अन्वेषा अब वहां नहीं थी ।
हवेली के सबसे पुराने हिस्से में एक दीवार के पीछे, एक छुपा हुआ दरवाज़ा था, जो किसी ने दशकों से नहीं खोला था। अपूर्व उस दरवाज़े के सामने खडा था, उसके हाथ काँप रहे थे, और दिल धडकन की जगह विस्फोट कर रहा था।
और अचानक ही दरवाज़ा खुद से खुल गया।
न कोई चाबी, न कोई धक्का।
जैसे किसी ने भीतर से खोल दिया हो।
भीतर... अंधेरा नहीं था, बल्कि हल्की नीली रोशनी थी, जैसे आत्माओं की साँसें दीवारों में बसी हों।
अपूर्व सीढिया उतरता गया।
हर कदम पर दीवारों से आवाज़ें आती थीं।
“बेटा… वापस मत जा…”
“तू भी ग़लतियाँ दोहराएगा?”
अचानक सामने एक आकृति उभरी - उसकी माँ के ।
उसी कश्मीरी शॉल में, जिसमें अपूर्व ने उसे आख़िरी बार देखा था।
“माँ?”
उसने काँपती आवाज़ में कहा।
“अपूर्व,” उसकी माँ ने कहा, “मैं मरी नहीं थी… । इस हवेली की सच्चाई जानने के बाद मेरी हत्या कर दी गई थी ।”
अपूर्व भौंचक्का रह गया।
उसने पूछा - “ क.. क ..किसने?”
उसकी माँ ने जवाब दिया - “जिससे तू सबसे ज़्यादा भरोसा करता है…”
अपूर्व आगे कुछ और पूछ ही रहा था लेकिन उसकी माँ जहां उसे खडी दिखाई दे रही थी, वहां अब तेज रोशनी फैली हुई थी, जो उसकी आँखों को चुभ रही थी ।
अपूर्व ने एक पल को आँखें बंद कर ली और जब उसने आँखें खोली तो, सामने अन्वेषा खडी थी—लेकिन अब वो अन्वेषा नहीं, जैसे रुख़साना बन चुकी थी।
उसकी चाल बदल चुकी थी—धीमी, दर्द से भरी। आँखों में अब वर्तमान की चमक नहीं, अतीत की राख थी।
उसने अपूर्व से कहा - “मैं यहाँ रुक गई थी, अपूर्व… उसी पल, जब नासिर मारा गया था। मेरी रूह को ना सज़ा मिली, ना मुक्ति।”
अपूर्व हैरानी से उसे देखने लगा ….
तभी रुखसाना ने आगे कहा - “और तू… आग़ाज़ का पुनर्जन्म है … तू क्यों आया है यहाँ?”
अपूर्व ने हाथ जोडा दिए और कहा - “माफ़ी माँगने… और तुम्हें मुक्ति देने।”
रुख़साना हँसी—वो हँसी नहीं थी, वो एक तडप थी।
वो बोली - “मुक्ति?.... एक तवायफ को मुक्ति कौन देता है, साहब?”
अपूर्व बोला - “तुम सिर्फ़ तवायफ नहीं थी। तुम प्यार करती थीं।”
अचानक पूरा तहख़ाना हिल उठा।
छत से धूल गिरी। दीवारों से खून रिसने लगा।
और तभी एक तीसरी परछाईं आई—काली, धुँधली, और उसके चेहरे पर नकाब था।
और उसे देखते ही अपूर्व की सांस घुटने लगी । कुछ ही देर में वो लडखडा कर गिर पड़ा ।
…जब वह उठा… चारों तरफ़ शांति थी।
दीवारें शांत थीं। हवेली शांत थी।
और सामने खडी थी फरजाना की परछाई
उसने अपूर्व को देखा—प्यार से, डर से नहीं।
अपूर्व ने पूछा - “क्या सब ख़त्म हो गया?”
फरजाना ने कहा - “नहीं, अब सिर्फ़ शुरुआत है… तुम्हारी, अन्वेषा … और इस हवेली की एक नई कहानी की।”
अब अपूर्व के चारों ओर की हवा ठंडी नहीं, गवाही दे रही थी — किसी बीते दौर की।
उसने जैसे ही फरजाना के दिए नक़्शे को फिर से देखा, उसके सामने की ज़मीन हिलती-सी लगी।
एक पल को अंधेरा छाया... और वो फिर से वहां था— आगाज के महल में …
चारों ओर नक्काशीदार दीवारें, शीशों से सजी छत और हल्की रौशनी में चमकती लाल साडी ।
बाज़ों में गूँजती सारंगी और मद्धम ताल पर थिरकती —रुख़साना।
अपूर्व चौंका नहीं, उसे अब समझ आ रहा था कि ये सपना नहीं... उसके पिछले जन्म की यादें है ।
रुख़साना के पाँव घुंघरुओं में बंधे थे, पर उसकी आत्मा... उससे कहीं ज़्यादा जकडी हुई थी।
वो कह रही थी, जब कोई रईस उसकी बोली लगाने आता , “तवायफ हूँ मैं... मगर बाज़ार नहीं हूँ,”
और उसी शाम, जब पहली बार आग़ाज़ खान उस कोठे पर आया था—तो बाकी सब चुप हो गए थे।
उसकी आँखों में खून था, और दिल में ताजगी।
रुखसान ने मुस्कुरा कर पूछा था - "तुम कौन हो?"
आगाज ने कहा - "जिस्म को नहीं, रूह को देखने आया हूँ,"
रुख़साना की हँसी थम गई थी। क्योंकि पहली बार... किसी ने उसकी आँखों से उसका नाम पढा था।
अपूर्व इस दृश्य को देख रहा था।
वह अब जान रहा था कि रुख़साना एक मजबूरी थी।
आगाज खान के कर्ज़ में जकडा उसका परिवार, और कोठे की हवेली में पली-बढी ज़िंदगी।
पर रुख़साना की आत्मा में विद्रोह था। वो नाचती थी, गाती थी... पर बिकती नहीं थी।
आग़ाज़ खान भी उसे चाहता था, लेकिन उसके पीछे विरासत की तलवार लटक रही थी।
एक रात, जब आग़ाज़ ने कहा —
"रुख़साना, चलो... मेरे साथ। मैं तुम्हें इस तवायफख़ाने से निकाल लाऊँगा।"
रुख़साना ने जवाब दिया —
"मैं चल तो दूँ, मगर क्या तुम मुझे अपनी बेग़म बना सकोगे?
क्या तुम्हारी रियासत मुझे स्वीकार करेगी ?"
आग़ाज़ चुप रह गया था।
और वही चुप्पी... उसके प्रेम की कब्र बन गई।
एक दिन जब रुख़साना को हवेली से गायब पाया गया, तो अफ़वाह फैली—
"उसे किसी ने क़त्ल कर दिया..."
पर हक़ीक़त?
हक़ीक़त ये थी कि रुख़साना को एक गुप्त तहख़ाने में बंद कर दिया गया था —
आग़ाज़ के परिवार की ‘इज़्ज़त’ बचाने के लिए।
जिसने उससे वादा किया था, उसी ने उसे दफ़नाया।
अपूर्व ने चीख़कर आँखें खोलीं।
वो अब फिर से हवेली में था।
उसकी साँस तेज़ चल रही थी।
उसके सामने फरजाना खडी थी, आँखों में आँसू... लेकिन चेहरे पर सच्चाई।
उसने कहा - “अब जान गए न,”
“रुख़साना केवल एक तवायफ नहीं थी…
वो आग़ाज़ खान के वादों की मारी एक रूह थी।
और तुम्हारी रगों में वही आग़ाज़ का ख़ून है, अपूर्व।”
अब हवेली अब शांत थी। उतनी ही खामोश जितनी एक तूफ़ान से पहले होती है।
अपूर्व ज़मीन पर बैठा था, फरज़ाना अब कहीं नहीं थी। नक़्शा भी बुझ चुकी रोशनी में घुल गया था।
लेकिन वो जान चुका था — रुख़साना की मौत एक प्रेमघात थी, और उसकी माँ की हत्या... एक रहस्यघात।
वो उठा, और सबसे पहले उस कमरे की ओर गया जहाँ उसकी माँ अक्सर अकेली बैठती थीं — हवेली की ऊपरी मंज़िल पर एक पतले गलियारे के आख़िर में, वो पुराना कमरा जिसकी दीवारों में पुरानी किताबें, अधजले काग़ज़, और कुछ ऐसे पत्र छिपे थे जिन्हें कोई और पढ न सका।
उसने अलमारी को सरकाया — पीछे एक छेद जैसा कुछ था।
एक पुराना ट्रंक।
ट्रंक खोला — और उसमें उसे एक डायरी मिली ।
उसके पन्ने पीले थे , पर अक्षर साफ़ ।
“आज मैंने उस तहख़ाने का हिस्सा देखा जिसे हवेली का कोई सदस्य जानबूझकर छिपाता है। वहाँ कुछ बंद है... कोई औरत की चीख़... या कोई माफ़ न किया गया इतिहास। मुझे डर लग रहा है। लेकिन मैं यह बात अपूर्व को नहीं बता सकती।”
अपूर्व का कलेजा बैठ गया।
ये उसकी माँ की लिखावट थी।
अचानक—पीछे से आहटआई ।
वो पलटा।
अन्वेषा उसके पीछे खडी थी। पर चेहरा बदला हुआ—कठोर, अविश्वासी।
उसने पूछा - "तुम उस ट्रंक तक पहुँच गए?"
अपूर्व ने डायरी छिपा ली।
उसने कहा - "हाँ। माँ को मारा गया था, और मैं जानना चाहता हूँ किसने किया।"
अन्वेषा की आँखों में कुछ काँपा। फिर वो मुस्कुराई—लेकिन वो मुस्कान वो नहीं थी जो पहले थी।
अन्वेषा ने रहस्यभरी आवाज में कहा - "तुम जो खोद रहे हो, अपूर्व... वो तुम्हें भी दफ़न कर देगा। तुम्हारी माँ ने भी यही ग़लती की थी।"
"क्या मतलब?" अपूर्व ने पीछे हटते हुए पूछा।