Love: What I didn't get, but I didn't let go of it either. in Hindi Love Stories by Hemant Bhangawa books and stories PDF | प्रेम : जो मिला भी नही, पर छोड़ा भी नही

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प्रेम : जो मिला भी नही, पर छोड़ा भी नही

भूमिका

प्रेम संसार की सबसे शांत अनुभूति है। यह शोर नहीं करता, दावा नहीं करता, और न ही किसी प्रमाण का मोहताज होता है।

कुछ प्रेम ऐसे होते हैं जो साथ चलकर जीवन बन जाते हैं, और कुछ प्रेम ऐसे होते हैं जो साथ न होकर भी पूरे जीवन की दिशा तय कर देते हैं।

यह अध्याय उसी प्रेम के लिए है जो न तो पूरी तरह मिला, और न ही कभी छोड़ा जा सका। यह उस प्रेम की कथा नहीं है जो टूटकर बिखर गया, बल्कि उस प्रेम की अनुभूति है जो दूरी में भी जीवित रहा, मौन में भी पवित्र रहा और समय के हर प्रहार के बाद भी हृदय में दीपक की तरह जलता रहा।

राधे राधे

1. प्रेम का अर्थ : पाना नहीं, निभाना

अक्सर हम प्रेम को पाने से जोड़ देते हैं। जिसे पा लिया — वही प्रेम, और जिसे न पा सके — वह अधूरा।

पर सच्चाई यह है कि प्रेम पाने से नहीं, निभाने से पहचाना जाता है।

कई बार परिस्थितियाँ साथ नहीं देतीं, समय विपरीत हो जाता है, समाज, दूरी, जिम्मेदारियाँ दो लोगों को अलग दिशाओं में खड़ा कर देती हैं। लेकिन यदि उस दूरी के बाद भी मन में सम्मान बचा रहे, दुआ बची रहे, और किसी के लिए बुरा न चाहा जाए — तो वही प्रेम सच्चा है।

2. जो मिला नहीं, फिर भी अपना रहा

कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिनका नाम नहीं होता, पर उनका अस्तित्व जीवन भर रहता है। ना वे पति–पत्नी बन पाते हैं, ना जीवनसाथी कहलाते हैं, फिर भी मन के सबसे गहरे कोने में उनका स्थान सुरक्षित रहता है।

वह प्रेम जो मिला नहीं, वह शिकायत नहीं करता। वह यह नहीं पूछता कि “मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ ?” वह बस चुपचाप अपने हिस्से का दर्द उठाता है और सामने वाले के सुख की कामना करता है।

3. दूरी में भी शुद्ध रहने वाला प्रेम

सच्चा प्रेम दूरी से कमजोर नहीं होता। कमजोर होते हैं वे रिश्ते जो केवल साथ रहने से जीवित रहते हैं। जब प्रेम आत्मा से जुड़ा हो, तो दूरी केवल शरीर की होती है, मन की नहीं। ऐसा प्रेम संपर्क में न रहकर भी सम्मान में बना रहता है, स्मृतियों में नहीं, संस्कारों में बस जाता है।

सच्चा प्रेम पास होने का नाम नही है, सच्चा प्रेम तो वह है जो दूरी मे भी अपवित्र न हो । जहाँ शरीर दूर हों, पर विचार न भटके। जहाँ आँखें किसी और को देख लें, पर मन आज भी उसी एक नाम पर ठहर जाए। दूरी में रहने वाला प्रेम अपने आप को रोज़ परखता है - कि मैं आज भी उसी के लिए पवित्र हूँ या नहीं। जो प्रेम दूरी में भी स्वयं को बचा ले, वही प्रेम ईश्वर के सबसे निकट होता है।

4. प्रतीक्षा जो थकाती नहीं

यह प्रेम प्रतीक्षा करता है, पर थकता नहीं। ना रोज़ किसी संदेश की उम्मीद, ना किसी वादे का दबाव। बस एक शांति भरी प्रतीक्षा — कि यदि इस जन्म में नहीं, तो शायद किसी और रूप में ईश्वर फिर मिला दे।

और यदि कभी न भी मिले, तो भी मन कह सके — “मैंने प्रेम किया था, कोई सौदा नहीं।”

5. प्रेम और त्याग का संबंध

जहाँ स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं प्रेम प्रारंभ होता है। कभी-कभी किसी को छोड़ देना उसे खो देना नहीं होता,

बल्कि उसे उसके भाग्य की राह पर सम्मान के साथ जाने देना होता है।

ऐसा प्रेम खुद टूटकर भी दूसरे को टूटने नहीं देता।

जहाँ प्रेम है, वहाँ त्याग अपने आप जन्म लेता है। और जहाँ त्याग नहीं, वहाँ प्रेम केवल चाहत बनकर रह जाता है। सच्चा प्रेम पाने से नहीं, छोड़ने की क्षमता से पहचाना जाता है। कभी अपने शब्द छोड़ने पड़ते हैं, कभी अपनी ज़िद, और कभी अपने अधिकार । प्रेम कहता है - "अगर मेरा होना तुम्हें रोकता है, तो मेरा पीछे हट जाना ही मेरी सच्चाई है।” यही त्याग, प्रेम को साधना बना देता है।

6. समय के साथ प्रेम का परिपक्व होना

समय बीतता है, चेहरे बदलते हैं, जिम्मेदारियाँ बढ़ती हैं। पर जो प्रेम सच्चा होता है, वह रूप बदल लेता है, पर मरता नहीं। वह कभी प्रार्थना बन जाता है, कभी मौन आशीर्वाद, और कभी भीड़ में भी अकेले मुस्कुरा देने का कारण।

7. समाज और सच्चा प्रेम

समाज सफल प्रेम को मानता है, पर पवित्र प्रेम को नहीं। सफलता का पैमाना साथ होना है, जबकि पवित्रता का पैमाना भाव की शुद्धता है।

जो प्रेम बदनाम न हो, जो किसी का घर न तोड़े, जो किसी की मर्यादा न लांघे — वही प्रेम ईश्वर के सबसे निकट होता है।

आज का समाज वो समाज है जिसमे अपने ही साथी की अर्थी का कन्धा बनाना पसन्द कर लेता है मगर किसी को सफल होने नही देता।

8. स्मृति नहीं, संस्कार बन जाना

कुछ लोग याद बनकर चुभते हैं, और कुछ संस्कार बनकर सँवारते हैं। जो प्रेम तुम्हें और बेहतर मनुष्य बना दे, और अधिक शांत कर दे, वह भले मिला न हो — पर व्यर्थ भी नहीं गया।

कुछ प्रेम यादों में नहीं रहते, वे संस्कार बन जाते हैं। हर निर्णय में, हर मौन में, हर सही-गलत के मोड़ पर वही प्रेम भीतर से बोलता है। ऐसा प्रेम भुलाया नहीं जाता, क्योंकि वह याद नहीं - वह तो मन की प्रकृति बन जाता है। समय बदल जाता है, लोग बदल जाते हैं, पर वह प्रेम मन की भाषा बनकर हमेशा साथ चलता है।

9. प्रेम का मौन धर्म

यह प्रेम चुप रहता है। किसी से शिकायत नहीं करता, किसी से तुलना नहीं करता। यह बस इतना जानता है कि यदि वह सुखी है, तो मेरा प्रेम सफल है।

सच्चा प्रेम ज़्यादा बोलता नहीं, वह मौन में खड़ा रहना जानता है। अपनी पीड़ा का प्रदर्शन नहीं करता, और अपनी पवित्रता का प्रचार भी नहीं। वह चुपचाप सह लेता है, चुपचाप प्रार्थना करता है, और चुपचाप उस एक के लिए सही बना रहता है। प्रेम का सबसे बड़ा धर्म यही है - कि वह शोर न करे, किसी को दोष न दे, और फिर भी भीतर से टूटे नहीं।

10. अध्याय का सार

प्रेम का उद्देश्य साथ रहना नहीं, शुद्ध रहना है। जो प्रेम मिला नहीं, पर छोड़ा भी नहीं गया — वही प्रेम अहंकार से मुक्त, अपेक्षा से परे और ईश्वर के सबसे समीप होता है।

लेखक परिचय

लेखक : हेमन्त भनगावा

राधे–राधे के दिव्य भाव में डूबी मेरी लेखनी का उद्देश्य मन को इतना साफ कर देना है कि उसमें भगवान का प्रेम स्वाभाविक रूप से प्रतिबिंबित होने लगे।