उस रात रावी तट के उस गाँव में शिशिर की खुली बयार बह रही थी, और मंजीत और रागिनी अपने घर की छत पर बरसाती में बैठे नदी का सुंदर बहाव देख रहे थे। जबकि, आकाश में चमकते चाँद की आवारा चाँदनी बरसाती में घुसी पड़ रही थी।
बात करते-करते रात काफी गहरी हो चुकी थी। ओस-कण बरसाती की पॉलीथिन पर टपक रहे थे, और हवा में ठंडक घुल गई थी। माहौल में नींद का आलम छाने लगा था। रागिनी ने जमुहाई ले, आलस्य में कहा, 'मंजी, चलो अब नीचे चलें, नींद बुला रही है...'
मंजीत इसी पल की प्रतीक्षा कर रहा था। उसने रागिनी का हाथ पकड़ उसे उठाया और दोनों धीरे-धीरे सीढ़ियों से उतर कर अपने साधारण से कमरे में आ गए। कमरे में मिट्टी का एक छोटा सा दिया जल रहा था, जिसकी मद्धिम रोशनी दीवारों पर नरम छायाएँ बुन रही थी। फर्श पर एक ओर पानी का घड़ा और उस पर पारे के ऊपर एक गिलास रखा था तो दूसरी ओर एक छोटी मेज, उस पर कुछ किताबें, और आगे एक स्टूल पड़ा था।
दीवार पर एक छोटा दर्पण और कैलेंडर टँगा था, और दूसरे छोर पर दीवार में बनी अलमारी से सटी लकड़ी के तख्त की एक छोटी सी शैया थी, जिस पर साधारण से गद्दे के ऊपर सफेद चादर बिछी थी, पैताने तह किया हुआ कम्बल रखा था, नीचे चटाई पड़ी थी। प्रवेश करने के बाद मंजीत ने यद्यपि बड़ी सावधानी से कमरे की किवाड़ी बंद की मगर उसकी धीमी चरमराहट भी रागिनी के कानों ने सुन ली, और उसके दिल में एक प्यारी-सी हिलोर उठ खड़ी हुई जैसी कि भजन-गायन संग वाद्ययंत्रों से उठती थी।
भीतर आकर वह स्टूल पर बैठ गई। नजर दीये की लौ पर टिकी थी, जो रोशनदान से आती हवा के झोंके से हल्के-हल्के डोल रही थी। फिर दूसरी ओर गई तो दीवार में सीने के बराबर एक टांड़ दिखा, जिस पर एक बक्सा और छुटपुट बर्तन रखे थे। उसी के नीचे झाड़ू और एक छोटा-सा कूड़ादान। वह संतुष्ट हो गई कि आवश्यकता पूर्ति हेतु इतना पर्याप्त है। साधुचर्या में रहने से वह मिताभ्यासी हो गई थी। यह सब वह अभी देख और सोच ही रही थी कि मंजीत ने जोड़ा, 'सुबह दिखाऊंगा, घर में एक छोटा सा किचन भी है और बगियानुमा आंगन भी।'
सुनकर वह केवल मुस्कुराई। जैसे कहती हो, जहां तुम हो, वहां सब कुछ...।
आज मंजीत उसे अपने पास पाकर और उसकी संतोषमयी मुद्रा देखकर कितना प्रफुल्लित था, यह तो उसका दिल ही जानता था। कुछ देर बाद उसने अपनी पगड़ी उतार कर बड़े जतन से बक्से में रख दी और आलमारी से वस्त्र उठाकर बदल लिए। फिर वह घूमा और उसकी नजरें उस पर टिक गईं। निसंदेह, उनमें एक लालसा उभर आई थी। उसे यकीन था कि जब किसी स्त्री की ऊर्जा किसी पुरुष की ऊर्जा से गहरे सामंजस्य में मिलती है, तो कुछ ऐसा घटता है जो पारलौकिक होता है। यह केवल दो शरीरों का मिलन नहीं होता— यह दो ग्रहों का एक लय में विलय होना होता है। उसने धीरे से रागिनी का हाथ थामा और कहा, 'चलो!' रागिनी भी तुरत उठ गई जैसे इसी पहल की प्रतीक्षा में थी। मगर मंजीत की आशा के प्रतिकूल वह चटाई पर लेट गई।
'यहां क्यों?' उसने बड़ी बेकरारी से पूछा।
रागिनी बोली नहीं, मुस्कुराती रही।
मंजीत का दिल डूब गया। उसे समझ पाने में असमर्थ वह शैया पर जाकर निढाल हो गया...। यह बड़े अचरज की बात थी कि आज करीब होते हुए भी उसे विरह की तपन महसूस हो रही थी। रात पहले ही काफी गुजर चुकी थी, और रही-सही भी अब तेजी से गुजरी जा रही थी...। फालतू गुजरते एक-एक पल के साथ मंजीत के दिल की चुभन बेहद तीखी हुई जा रही थी।
जब रहा न गया, वह शैया से उतर चटाई पर करवट लिए अपनी धोती ओढ़े अधसोई रागिनी के बगल में आकर बैठ गया। आहट पा वह भी उठ बैठी, 'क्या हुआ, तुम सोए नहीं...?'
मंजीत उसकी ड्रेस को लक्ष्य कर बोला, 'तुम साध्वी हो, मैं सेवक। मैं ऊपर लेटूं, तुम नीचे। यह तो पाप है।'
'इसमें पाप-पुण्य क्या मंजीत? हम लोगों की तो दिनचर्या यही है... मिल जाये सो स्वादिष्ट-गैर स्वादिष्ट भरपेट-अधपेट खा लेना, मिल जाये जो सूती-सफेद, मोंटा-झोंटा सो, पहन लेना और नंगे पाँव पैदल चलना। धरती बिछोना, अंबर ओढ़ना!'
सुनकर वह आहत हो गया, बोला, 'पर अब तुम मंजीत के घर में हो। जो मैं खाऊंगा, खिलाऊंगा। जैसे रहूंगा, रखूंगा। नहीं तो मुझे पाप लगेगा।' कहते आवेग में आ, बाहों में भरकर उठा पलंग पर लिटा दिया। और उसके बाद पैताने रखा कम्बल भी ओढ़ा दिया। मगर जब खुद भी उसमें घुसने लगा, रागिनी झिझकती-सी उठ बैठी।
मंजीत अधीर, 'एह दूरी हुन ते कदों तक...?' उसे क्वार्टर के वहिष्कार से अब तक के सारे पल-छिन याद हो आये।
'दूरी कित्थे आतमा तोँ आतमा दी की दूरी... पर अहिंसा दा पालन करन लई देह दी दूरी ताँ रखणी पवेगी!' वह विहँसती-सी बुदबुदाई।
'फेर की फायदा!' मंजीत का दिल फिर एकबारगी आँधी के दीये-सा बुझ गया। और वह मायूस हो, पलँग से उठ चटाई पर जा लेटा, जहां ओढ़ने को कम्बल भी न था। उम्मीद तो नहीं थी, पर थोड़ी देर में जब रागिनी भी कम्बल लिए वहीं आ गई और उसे उढ़ा खुद भी ओढ़ करवट दे लेट गई तो उसके व्रत और प्रेम से मुतासिर मंजीत का दिल भर आया। मन ही मन वह अपने मन को समझाने लगा कि- तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या, मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं...! मगर यह समझाना स्थायी न हुआ क्योंकि नींद के एक चक्र के बाद दोनों ने एक दूसरे की ओर करवट बदल ली। यहां तक कि सोते-सोते वे गुत्थमगुत्था हो गए। रागिनी ने अपनी टांग उठाकर उसकी कमर में डाल ली और मंजीत ने अपना चेहरा उसके सीने में दे लिया।
यों जब ओठ कुचाग्र दबाने लगे और कमर में कटार गढ़ने लगी दोनों की नींद उचट गई। मगर रागिनी संभलती इसके पहले ही मंजीत ऊपर आ गया। तब अवश-सी रागिनी ने थरथराते अधरों से कहा, 'मंजी, साधु अपने हाथ में हरदम पीछी रखते हैं...'
'हां-तो!' उसने घूंट-सा भरते हुए कहा।
'जीवों की रक्षा के लिए...'
'हां, तो...' उसकी साँस अटक गई।
'माताजी ने कहा था- प्रेम को अहिंसा का पालन करते हुए पाना है!'
सुनकर पेट में जाड़ा घुस गया कि प्रेम तो समागम के चरम पर ही पाया जा सकेगा। और सनागम में जीव तो निकलेंगे, और घर्षण से नष्ट भी होंगे! फिर भी घिघियाता-सा समझाने लगा, 'साध्वी जी, धर्म में तो वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति काय के जीव की हिंसा को भी भयंकर हिंसा माना गया है, क्योंकि ये जीव जाने-अनजाने हर पल मरते ही रहते हैं। श्रावक-श्राविका तो रोज लाखों-करोड़ों सूक्ष्म जीवों की हिंसा के भागी बनते हैं। क्योंकि साँस लेने, चलने-फिरने, खाना बनाने-खाने और पानी पीने तक में हिंसा होती है; फिर जिया कैसे जाय?'
रागिनी निरुत्तर हो गई। दिल धड़क तो रहा था, पर उस पर पत्थर रख कमर उसके नीचे से खींच ली उसने... और मंजीत बिलख कर रह गया। ...फिर रागिनी तो सो गई मगर मंजीत की नींद सदियों दूर भाग गई थी। भयंकर डिप्रेशन का शिकार वह घर से निकलकर रावी किनारे आ गया।
जब वह वहाँ पहुँचा, रात अपनी जवानी पर पहुँच गई थी। वियोग के दिनों में ऐसी रातों को रावी तट पर मंजीत ने अक्सर उतरते देखा था... कि जब वो आती, सचमुच एक जवान औरत की तरह आती। धीरे-धीरे कपड़े उतारते—
सबसे पहले अपना दुपट्टा फेंकती जब सूरज की आखिरी किरणें लालिमा लिए आसमान पर बिखर जातीं। उसके बाद वो चुनरी खोलती और संध्या का गहरा बैंगनी रंग चारों तरफ़ बिखर जाता। फिर अपनी चोली ढीली करती; गोधूलि की हल्की ठंडक हवा में घुल जाती। और फिर धीरे-धीरे अपना आँचल सरकाती, चाँदनी उसकी गोरी छाती पर लज्जा बन कर ढलक उठती...। जब वो पूरी तरह निर्वस्त्र हो जाती, तो उसकी काली जुल्फ़ें आकाश में फैल जातीं, तारे उसके गले का हार बन जाते, और कभी-कभी झूमकर उसकी मांग में चमक उठते! और जब वो उत्तेजना में पूरी तरह सुलग उठती, तो उसकी देह में बिजलियाँ चमकने लगतीं, बादल गरजने लगते... फिर वो झरती, बारिश बन कर।
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