मृत्यु: एक अंत या नई शुरुआत?
मृत्यु जीवन का सबसे बड़ा और अटल सत्य है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है –
“जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।”
अर्थात जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरता है उसका पुनर्जन्म भी निश्चित है। यह सत्य राजा हो या रंक, ज्ञानी हो या अज्ञानी – सभी पर समान रूप से लागू होता है। मृत्यु केवल अंत नहीं, बल्कि आत्मा की अगली यात्रा का आरंभ है।
मनुष्य के मन में मृत्यु को लेकर सबसे बड़ा प्रश्न यही रहा है – क्या यह केवल शरीर का अंत है या आत्मा की यात्रा की शुरुआत? क्या मृत्यु भय का कारण है या मोक्ष का द्वार? इन सवालों ने सदियों से संतों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को चिंतन और शोध में डाला है।
प्रेरणादायक कथाएँ और उदाहरण
राजा परीक्षित की कथा
महाभारत के समय के राजा परीक्षित को जब ऋषि ने श्राप दिया कि सातवें दिन उनकी मृत्यु निश्चित है, तो उनके पास दो रास्ते थे – या तो शोक और भय में डूबे रहें, या फिर जीवन के अंतिम क्षणों को सार्थक बनाएं। उन्होंने दूसरा मार्ग चुना। उन्होंने अपने सारे राजसी सुख छोड़ दिए और शेष सात दिन केवल भागवत कथा का श्रवण किया।
यह कथा हमें सिखाती है कि मृत्यु से भागने का नहीं, बल्कि उसे स्वीकार कर सही दिशा में जीने का महत्व है। मृत्यु उनके लिए भय का कारण नहीं रही, बल्कि ईश्वर-स्मरण और भक्ति का अवसर बनी।
अजामिल का प्रसंग
अजामिल ने अपने जीवन में अनेक पाप कर्म किए। लेकिन मृत्यु के समय जब यमदूत उनके सामने आए, तब उन्होंने भय में अपने पुत्र को पुकारते हुए “नारायण” नाम लिया। यह वही नारायण शब्द भगवान विष्णु का नाम भी था। इस एक उच्चारण से उनके समस्त पाप धुल गए और मृत्यु के क्षण में ही उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई।
यह प्रसंग दिखाता है कि मृत्यु चाहे जब आए, यदि अंत समय में ईश्वर का स्मरण हो तो जीवन का संतुलन बदल सकता है।
महात्मा गांधी
गांधीजी के जीवन और मृत्यु दोनों में भक्ति और सत्य का गहरा संबंध था। जब नाथूराम गोडसे ने उन पर गोली चलाई, तब उनके मुख से सहज रूप से “हे राम” शब्द निकले। यह शब्द उनके पूरे जीवन का सार था।
उनकी मृत्यु केवल एक नेता का अंत नहीं थी, बल्कि यह संदेश थी कि जिसने जीवन ईश्वर के नाम में बिताया, उसके अंतिम शब्द भी उसी ईश्वर के स्मरण से जुड़े होंगे।
रामकृष्ण परमहंस
रामकृष्ण परमहंस ने अपने अंतिम दिनों में अपने शिष्यों को यही सिखाया कि मृत्यु को भय की दृष्टि से न देखें। उनके अनुसार मृत्यु ईश्वर की गोद में जाने का मार्ग है। उन्होंने अपने अंतिम क्षणों में कहा था –
“जैसे बच्चा माँ की गोद में आराम पाता है, वैसे ही आत्मा मृत्यु के बाद परमात्मा की शरण में आराम पाती है।”
उनका जीवन और मृत्यु दोनों ही हमें बताते हैं कि आत्मा के लिए मृत्यु केवल एक परिवर्तन है, न कि अंत।
संतों और दार्शनिकों के विचार
भारतीय संत प्रेमानंद जी महाराज: वे कहते हैं – “मृत्यु भय का कारण नहीं, आत्मा की यात्रा का एक चरण है। जैसे रात के बाद सुबह होती है, वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा नए स्वरूप में आरंभ होती है।”
दादा भगवान: उनकी शिक्षा में मृत्यु को पुराने वस्त्र बदलने की उपमा दी गई है – “जैसे कोई मनुष्य पुराने वस्त्र उतारकर नए पहन लेता है, वैसे ही आत्मा शरीर बदलती है।”
जया किशोरी जी: वे बताती हैं – “जो जीवन भक्ति में बीतता है, उसके लिए मृत्यु मंगलमयी हो जाती है। मृत्यु फिर केवल अंत नहीं रहती, बल्कि ईश्वर से मिलने का उत्सव बन जाती है।”
पश्चिमी दार्शनिक
सुकरात: जब उन्हें विषपान की सजा दी गई, तब भी वे मुस्कराते रहे। उनका मानना था – “मृत्यु आत्मा की मुक्ति है, क्योंकि आत्मा अमर है और शरीर अस्थायी।”
प्लेटो: उन्होंने मृत्यु को आत्मा और शरीर के अलगाव का माध्यम बताया। उनके अनुसार – “शरीर बंधन है, और मृत्यु उस बंधन से मुक्ति।”
शोपेनहॉवर: उनका दृष्टिकोण गहरा था। उन्होंने कहा – “जीवन दुखों से भरा है, और मृत्यु उन दुखों से मुक्ति देती है। मृत्यु से डरने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वही शांति का मार्ग है।”
संत कवि
तुलसीदास: उन्होंने मृत्यु को खेल की तरह देखा –
“जन्म मृत्यु है खेल, चलत है जगत तमाशा।”
उनका संदेश यह था कि मृत्यु को इतना गंभीर न मानो कि जीवन का आनंद ही छूट जाए।
कबीर: कबीर ने मृत्यु के भय को अज्ञान का परिणाम बताया –
“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं; सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या माहीं।”
उनका कहना था कि जब ईश्वर का प्रकाश भीतर जलता है, तब मृत्यु का कोई अस्तित्व नहीं रहता।
आधुनिक विज्ञान और मृत्यु
विज्ञान मृत्यु को केवल जैविक प्रक्रिया मानता है, लेकिन इसमें भी रहस्य है।
21 ग्राम प्रयोग: डॉ. डंकन मैकडुगल ने प्रयोग किया और पाया कि मृत्यु के क्षण में शरीर का वजन लगभग 21 ग्राम कम हो जाता है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह आत्मा का वजन हो सकता है।
Near Death Experience (NDE): हजारों लोगों ने मृत्यु के करीब अनुभव साझा किए हैं – तेज़ प्रकाश देखना, अपने शरीर को बाहर से देखना, अद्भुत शांति और आनंद का अनुभव करना। ये अनुभव बताते हैं कि मृत्यु के क्षण में चेतना केवल शरीर तक सीमित नहीं रहती।
काँच बॉक्स प्रयोग: शव को काँच के डिब्बे में रखकर अध्ययन किया गया। मृत्यु के समय सूक्ष्म कंपन और दरारें देखी गईं, मानो कोई ऊर्जा बाहर निकल रही हो।
क्वांटम फिज़िक्स: विज्ञान मानता है कि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, केवल रूप बदलती है। चेतना यदि ऊर्जा है, तो मृत्यु केवल उसका रूपांतरण है।
मृत्यु और मनोविज्ञान
मनोविज्ञान कहता है कि मृत्यु का भय (Death Anxiety) मनुष्य की गहराई में छिपा सबसे बड़ा डर है।
यह डर हमें जीते जी असुरक्षित रखता है।
लेकिन जब हम मृत्यु को जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मानते हैं, तब यह भय धीरे-धीरे कम हो जाता है।
Existential Psychology बताती है कि मृत्यु का विचार इंसान को और ज़िम्मेदार बनाता है। क्योंकि जब हम जानते हैं कि समय सीमित है, तभी हम हर पल को महत्व देने लगते हैं।
मृत्यु और साहित्य
मृत्यु साहित्य और काव्य का प्रिय विषय रहा है।
मीराबाई: उन्होंने मृत्यु को कृष्ण से मिलने का उत्सव माना। उनके भजन कहते हैं – “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।” उनके लिए मृत्यु का अर्थ था, प्रियतम से मिलन।
रवीन्द्रनाथ टैगोर: उन्होंने लिखा – “मृत्यु प्रकाश की सीमा नहीं, बल्कि नए प्रकाश की शुरुआत है।”
जॉन डन (John Donne): अंग्रेज़ी कवि ने मृत्यु को ललकारते हुए लिखा – “Death, be not proud… for death, thou shalt die.” अर्थात मृत्यु स्वयं भी अमर नहीं, क्योंकि आत्मा उससे भी परे है।
कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष
हिंदू दर्शन मानता है कि आत्मा अमर है और कर्म ही अगले जीवन का निर्धारण करते हैं।
पुण्य कर्म आत्मा को ऊँचे लोकों में ले जाते हैं।
पाप कर्म आत्मा को कठिन परिस्थितियों में जन्म लेने के लिए बाध्य करते हैं।
मोक्ष वह अवस्था है जहाँ आत्मा जन्म–मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है और परमात्मा में लीन हो जाती है।
मृत्यु का आध्यात्मिक महत्व
मृत्यु हमें याद दिलाती है कि यह संसार अस्थायी है। धन, पद, शोहरत – सब यही रह जाते हैं। केवल कर्म और आत्मा की पवित्रता साथ जाती है।
इसलिए मृत्यु से डरने की जगह, जीवन को इस तरह जीना चाहिए कि मृत्यु भी उत्सव बन जाए। भक्ति, सत्य और सदाचार से बीता जीवन मृत्यु को मंगलमयी बना देता है।
प्रेरक अंत
जब तक मौत का डर है, तब तक हम मानव हैं।
जिस दिन यह डर खत्म हो जाएगा,
वही दिन है जब हम सच में साहसी बनेंगे।
“जितना भय मृत्यु का, उतना ही सीमित जीवन; डर जब दूर होगा, तब खिल उठेगा साहस का सूरज।” – Nensi Vithalani