उसे नीम के नीचे छोड़ दिया।

सुबह उस जगह सिर्फ़ राख पड़ी थी और चारों तरफ़ खून बिखरा हुआ था। बच्ची का कोई नामोनिशान नहीं था।

उस दिन से हर अमावस्या गाँव में मातम छा जाता।
लोग अपने बच्चों को छुपाकर रखते, लेकिन हर बार किसी-न-किसी घर से एक बलि ली जाती।

गाँव धीरे-धीरे भय और खून की गंध में डूब गया।
और करनपिचासनी और भी ताक़तवर होती गई।

अध्याय 10 : बाहरी साधु
बरसों से गाँव करनपिचासनी के डर से खून बहा रहा था। हर अमावस की रात बच्चे रोते, माताएँ छिपातीं, और एक मासूम बलि चढ़ जाता।

लेकिन एक दिन, उस गाँव से गुज़रते हुए एक साधु आया। उसका नाम था सिद्धनाथ।
उसकी आँखों में गहरी शांति थी, और शरीर पर गेरुए वस्त्र। हाथ में बस एक कमंडल और त्रिशूल।

गाँववालों ने उसे रोककर भोजन कराया। साधु ने उनकी थकी आँखें और डर से काँपते चेहरे देखे। पूछने पर जब सच सामने आया, तो सिद्धनाथ क्रोधित हो उठा —
"धिक्कार है तुम सब पर! इंसानी बलि? औरत की आत्मा को देवत्व से वंचित कर तुमने उसे और दानवी बना दिया।"

गाँव वाले काँपते हुए बोले —
"महाराज, हमने मजबूरी में किया। अगर बलि न दें तो वह खुद आकर उठा लेती है। हमने बहुत तांत्रिक बुलाए, कोई उसे रोक न सका।"

सिद्धनाथ ने नीम के पेड़ की ओर देखा, और गहरी सांस लेकर बोला —
"अब अमावस्या आने दो। इस बार उसकी आँखों में मैं आँखें डालूँगा। या तो वह मुक्त होगी… या मैं यहीं अग्नि में विलीन हो जाऊँगा।"

गाँववालों में हल्की उम्मीद जगी।

अमावस्या की रात आई। चारों ओर सन्नाटा था। लोग घरों में छिप गए। सिर्फ़ सिद्धनाथ श्मशान के नीम के नीचे बैठा मंत्र जपने लगा। उसकी आवाज़ गूंज रही थी —
"ॐ काली कपालिनी नमः… ॐ भद्रकाली नमः…"

अचानक ठंडी हवा चली। दीपक एक-एक कर बुझ गए। धुंध घनी होने लगी। और फिर वही सिसकती चीख…
"मुझे खून चाहिए… खून दो…"

करनपिचासनी सामने आई। उसके बाल हवा में लहर रहे थे, आँखें लाल आग की तरह जल रही थीं। वह चीखी —
"तू कौन है जो मेरी राह रोकने आया है?"

सिद्धनाथ ने त्रिशूल उठाकर कहा —
"मैं तेरी मुक्ति का साधन हूँ। तू इंसानी बलि नहीं लेगी अब।"

वह हँस पड़ी, उसकी हँसी से ज़मीन काँपने लगी।
"बहुतों ने कोशिश की साधु… तू भी राख बन जाएगा।"

उस पल श्मशान युद्धभूमि बन गया। एक तरफ़ साधु के मंत्र, दूसरी तरफ़ आत्मा की चीखें। नीम के पत्ते जलकर राख हो रहे थे, और आसमान में कौए मंडराने लगे।

गाँव वाले खिड़कियों से सब देख रहे थे, उनके दिलों में डर और उम्मीद एक साथ धड़क रहे थे।अंतिम अध्याय : मुक्ति या विनाश

अमावस्या की रात अपने चरम पर थी।
श्मशान के चारों ओर धुआँ, राख और चीखें गूँज रही थीं। सिद्धनाथ अपने त्रिशूल के आगे खड़े थे, और सामने खून से प्यासा करनपिचासनी का रूप।

उसकी आँखों से आग की लपटें फूट रही थीं। बाल ज़मीन पर रेंग रहे थे, और हर कदम के साथ धरती काँप रही थी।
"मुझे खून चाहिए… इंसानी खून…" वह गरजी।

सिद्धनाथ ने मंत्रोच्चारण और तेज़ किया।
"ॐ कालिकायै नमः, ॐ चण्डिकायै नमः…"
उनके चारों ओर अग्नि का एक चक्र बन गया।

करनपिचासनी उस चक्र पर झपटी। उसकी चीख से पेड़ टूटने लगे, पक्षी आसमान से गिर पड़े। मगर अग्नि ने उसे रोक दिया।
वह तड़पकर चीखी —
"तू मुझे रोक नहीं सकता! मैं शाप से बँधी हूँ। जब तक इस गाँव का खून बहता रहेगा, मैं जीवित रहूँगी।"

सिद्धनाथ ने आँखें बंद कीं और धीमे स्वर में बोले —
"तू शाप से बँधी है… तो मैं तुझे आशीर्वाद से मुक्त करूँगा।"

उन्होंने त्रिशूल ज़मीन पर गाड़ दिया। धरती फटी, और भीतर से अग्नि की ज्वाला निकली।
करनपिचासनी उस ज्वाला में झपटी, मगर यह कोई साधारण आग नहीं थी। यह आत्मा की शुद्धि की अग्नि थी।

वह चीखती रही, उसकी आवाज़ पूरे जंगल में गूँज उठी। धीरे-धीरे उसके बाल राख में बदलने लगे, आँखों की लाल आग बुझ गई, और उसकी राख हवा में घुलने लगी।

अंतिम क्षण में उसकी आवाज़ फुसफुसाई —
"काश… उस रात कोई मेरी मदद कर देता…"

और फिर सब शांत हो गया।

सिद्धनाथ थककर ज़मीन पर गिर पड़े। उन्होंने गाँववालों से कहा —
"याद रखो, बलि से कोई आत्मा शांत नहीं होती। करुणा और प्रार्थना ही मुक्ति देती है।"

उसके बाद गाँव में कभी बलि नहीं दी गई। नीम के पेड़ तले सन्नाटा लौट आया।
गाँववाले धीरे-धीरे अपने डर से बाहर आने लगे।

लेकिन आज भी, जब अमावस्या की रात आती है,
कभी-कभी हवा में एक धीमी सिसकी सुनाई देती है —
"काश… उस रात कोई मेरी मदद कर देता…"


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🌑 समाप्त 🌑

लेखक अनुज श्रीवास्तव