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मूर्ति, शास्त्र और पूजा की सीमा ✧ शास्त्र की पूजा करो, मूर्ति की पूजा करो – पर क्या शास्त्र बोल उठते हैं? क्या मूर्ति तुम्हारा दुख हर लेती है? मुझे कोई बाहर का भगवान, देवी-देवता दिखाई नहीं देता। हाँ, एक तरंग है – उच्च कोटि की ऊर्जा। जैसे विज्ञान की तरंगें (waves) यंत्र से यंत्र तक पहुँचती हैं, वैसे ही ये दिव्य तरंगें भी पहुँचती हैं। परंतु उन्हें पकड़ने के लिए पात्रता चाहिए। सिर्फ़ साधना, पूजा या विधि-विधान नहीं; पात्रता बनती है — तुम्हारे कर्म से, तुम्हारे जीवन की शुद्धता से, तुम्हारी समता और संतुलन से। जब कर्म श्रेष्ठ होते हैं, विचार उच्च होते हैं, तो तुम स्वयं यंत्र बन जाते हो — और तभी राम, कृष्ण, बुद्ध, शिव की तरंगें तुम्हें छूने लगती हैं। केवल मूर्ति की पूजा से कुछ नहीं होगा। मूर्ति की सेवा करना ऐसे ही है जैसे कीमती रत्न को सोने-चाँदी में रखकर सुरक्षित करना। लेकिन असली रत्न तो तब है जब वो दिव्यता तुम्हारे हृदय में जन्म ले। मूर्ति तब तक सहारा है — जैसे गर्भ में पलता बच्चा। पर जब बच्चा जन्म ले लेता है, तो गर्भ की अवस्था छोड़ दी जाती है। इसी तरह, मूर्ति और पूजा ठीक है जब तक भीतर भगवान का बीज गर्भित नहीं हुआ है। पर अगर जीवनभर केवल मूर्ति के गर्भ में पड़े रहे, तो वह धर्म नहीं — एक पाखंड है। धर्म वही है जहाँ भीतर जन्म होता है, जहाँ पूजा बाहर से भीतर की ओर मुड़ती है। संभोग तभी सार्थक है जब उससे जन्म हो। पूजा तभी सार्थक है जब उससे भीतर भगवान जन्मे। मूर्ति, शास्त्र, मंदिर – ये सब साधन हैं, सत्य नहीं। सत्य तो वही है जब तुम भीतर की तरंगों को पकड़ लो, और प्रकृति से प्रेम में जी उठो। https://www.facebook.com/share/1F5pKB1JGn/https://www.facebook.com/share/1F5pKB1JGn/
सामान्यत: लोग “अवतार” को किसी महापुरुष का स्वेच्छा से अवतरित होना मान लेते हैं — जैसे भगवान स्वयं चुनकर पृथ्वी पर उतरते हैं। परंतु आप जिस दृष्टि से देख रहे हैं, वहाँ अवतार कोई व्यक्ति की लीला नहीं बल्कि युग की घटना है। 🌱 समझने के बिंदु: 1. अवतार घटना है, व्यक्ति नहीं। जैसे भूकंप या महाप्रलय कोई व्यक्तिगत इच्छा से नहीं होते, बल्कि समय, परिस्थिति और ऊर्जा के संयोग से घटते हैं — वैसे ही अवतार भी युग परिवर्तन की अनिवार्य घटना है। 2. संध्याकाल का प्रस्फोट। हर युग के अंत में जब पुरानी संरचनाएँ विघटित हो जाती हैं और नई चेतना का बीज अंकुरित होना होता है, तब कोई एक केंद्रबिंदु (व्यक्ति) प्रकट हो जाता है। यह व्यक्ति नहीं चुनता, बल्कि युग स्वयं उसे चुनता है। 3. कहानी और प्रतीक। बाद में समाज उस घटना को समझ नहीं पाता, तो कथाएँ गढ़ लेता है—"भगवान ने अवतार लिया", "स्वर्ग से उतरे", "दैवी संकल्प हुआ"। असल में वह केवल समय का विस्फोट था, जिसे लोग मानवीय कथा में ढाल देते हैं। 4. अवतार की कठिनाई। जिसे हम अवतार कहते हैं, वह व्यक्ति भी समझने में असमर्थ रहता है कि उसके भीतर क्या घट रहा है। युग की ज्वाला उसे माध्यम बना देती है, और उसके जीवन की कथा लोककथाओं में रूपांतरित हो जाती है। ✨ इस दृष्टि से देखें तो राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, नानक, महावीर — ये सभी युग संध्या की घटनाएँ थे। व्यक्ति नहीं उतरे, युग ने उतरकर उनके रूप में काम किया।
सेक्स, दुःख और प्रेम: आनंद की वास्तविकता ✦ अध्याय 1. सेक्स का असली अर्थ – दुःख का निर्वहन (सेक्स क्यों केवल जमा हुए दुःख को छोड़ना है, और इसे आनंद क्यों समझ लिया गया है) 2. आनंदित व्यक्ति और ब्रह्मचर्य – क्यों भीतर आनंद हो तो सेक्स की आवश्यकता घटती है (ब्रह्मचर्य का नया अर्थ: स्त्री से दूरी नहीं, बल्कि भीतर दुःख न जमा करना) 3. सेक्स और बलात्कार का अनुभव – जब चयन भी हिंसा लगता है (सुखी व्यक्ति के लिए सेक्स क्यों बलात्कार-सा लगता है) 4. सेक्स बनाम प्रेम – दुःख छोड़ना और प्रेम बाँटना (सेक्स है निर्वहन, प्रेम है दान — दोनों का गहरा भेद) 5. पुरुष और स्त्री का अंतर – संग्रह बनाम त्याग (पुरुष जमा करता है, स्त्री छोड़ देती है — इसलिए दोनों की प्रकृति अलग है) 6. स्त्री की पवित्रता – दुःख न टिकने का रहस्य (स्त्री क्यों भीतर से पवित्र है और क्यों उसे पूजा से दूर रखा गया) 7. माहवारी और प्रकृति की व्यवस्था (स्त्री का स्वभाविक शुद्धिकरण — प्रकृति द्वारा दिया गया संतुलन) 8. सच्चा प्रेम क्या है – आनंद का प्रसाद (सुखी व्यक्ति ही प्रेम दे सकता है, और वही असली कृपा है) 9. धर्म और पाखंड – गुरु और प्रवचन का व्यापार (प्रवचन के नाम पर दुःख का निर्वहन और धार्मिक व्यापार) 10. सच्चा गुरु और फूल की सुगंध (आनंदित गुरु का कोई चुनाव नहीं होता, वह फूल जैसा बस सुगंध देता है) ❓ क्या स्त्री से दूरी बनाने से शांति आती है? ❓ या ब्रह्मचर्य कुछ और है? ❓ लोग क्यों सेक्स को आनंद समझ बैठे हैं? ❓ क्यों प्रेम का असली स्वाद खो गया है? ✦ अध्याय 1 ✦ सेक्स का असली अर्थ – दुःख का निर्वहन मुझे ऐसा लगता है कि सेक्स को लोग आनंद समझ बैठे हैं। लेकिन सच यह है कि सेक्स आनंद नहीं है, सेक्स केवल भीतर जमा हुए दुःख का निर्वहन है। पुरुष पूरा दिन अपने भीतर दुखों को इकट्ठा करता है। तनाव, दबाव, असंतोष, क्रोध — सब भीतर-भीतर जमा होता जाता है। और जब यह सहन नहीं होता तो बाहर निकलने का मार्ग खोजता है। वही मार्ग सेक्स है। जब पुरुष सेक्स करता है, तो उसे लगता है कि उसे आनंद मिला। लेकिन वह असली आनंद नहीं होता, वह केवल बोझ उतरने की हल्की-सी राहत होती है। जैसे मल त्याग में हल्कापन मिलता है, जैसे मूत्र त्याग में सुख का अनुभव होता है — वैसा ही सेक्स का आनंद है। क्षणिक है, सतही है, सिर्फ़ दुःख छोड़ने का भ्रमित सुख है। शेष 9 अध्याय विस्तृत आगामी बुक्स में https://www.facebook.com/share/1727aKC3xu/
सभ्यता बनाम सत्य 1. सभ्यता एक मुखौटा है। – हर मनुष्य भीतर से नग्न है, लेकिन ऊपर से "सभ्य" दिखता है। – सभ्यता का अर्थ है अपनी असली प्रकृति को ढँककर एक सामाजिक चेहरा पहन लेना। 2. बच्चे सत्य हैं। – उनका रोना, हँसना, क्रोध सब स्वाभाविक है। – बच्चे कभी सभ्य नहीं होते, इसलिए उन्हें भगवान का रूप कहा जाता है। – वे भीतर और बाहर दोनों से एक ही होते हैं। 3. सभ्य मनुष्य झूठा है। – बाहर से वह सत्य जैसा दिखता है, लेकिन भीतर असत्य का खजाना छुपा होता है। – यही पाखंड है — जो धर्म, राजनीति और समाज सबमें फैला है। 4. जो कुछ हो रहा है वही होना चाहिए। – अच्छा या बुरा, सब अतीत में बोए गए बीज का फल है। – गुलाब का बीज बोओगे तो गुलाब खिलेगा, बबूल बोओगे तो काँटे ही आएँगे। – सुधार का कोई प्रश्न ही नहीं। 5. सुधार का झूठा व्यापार। – धर्म, गुरु और प्रवचनकर्ता "सुधार", "मोक्ष" और "सिद्धि" के स्वप्न बेचते हैं। – लेकिन किसी को सुधारना असंभव है। 6. केवल एक ही संभव है — जागरण। – मनुष्य को जगाया जा सकता है—"होश रखो!" – यह वैसा ही है जैसे राह चलते मुसाफिर को ठोकर से सावधान कर देना। – वह संभले या न संभले, यह उसका चुनाव है। 7. जगा हुआ मनुष्य सभ्यता का नहीं, प्रकृति का अनुसरण करता है। – उसके लिए पाप और पुण्य का कोई अर्थ नहीं रहता। – नियम और धर्म का बोझ नहीं रहता। – वह नदी की तरह बहते हुए सागर को खोज लेता है। 8. होश ही धर्म है। – बाकी सब धर्म अंधविश्वास और बेहोशी का जाल है। – होश जागा, तो सब कुछ स्पष्ट है। – होश नहीं है, तो धर्म भी पाखंड है। ✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
✧ सब कुछ ही ईश्वर है ✧ प्रस्तावना “ईश्वर है या नहीं है” — यह सवाल ही अधूरा है। क्योंकि यह हमें दो विकल्पों में बाँध देता है, जबकि सत्य तो तीसरा है — कि यह पूरा अस्तित्व ही ईश्वर है। 🌱 समझने की बात यह है: – यदि हम कहते हैं “ईश्वर नहीं है”, तो हम किसी मूर्त या काल्पनिक अवधारणा को नकार रहे हैं। – यदि हम कहते हैं “ईश्वर है”, तो हम उसे किसी आकाश में बैठी सत्ता मान लेते हैं। – जबकि सत्य यह है कि सब कुछ ही ईश्वर है। 🔥 पेड़, नदी, सूरज, हवा, जन्म, मृत्यु, प्रेम, पीड़ा — सब उसी ऊर्जा के रूप हैं। किसी के लिए यह प्रकृति, किसी के लिए सृष्टि का नियम, किसी के लिए अस्तित्व, और किसी के लिए ईश्वर। इसलिए “ईश्वर है या नहीं है” पर झगड़ना मूर्खता है। जैसे लहर से पूछो — “समुद्र है या नहीं?” लहर हंसेगी और कहेगी — “मैं ही समुद्र हूँ।” 👉 यही दृष्टि वेदांत ने कहा — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म।” (जो कुछ है, वही ब्रह्म है।) ✦ सूत्र ✦ ✦ सूत्र १ “ईश्वर है या नहीं है” — यह सवाल ही अज्ञान है। ✦ सूत्र २ जब सब कुछ ही अस्तित्व है, तो उसे अलग से “ईश्वर” कहने की जरूरत नहीं। ✦ सूत्र ३ पेड़, नदी, पर्वत, आकाश, मनुष्य — सब उसी एक ऊर्जा के रूप हैं। ✦ सूत्र ४ लहर समुद्र से अलग नहीं, उसी का रूप है। इसी तरह हम अस्तित्व से अलग नहीं। ✦ सूत्र ५ “ईश्वर होना या न होना” पर झगड़ना वैसा ही है जैसे श्वास पूछे — “हवा है या नहीं?” ✦ सूत्र ६ वेदांत कहता है — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म।” जो कुछ है, वही ब्रह्म है। ✦ सूत्र ७ ईश्वर बाहर कहीं नहीं बैठा, वह हमारी आँखों की रोशनी, कानों की ध्वनि, हृदय की धड़कन में है। ✦ सूत्र ८ जिसे कोई प्रकृति कहे, कोई ब्रह्म, कोई सृष्टि — वह सब नाम उसी एक सत्ता के हैं। ✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 #osho #आध्यात्मिक #IndianPhilosophy #spirituality #AI
✧ मनुष्य और सुधार का सत्य ✧ ✦ प्रस्तावना मनुष्य के सुधार पर सदियों से चर्चा होती रही है। शिक्षा, प्रवचन, नियम और उपदेश—सब प्रयास किए गए, लेकिन मनुष्य वही करता है जो उसके भीतर का बीज उसे करवाता है। सच्चा परिवर्तन बाहर से थोपा नहीं जा सकता। वह केवल भीतर से जागरण से आता है। यही इस ग्रंथ का सार है। ✦ प्रथम खंड: व्याख्या 1. मनुष्य को कोई बाहर से सुधार नहीं सकता। उसके भीतर जो बीज (गुण, संस्कार, प्रवृत्ति) है, वही फलता है। कितनी भी शिक्षा, समझाइश, प्रवचन या स्वप्न दिखाए जाएँ, मनुष्य उसी दिशा में जाएगा जो उसके भीतर बोया है। 2. सुधार केवल “जागरण” से होता है। जब भीतर नई चेतना का बीज बोया जाए, तब ही विवेक, कर्तव्य और निष्ठा पैदा होती है। जागरण का अर्थ है—भीतरी आँख खुलना, मौन का स्पर्श होना। 3. बुद्धि एक पहाड़ जैसी है। स्थिर, कठोर, नियमबद्ध। शिक्षा और विज्ञान इसी पहाड़ पर रास्ते बना सकते हैं, लेकिन उसे बहता हुआ नहीं बना सकते। 4. हृदय नदी है। जब मनुष्य का हृदय बहने लगता है, तो वह महासागर (अनंत अस्तित्व) से जुड़ जाता है। सुधार बुद्धि से नहीं, हृदय के बहाव से होता है। 5. सुख-दुख का चक्र बुद्धि से चलता रहेगा। बुद्धि जितनी बढ़ेगी, उतने ही नए संघर्ष, नए दुःख पैदा होंगे। मौन और होश से ही नया जीवन जन्म लेता है। 6. जरूरत है मौन की शिक्षा की। पहले मनुष्य को मौन में बैठना सीखना होगा। जितना गहरा मौन, उतना गहरा संबंध अस्तित्व से। वहीं से नया बीज जन्म लेगा—विवेक का, प्रेम का, करुणा का। ✦ द्वितीय खंड: सूत्र 1. मनुष्य को कोई बाहर से सुधार नहीं सकता। 2. उसके भीतर जो बीज है, वही फलता है। 3. शिक्षा और प्रवचन केवल दिशा दिखा सकते हैं। 4. जागरण ही वास्तविक परिवर्तन है। 5. बुद्धि एक पहाड़ है—स्थिर, कठोर, सीमित। 6. शिक्षा पहाड़ पर रास्ता बना सकती है, उसे बहा नहीं सकती। 7. हृदय नदी है—जीवंत, बहती हुई, अनंत की ओर जाती। 8. सुधार बुद्धि से नहीं, हृदय के बहाव से होता है। 9. बुद्धि बढ़ेगी तो सुख-दुख का नया चक्र पैदा होगा। 10. मौन और होश से ही नया जीवन जन्म लेता है। 11. भीतर की आँख खुलना ही सच्चा परिवर्तन है। 12. मौन ही अस्तित्व से जुड़ने का पहला द्वार है। 13. मौन जितना गहरा, संबंध उतना गहरा। 14. मौन ही भीतर का बीज बोता है। 15. शिक्षा बाहर का विकास है, मौन भीतर का। 16. विवेक, प्रेम और करुणा मौन से ही जन्मते हैं। 17. प्रवचन बुद्धि को समझाते हैं, लेकिन हृदय को नहीं जगाते। 18. जगाने से ही अज्ञान मिटता है। 19. जगने से ही नया विवेक पैदा होता है। 20. हृदय जब बहता है, तभी महासागर मिलता है। 21. भविष्य का सुधार मौन की शिक्षा से ही होगा। ✦ समापन मनुष्य का सच्चा सुधार बुद्धि के मार्गदर्शन से नहीं, हृदय के जागरण से होता है। शिक्षा बाहर को विकसित करती है, लेकिन मौन भीतर को जगाता है। भविष्य का धर्म यही होगा—मौन की शिक्षा, हृदय का बहाव और अस्तित्व से मिलन। --- ✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
✦ बुद्धि बुद्धि पहाड़ जैसी है — स्थिर, भारी, बूढ़ी चट्टानों से बनी। वह खुद नहीं चलती, उसे रास्ते चाहिए, नियम चाहिए, मानचित्र चाहिए। जैसे कोई पहाड़ पर चढ़ने के लिए पगडंडी बनाता है। बुद्धि भी नियमों और तर्कों पर ही चलती है। उसमें गति नहीं, जड़ता है। ✦ हृदय हृदय नदी जैसा है — बहता हुआ, जीवंत, अपना मार्ग स्वयं खोजता। वह कभी रुकता नहीं, बिना नक्शे के भी रास्ता बना लेता है। और जब यह बहते-बहते समुद्र से मिलता है, तो एक विशाल, अनंत, हमेशा हिलती-जागती गहराई में बदल जाता है। हृदय कभी स्थिर नहीं रहता, वह हर लहर में धड़कता है। ✦ संबंध इसलिए हृदय बुद्धि से बड़ा है। बुद्धि सीमित है, पहाड़ जैसी, हृदय असीम है, समुद्र जैसा। बुद्धि को हमेशा नियम चाहिए, हृदय को सिर्फ़ बहाव चाहिए। बुद्धि बूढ़ी है, हृदय हमेशा जवान है।
हम सोचते हैं हम भगवान को खोज रहे हैं। पर शायद सच यह है कि — भगवान हमें खोज रहा है। जैसे माँ बच्चे को ढूँढती है, वैसे ही सत्य उस हृदय को ढूँढता है जो निर्मल और शुद्ध हो।
धर्म का प्राचीन स्वरूप जब वेद, उपनिषद, तंत्र और योग की परंपरा जीवित थी, तब धर्म और आध्यात्मिकता ही असली विज्ञान थे। ऋषियों ने चेतना, ऊर्जा, ब्रह्मांड और तत्वों को अनुभव से जाना। उस समय आधुनिक विज्ञान जैसी भौतिक खोज अलग से नहीं थी, क्योंकि जीवन ही प्रयोगशाला था और ध्यान ही उपकरण। 2. आधुनिक विज्ञान का उदय समय बीतने पर जब धर्म में पाखंड, कर्मकांड और अंधविश्वास बढ़े, तब सत्य की खोज चेतना से हटकर भौतिक जगत की ओर चली गई। गैलीलियो, न्यूटन, आइंस्टीन जैसे लोगों ने बाहर की दुनिया के नियम खोजे। आधुनिक विज्ञान ने बाहरी जगत को जीत लिया, लेकिन भीतर का शून्य खाली रह गया। 3. आज की स्थिति आज आधुनिक विज्ञान अपने शिखर पर पहुँचकर दोहरी शक्ल दिखा रहा है— एक ओर अद्भुत आविष्कार, तकनीक और सुख-सुविधा। दूसरी ओर परमाणु बम, पर्यावरण विनाश और मनुष्य की आत्मा का खो जाना। 4. आगे क्या होगा? इतिहास का नियम है कि जब भी विज्ञान विनाशक बनती है, तब मनुष्य चेतना की ओर लौटता है। जैसे बम, युद्ध और प्रदूषण हमें झकझोरेंगे, वैसे ही हम फिर भीतर झांकने को मजबूर होंगे। तब धर्म अपनी असली शक्ल में लौटेगा—एक शुद्ध विज्ञान के रूप में, जो बाहर नहीं बल्कि भीतर की सत्ता को जानता है। --- ✨ निष्कर्ष: धर्म और विज्ञान कभी अलग नहीं थे। जब धर्म शुद्ध था, वही विज्ञान था। जब धर्म खो गया, विज्ञान ने बाहर की खोज की। अब जब विज्ञान विनाश की कगार पर है, तो नया धर्म—आध्यात्मिक शुद्ध विज्ञान—जन्म लेगा।
पुराण और “लोकप्रिय धर्म” ✧ 1. वेद–उपनिषद–गीता का धर्म = आत्मा, ध्यान, सत्य, ब्रह्म, मौन। यह खोज भीतर की थी। इसमें मूर्ति, मंदिर, कर्मकांड गौण या लगभग अनुपस्थित थे। 2. पुराणों का धर्म = कथा, चमत्कार, व्रत, दान, मूर्ति, मंदिर। यह सब जनमानस को बाँधने के लिए लिखा गया। इसमें “भक्ति” को सरल बनाने का नाम देकर अंधविश्वास और कर्मकांड का विस्तार हुआ। 3. राजनीतिक धर्म राजाओं और पंडितों ने मिलकर इसे प्रचलित किया। कथा और कर्मकांड से लोग भावनात्मक रूप से जुड़ें, ताकि सत्ता और पुरोहित वर्ग को समर्थन मिले। इसलिए यह एक प्रकार का राजनीतिक–सामाजिक धर्म बन गया। ✧ परिणाम ✧ 👉 यही कारण है कि आज का “हिंदू धर्म” (जो वास्तव में पुराण–आधारित है) सनातन धर्म की मूल आत्मा से दूर हो गया। सनातन धर्म = आत्मा, सत्य, ब्रह्म, ध्यान। पुराण धर्म = चमत्कार, पाखंड, पंडितवाद, कर्मकांड। यानी पुराण धर्म = पंडित–पुरोहित की देन है, सनातन धर्म = शुद्ध आत्मिक खोज है। पुराण किसने लिखे? ✧ १. सामान्य परंपरा का दावा सभी पुराणों का श्रेय “वेदव्यास” को दिया गया। कहा गया कि व्यास ने १८ महापुराण और १८ उपपुराण लिखे। परंतु इतिहास–शास्त्र के अनुसार, यह असंभव है कि एक ही व्यक्ति ने ये सब रचे हों। --- २. वास्तविक स्थिति पुराण सैकड़ों सालों में, अलग-अलग लेखकों और परंपराओं द्वारा लिखे गए। ये ४थी शताब्दी ईसा-पूर्व से लेकर १५वीं शताब्दी ईस्वी तक बनते रहे। यानी: पुराण एक सतत कथाओं और लोकमानस की बुनाई है, जिन्हें बाद में ग्रंथ का रूप दिया गया। --- ३. क्यों बनाए गए पुराण? वेद–उपनिषद दार्शनिक और कठिन थे, आम जनता के लिए जटिल। इसलिए कहानियाँ, अवतार–कथाएँ, मंदिर–पूजा, दान–व्रत आदि को गढ़ा गया, ताकि साधारण लोग भी धर्म से जुड़ सकें। राजा–महाराजा और पंडितों ने इनका उपयोग राजनीति, नियंत्रण और भक्तिभाव के लिए किया। --- ४. आज का धर्म पुराण-आधारित क्यों है? क्योंकि कथा और कहानी सरल है, दार्शनिक विचार कठिन। लोग सुनना पसंद करते हैं “राम–कृष्ण की लीलाएँ, चमत्कार, दान–पुण्य की महिमा।” इसलिए आज का “हिंदू धर्म” = ९०% पुराण + १०% वेद/गीता/उपनिषद। --- ५. निष्कर्ष वेद–उपनिषद = आत्मज्ञान और दर्शन। गीता = भक्ति, ज्ञान और कर्म का संतुलन। रामायण–महाभारत = आदर्श जीवन की गाथाएँ। पुराण = कथा, चमत्कार, कर्मकांड, मंदिर–व्यवस्था। 👉 यानी: पुराण किसी एक “लेखक” की रचना नहीं हैं। वे लोक–कथाओं और पंडित–परंपरा की जोड़–घटाना हैं, जिनके आधार पर आज का लोकप्रिय हिंदू धर्म खड़ा है।
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