भीम और सुरज पागल होकर भागे — पर गुफा का हर रास्ता अब घूम कर वहीं आ जाता था।
दीवारों पर अब तीन परछाइयाँ थीं — तीनों की ही... लेकिन एक परछाई ज़िंदा हिल रही थी।
पाँचवाँ अध्याय — सुबह की खामोशी
अगली सुबह गाँव वालों को जंगल के पास सुरज बेहोश मिला।
उसकी आँखें खुली हुई थीं, लेकिन वो बोल नहीं पा रहा था।
जब उसे होश आया, वो बस इतना बोला —
“दीवारें... साँस लेती हैं...”
लोगों ने खोज की, पर राजू और भीम का कोई निशान नहीं मिला।
सुरज कुछ हफ़्ते बाद पागल हो गया।
वो रातों में गुफा की दिशा में देख कर हँसता और कहता —
“वो अभी भी वहीं हैं… सुन सकते हो ना? वो फुसफुसा रहे हैं...”
अंत — अधूरी आवाज़ें
कई साल बीत गए।
अब गाँव के लोग वहाँ नहीं जाते।
पर आज भी जब कोई राह भटक कर उस पहाड़ी के पास जाता है, तो गुफा के भीतर से किसी के कदमों की आवाज़ आती है —
कभी हँसी, कभी चीख, कभी किसी की मिन्नतें।
लोग कहते हैं, अंधेरी गुफा अब सिर्फ पत्थरों की नहीं रही —
वो ज़िंदा है…
और हर सौ साल में, उसे तीन नई आत्माएँ चाहिए होती हैं…
👁️🗨️
और आज, जब ये कहानी तुमने पढ़ी… तो शायद उसने तुम्हें भी देख लिया हो…
🌑💀अंधेरी गुफा: वापसी
कुरहारी गाँव को बीस साल बीत चुके थे उस हादसे को।
अब वो गुफा पेड़ों और झाड़ियों से लगभग ढक चुकी थी।
गाँव के बच्चे भी वहाँ तक जाते हुए काँप जाते थे।
पर एक दिन, अरविंद नाम का एक नौजवान शहर से गाँव लौटा।
वो राजू का छोटा भाई था।
बचपन में उसने बस इतना सुना था कि उसका भाई और उसके दोस्त गुफा में खो गए थे।
लेकिन उसे कभी सच नहीं बताया गया।
अरविंद के दिल में एक ही सवाल था —
“राजू भैया का क्या हुआ?”
पहला अध्याय — गाँव की सरहद
शाम का वक्त था।
अरविंद अपने पुराने घर के आँगन में बैठा था जब बुज़ुर्ग हरनारायण दादा आए।
उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा —
“बेटा, उस गुफा की तरफ़ मत जाना। वो अब पहले से ज़्यादा भयानक हो चुकी है।”
अरविंद ने पूछा, “क्या अब भी वहाँ कोई जाता है?”
दादा ने नज़रें झुका लीं, “पिछले महीने एक लकड़हारा गया था। उसके सिर्फ कपड़े मिले...”
उस रात अरविंद ने खिड़की से बाहर झाँका।
दूर पहाड़ी पर हल्की-सी नीली रोशनी चमक रही थी —
जैसे कोई दीया जल रहा हो गुफा के भीतर।
“कौन जला रहा है वहाँ?” उसने सोचा।
और उसी पल तय कर लिया —
कल वो अंधेरी गुफा जाएगा।
दूसरा अध्याय — लौटता साया
अगले दिन अरविंद अपने कैमरा, टॉर्च और रिकॉर्डर के साथ जंगल में गया।
हर कदम के साथ हवा भारी होती गई।
जैसे ही वो गुफा के पास पहुँचा, पेड़ों की शाखाएँ खुद-ब-खुद हिलने लगीं।
गुफा का द्वार वैसा ही था — काला, ठंडा, और बिना किसी आवाज़ के।
पर इस बार, दीवार पर खून से नहीं, नीले रंग से लिखा था —
“वापसी पर स्वागत है...”
अरविंद ठिठक गया।
“किसने लिखा ये?”
रिकॉर्डर ऑन किया — “यह अंधेरी गुफा है... मैं अंदर जा रहा हूँ...”
अंदर घुसते ही तापमान नीचे गिर गया।
हवा में नमी और फफूंदी की गंध थी।
दीवारों पर धुँधले चेहरे जैसे उभरे हुए थे — जैसे कोई अंदर से देख रहा हो।
अचानक रिकॉर्डर में आवाज़ आई —
"अरविंद..."
वो आवाज़ राजू की थी।
तीसरा अध्याय — आवाज़ों की गूँज
अरविंद ने टॉर्च घुमाई — लेकिन कोई नहीं था।
“भैया?” उसने पुकारा।
आवाज़ फिर आई, इस बार पास से —
"मुझे बाहर निकालो..."
दीवार से खून नहीं, पानी टपक रहा था — और उस पानी में एक चेहरा दिखा, राजू का।
वो ज़िंदा नहीं था, लेकिन आँखें खुली थीं।
“भैया, आप... आप अंदर कैसे?”
राजू की परछाई ने कहा —
“गुफा हमें नहीं छोड़ती... यह भूखी है... हर लौटने वाले को पकड़ लेती है।”
अरविंद पीछे हटा, पर दीवारें अब धीरे-धीरे बंद होने लगीं।
उसने बाहर भागने की कोशिश की, पर दरवाज़ा अब पत्थर बन चुका था।
चौथा अध्याय — गुफा की साँसें
अरविंद ने रिकॉर्डर गिरा दिया, और दीवार के सहारे बैठ गया।
अचानक उसके सामने एक सफेद साड़ी वाली औरत आई — वही जो बीस साल पहले राजू के दरवाज़े पर आई थी।
उसकी आँखें खाली थीं।
उसने कहा —
“मैंने रोका था तुम्हारे भाई को... अब तुम क्यों आए?”
अरविंद काँप गया, “मुझे सच जानना था।”
औरत बोली —
“सच ये है कि ये गुफा इंसानों को नहीं खाती... उनके पापों को खाती है। जो भी गर्व, जिद या लालच लेकर आता है... वो यहाँ रह जाता है।”
अरविंद ने कहा — “मैं तो बस अपने भाई को ढूंढने आया हूँ।”
औरत मुस्कुराई — “तो फिर रह जाओ... क्योंकि वो यहीं है।”
उसके इतना कहते ही गुफा की ज़मीन काँपने लगी।
दीवारों से चीखों की लहरें उठीं।
अरविंद के कानों से खून निकलने लगा।
पाँचवाँ अध्याय — आखिरी रिकॉर्डिंग
गाँव के लोग दो दिन बाद जंगल में पहुँचे।
उन्हें बस अरविंद का रिकॉर्डर मिला।
जब रिकॉर्डर चलाया गया, उसमें सिर्फ आवाज़ें थीं —
पहले उसके कदमों की, फिर राजू की धीमी हँसी,
और आखिर में... अरविंद की काँपती आवाज़ —
“अगर कोई इसे सुने... तो वहाँ मत आना...
वो अब सिर्फ गुफा नहीं... वो ज़िंदा है...
और वो मेरा नाम जानती है...”
रिकॉर्डर खुद-ब-खुद बंद हो गया।
अंत — गुफा का इंतज़ार
अब गाँव में हर रात, उस पहाड़ी पर फिर वही नीली रोशनी जलती है।
लोग कहते हैं —
वो राजू और अरविंद नहीं, बल्कि गुफा खुद है जो अपने अगले मेहमान का इंतज़ार कर रही है।
कभी-कभी, हवा में कोई आवाज़ सुनाई देती है —
"आओ... अंदर अंधेरा ही सच्चाई है..." 🌑
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“अंधेरी गुफा” अब किसी जगह का नाम नहीं रहा —
वो अब हर उस दिल में बस गई है, जो सच जानने की ज़िद करता है…