Ankahee Mohabbat - 4 in Hindi Mythological Stories by Kabir books and stories PDF | अनकही मोहब्बत - 4

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अनकही मोहब्बत - 4


"जहाँ लोग भगवान और खुदा के बीच फर्क करते हैं, वहाँ दिल की बात अक्सर गुनाह बन जाती है..."
गाँव का नाम था मोहम्मदपुर — एक छोटा सा कस्बा, जहाँ मंदिर की घंटियाँ और अज़ान की आवाज़ एक साथ गूँजती तो थीं,
पर दिलों के दरवाज़े अब भी बंद थे।
गाँव के एक छोर पर था इमामबाड़ा जाफ़री, और दूसरे छोर पर दलित बस्ती।
उसी बस्ती में रहता था राघव मेहतर — एक मेहनती, शांत और बेहद संवेदनशील युवक।
दिन में सफाई का काम करता, और रात को पुरानी किताबों में शब्दों की दुनिया बुनता।
राघव के पिता सफाईकर्मी थे।
लोग उन्हें "मेहतर" कहकर पुकारते — एक शब्द जो समाज में नाम से ज़्यादा “पहचान” बन गया था।
राघव को इस पहचान से घुटन होती थी, पर वो जानता था — लड़ नहीं सकता, बस लिख सकता है।
कभी किसी को नहीं बताया कि वो कविताएँ लिखता है।
वो खुद को काग़ज़ों पर उड़ेल देता, और सुबह सब जला देता — ताकि कोई पढ़ न ले कि एक “मेहतर” के भी जज़्बात होते हैं।
इसी गाँव के बीचोंबीच रहती थी आयरा जाफ़री — शिया मुस्लिम परिवार की बेटी।
उसके पिता इमामबाड़े के मुंतज़िम थे — धर्म और इज़्ज़त, दोनों उनके खून में थे।
आयरा तालीमयाफ्ता थी, लखनऊ के स्कूल से पढ़कर लौटी थी।
वो दूसरों से अलग थी — ज़मीन से जुड़ी, मगर सोच में आसमान जैसी आज़ाद।
एक दिन इमामबाड़े की पुरानी दीवार गिर गई।
मजदूर बुलाए गए, जिनमें एक नाम था — राघव मेहतर।
मिट्टी से सना उसका चेहरा, माथे पर पसीने की लकीरें, और आँखों में एक सादगी थी।
आयरा वहीं खड़ी थी — पहली बार उसने किसी “मेहतर” की आँखों में ऐसा सुकून देखा।
वो बोली, “तुम्हारा नाम क्या है?”
राघव ने नज़र झुकाकर कहा, “राघव... मेहतर।”
थोड़ा ठहरकर बोला, “नाम तो बस पहचान है, बीबी साहिबा, असल में मैं वही मिट्टी हूँ जिससे ये दीवारें बनती हैं।”
आयरा मुस्कुरा दी।
उसने पहली बार किसी ने इतनी सच्ची बात इतने सादे लहज़े में सुनी थी।
वो बोली, “मिट्टी में अगर इतनी इज़्ज़त होती, तो लोग जात-पात का दीवार क्यों बनाते?”
राघव ने कुछ नहीं कहा।
बस उसकी आँखों में झाँककर मुस्कुरा दिया — और यही मुस्कान उनकी पहली मुलाक़ात की मोहर बन गई।
दिन बीतते गए।
आयरा रोज़ खिड़की से उसे काम करते देखती।
कभी पानी का गिलास देती, कभी किताब का पन्ना उड़कर गिरा देती,
कभी खुद ही कोई सवाल पूछने चली आती।
राघव अब काम से ज़्यादा उस खिड़की की तरफ ध्यान देने लगा।
वो हर दिन किसी नई शेर की पंक्ति सोचता —
“अगर तू ख्वाब है, तो मुझे नींद कभी न आए,
अगर तू सच है, तो दुनिया झूठ लगने लगे।”
आयरा को अब राघव से बात करने में डर नहीं लगता था, मगर समाज से लगता था।
वो जानती थी — राघव की जात और उसका मज़हब, दोनों इस दुनिया के लिए दो सिरों पर हैं।
फिर भी दिल को कौन समझाए?
एक शाम, जब बारिश हो रही थी,
राघव दीवार के पास अकेला बैठा था,
आयरा उसके लिए छतरी लेकर आई।
उसने कहा — “बारिश में भी काम?”
राघव बोला — “कभी-कभी मिट्टी भी रोती है, तो उसे छोड़ना अच्छा नहीं।”
वो दोनों हँसे, और फिर कुछ देर खामोश खड़े रहे।
बरसते आसमान के नीचे दो दुनियाओं के दिल एक पल के लिए एक हो गए।
वो खामोश पल ही उनकी अनकही मोहब्बत का जन्म था।
रात में राघव ने पहली बार अपनी डायरी नहीं जलाई।
उसमें लिखा —
“आज किसी ने मुझे इंसान की तरह देखा,
शायद मोहब्बत का पहला नाम यही होता है।”
उधर आयरा ने अपने कमरे की खिड़की बंद करते हुए आसमान की तरफ देखा —
“खुदा, अगर ये गुनाह है, तो मुझे सज़ा से पहले उस पल को याद रखने की मोहलत देना।”