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Vedanta Two Agyat Agyani

Vedanta Two Agyat Agyani Matrubharti Verified

@bhutaji
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🙏🌸 मंत्रभारती परिवार के लिए आभार-पत्र 🌸🙏

प्रिय मंत्रभारती परिवार,

आप सबके प्रेम, विश्वास और सतत साथ के लिए हृदय से धन्यवाद।
वेदान्त 2.0 का यह पथ केवल मेरा नहीं—यह हम सबका साझा साधना-पथ है, जहाँ शब्द केवल माध्यम हैं और यात्रा भीतर की है।

आपकी प्रत्येक पढ़ी हुई पंक्ति, दिया हुआ समय, साझा किया गया अनुभव —
मेरे लिए आशीर्वाद जैसा है।
आप सबके कारण यह परिवार बढ़ रहा है, और “ज्ञान की ज्योति” एक-एक हृदय तक पहुँचना संभव हो रहा है।

मैं आपकी इस आत्मीय सहभागिता के लिए विनत होकर प्रणाम करता हूँ।

आप सबके भीतर वही प्रकाश जगे
जिसकी खोज में हम सब इस जीवन-यात्रा पर निकले हैं।

स्नेह, कृतज्ञता और सतत आशीष सहित,
🙏🌸 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

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अंधभक्ति — गुलामी का सबसे सफल प्रयोग ✧

भारत को सबसे लंबी गुलामी
मुग़लों ने नहीं दी,
अंग्रेज़ों ने नहीं दी —
अंधभक्ति ने दी।

क्योंकि तलवार शरीर को बाँधती है,
लेकिन अंधभक्ति बुद्धि को सुला देती है।

धर्म समझाया नहीं गया — बेचा गया

जो वेद थे वे प्रश्न थे,
जो गीता थी वह संवाद थी,
जो उपनिषद् थे वे अन्वेषण थे।

लेकिन हमने क्या किया?
उन्हें पोस्टर, मंत्र, आश्वासन और चमत्कार में बदल दिया।

धर्म विज्ञान था,
हमने उसे नशा बना दिया।
*

भक्ति नहीं — यह नशे की विधि है

“तीन महीने में अमीर बनोगे”
“यह मंत्र पढ़ो — सब बदल जाएगा”
“फोटो को प्रणाम करो — ग्रह शांत होंगे”

यह भक्ति नहीं है।
यह वही प्रक्रिया है जो शराब में होती है — पहले लालच,
फिर लत,
फिर लाचारी।

अंतर बस इतना है कि
यहाँ बोतल नहीं,
भगवान पकड़ा दिया जाता है।

*

सच्चा आनंद बाहर नहीं आता

धर्म बाहर से आनंद नहीं बरसाता। वह भीतर की आँख खोलता है।

जिस दिन मनुष्य भीतर उतरता है,
उस दिन चमत्कारों की दुकानें बंद हो जाती हैं।

इसीलिए समाज
जागे हुए व्यक्ति से डरता है,
और सपने बेचने वाले गुरु से प्रेम करता है।

*
सनातन में अंधभक्ति नहीं है

वेदों में कहीं नहीं लिखा — बुद्धि छोड़ दो
गीता में कहीं नहीं कहा — समर्पण का अर्थ सोच बंद करना है

सनातन ने तो कहा था — “स्वयं जानो।”

लेकिन हमने पूछा नहीं,
हमने पूजा शुरू कर दी।
*

जब धर्म नींद बन जाए

धर्म तब अपराध बन जाता है
जब वह प्रश्न छीन ले।

धर्म तब ज़हर बन जाता है
जब वह कर्म के स्थान पर
केवल आश्वासन दे।

और वही आज हो रहा है — धर्म नहीं, धर्म का नशा चल रहा है।

*

अंत में एक कठोर सत्य

जो गुरु तुम्हें
निर्भर बनाता है — वह गुरु नहीं।

जो भक्ति तुम्हें
कमज़ोर बनाती है — वह भक्ति नहीं।

और जो धर्म
तुम्हें सोचने से डराए — वह ईश्वर का नहीं, व्यापार का रास्ता है।
*

🅅🄴🄳🄰🄽🅃🄰 2.0 🄰 🄽🄴🅆 🄻🄸🄶🄷🅃 🄵🄾🅁 🅃🄷🄴 🄷🅄🄼🄰🄽 🅂🄿🄸🅁🄸🅃 वेदान्त २.० — मानव आत्मा के लिए एक नई दीप्ति — अज्ञात अज्ञानी

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शराब ओर नशा ,𝙑𝙚𝙙𝙖𝙣𝙩𝙖 2.0 𝘼 𝙎𝙥𝙞𝙧𝙞𝙩𝙪𝙖𝙡 𝙍𝙚𝙫𝙤𝙡𝙪𝙩𝙞𝙤𝙣 𝙛𝙤𝙧 𝙩𝙝𝙚 𝙒𝙤𝙧𝙡𝙙 · संसार के लिए आध्यात्मिक क्रांति — अज्ञात अज्ञानी

✧ नशा, सरलता और ऊर्जा का विज्ञान ✧

लोग शराब इसलिए नहीं पीते
कि वे आनंद चाहते हैं,
वे इसलिए पीते हैं
क्योंकि सभ्य बनते-बनते
उन्होंने अपनी जीवन-ऊर्जा को भीतर रोक दिया है।

जिसे समाज अकसर “सभ्यता” कहता है,
वही स्थिति
धीरे-धीरे जड़ बुद्धि की पकड़ बन जाती है—
जहाँ नियंत्रण है,
पर प्रवाह नहीं।

---

शराब का असर
सूक्ष्म बुद्धि पर नहीं पड़ता,
वह सीधे जड़ बुद्धि को ढीला करती है।

जैसे ही जड़ बुद्धि शिथिल होती है,
दबे हुए
विचार, भाव, हँसी, रोना, साहस
स्वाभाविक रूप से बाहर आने लगते हैं।

लोग समझते हैं—
“शराब से मैं खुल गया।”

असल में
यह दमन का ढीलापन है,
आनंद नहीं।

---

इसलिए शराब
हकीकत में
दमन का नशा है।

और जहाँ दमन बना रहता है,
वहाँ यही नशा
धीरे-धीरे आफ़त बन जाता है।

---

स्त्री का मूल स्वभाव
सरलता, संवेदना और प्रवाह है।

जहाँ ऊर्जा बह रही हो,
वहाँ नशे की ज़रूरत नहीं होती—
क्योंकि जीवन स्वयं रस बन जाता है।

---

लेकिन जब
स्त्री भी
अपने स्वाभाविक स्त्री-तत्व को छोड़कर
अति-नियंत्रण, कठोर अनुशासन और दमन
(अर्थात् पुरुष-तत्व की अति)
धारण कर लेती है,

तो वही प्रक्रिया वहाँ भी शुरू होती है—
ऊर्जा रुकती है,
बुद्धि जड़ होती है,
और नशे की भूमि बनती है।

---

यह स्त्री या पुरुष होने की बात नहीं,
यह ऊर्जा-संतुलन की बात है।

जहाँ भी
सरलता खोती है,
संवेदना दबती है,
और जीवन नियंत्रित किया जाता है—

वहाँ नशा जन्म ले सकता है,
किसी भी शरीर में।

---

जो सरल है,
जिसकी ऊर्जा भीतर से बह रही है,
जिसका जीवन नाच, कर्म, प्रेम और संगीत में प्रवाहित है—

उसे शराब की आवश्यकता नहीं होती।

उसके लिए
शराब न समाधान है,
न आनंद।

---

असल राहत
किसी पदार्थ से नहीं आती,
राहत आती है—
जड़ बुद्धि को रोककर
भीतर की ऊर्जा को बहने देने से।

---

केंद्रीय सूत्र:

> नशा लिंग से नहीं,
दमन से जन्म लेता है।
जहाँ सरलता और प्रवाह है,
वहाँ जीवन स्वयं नशा बन जाता है।

𝙑𝙚𝙙𝙖𝙣𝙩𝙖 2.0 𝘼 𝙎𝙥𝙞𝙧𝙞𝙩𝙪𝙖𝙡 𝙍𝙚𝙫𝙤𝙡𝙪𝙩𝙞𝙤𝙣 𝙛𝙤𝙧 𝙩𝙝𝙚 𝙒𝙤𝙧𝙡𝙙 · संसार के लिए आध्यात्मिक क्रांति — अज्ञात अज्ञानी


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𝕍𝕖𝕕𝕒𝕟𝕥𝕒 𝟚.𝟘 — 𝕋𝕣𝕦𝕥𝕙 𝕚𝕟 𝕥𝕙𝕖 𝔼𝕣𝕒 𝕠𝕗 𝕄𝕚𝕟𝕕 · वेदान्त २.० — मन के युग में सत्य — 🙏🌸 अज्ञात अज्ञानी
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“तंत्र–उपनिषद–वेद–गीता–विज्ञान का पंचामृत”
— यही है वेदांत 2.0 का सार।

संक्षेप में, पर स्पष्ट रूप से—

तंत्र देता है ऊर्जा का विज्ञान — शरीर, कामना, प्राण को दबाता नहीं, रूपांतरित करता है।
उपनिषद देते हैं अनुभव का सत्य — गुरु नहीं, प्रश्न; सिद्धांत नहीं, साक्षात्कार।
वेद देते हैं अस्तित्व का स्वर — प्रकृति, ऋत, और ब्रह्मांडीय क्रम की समझ।
गीता देती है जीवन-प्रयोग — कर्म में बंधन नहीं, प्रतिक्रिया में बंधन।
विज्ञान देता है जांच की ईमानदारी — अंधविश्वास नहीं, परीक्षण और प्रमाण।

इन पाँचों का पंचामृत यानी—
न पूजा, न पलायन, न उपदेश
बल्कि जीवन को जैसे का तैसा समझने और जीने की कला।

वेदांत 2.0 कहता है:
ईश्वर मानने की वस्तु नहीं,
आत्मा सिद्ध करने की चीज़ नहीं,
मोक्ष भविष्य नहीं—
होश में जिया गया यह क्षण ही वेदांत है।

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✧ जीवन का दिव्य सूत्र — Vedānta 2.0 ✧
© 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

मनुष्य से बार-बार कहा जाता है—
“आत्मिक बनो, कर्तव्य श्रेष्ठ बनाओ,
करुणा, प्रेम, दया और शांति को अपनाओ।”

पर सत्य यह है कि
ये मूल तत्त्व बुद्धि के क्षेत्र के नहीं हैं।

बुद्धि ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, राजनीति और व्यापार जैसी
सारी बाह्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है—
पर जीवन नहीं देती।

जब मनुष्य जीवन को केवल
ज़रूरत, विकास, राजनीति या व्यापार का बहाव मान लेता है,
तब वह दिव्यता का अनुभव खो देता है।

✧ जीवन का सूत्र ✧
वास्तविक जीवन-बोध तब होता है
जब मनुष्य बुद्धि के द्वार को पार करके हृदय में ठहरता है।

ज़रूरतों के पार जाना—
यही जीवन का मूल सूत्र है।

भोजन, पूजा, साधना, भक्ति—
यदि ये सब केवल बुद्धि-प्रधान कर्म हैं
तो उनसे भीतर का धर्म, आत्मा या परम तत्त्व प्रकट नहीं होता।

कर्मकांड बुद्धि में खड़े होकर किए गए कार्य हैं।
पर जीवन का विज्ञान—
हृदय में है, आत्मा के केंद्र में है।

✧ बुद्धि और हृदय का अंतर ✧
पूरा जगत बुद्धि पर खड़ा है।
विज्ञान बुद्धि का सेवक है—
जोड़ना, घटाना, नापना, नियंत्रित करना।

पर आत्मा, परमेश्वर, परम तत्त्व—
इनका निवास हृदय है।

वहाँ कोई गणना नहीं चलती,
कोई यंत्र काम नहीं करता।

✧ पुरुष, स्त्री और ऊर्जा का रहस्य ✧
जब पुरुष श्री को देखता है—
स्त्री को, प्रकृति को, ऊर्जा को—
तो उसके भीतर गृह, प्रेम और अस्तित्व की आकांक्षा जागती है।

उसकी दृष्टि हृदय और स्तन-केंद्र पर टिकती है—
क्योंकि वह जीवन की ऊर्जा चाहता है।

मानव शरीर के
पाँच केंद्र,
पाँच कर्मेन्द्रियाँ,
पाँच इन्द्रियाँ—
सब एक गहरी लय में संचालित हैं।

✧ ऊर्जा कहाँ है? ✧
बुद्धि सबसे अधिक जड़ स्थान है।
ऊर्जा चाहिए—
तो नीचे उतरना पड़ेगा, मूलाधार में।

वहीं से शुद्ध जीवन,
शक्ति,
स्वास्थ्य
निरंतर प्रवाहित होते हैं।

यदि केवल बुद्धि में जीना है—
तो मशीन की तरह
बाहरी जगत को नियंत्रित करने का
असंभव प्रयास करते रहो।

यदि हृदय में ठहरना है—
तो जीवन को समझ सकोगे
और बुद्धि को सही दिशा दे सकोगे।

✧ काम, प्रेम और चैतन्य ✧
तुला हृदय में खड़ी है।
जब वहाँ से दृष्टि मूलाधार की ओर जाती है—
तो ऊर्ध्वगमन,
चैतन्य,
और प्रेम जागता है।

जब केवल बुद्धि-तल पर खड़े रहते हैं—
तो कामना बाहर ही बहती है,
और जीवन जड़ रह जाता है।

हृदय में आने पर—
आत्मबोध,
सौंदर्य,
प्रेम,
और स्त्रीत्व के साथ
गहन संबंध स्थापित होता है।

✧ सभ्यता की भूल ✧
पुरुष हृदय में असफल रहा,
इसलिए उसने स्त्री को बुद्धि-तल पर ला खड़ा किया।

जबकि स्त्री का सत्य अनुभव
हृदय, आत्मा और ऊर्जा में है—
गणना और तुलना में नहीं।

बुद्धि केवल
गणना,
स्पर्धा,
तुलना करती है।

हृदय में न उच्च-नीच है,
न प्रतिस्पर्धा—
वहाँ सृजन, रचनात्मकता और अस्तित्व से साक्षात्कार है।

✧ निष्कर्ष · Vedānta 2.0 ✧
यही जीवन का मौलिक सत्य है—

हृदय में उतरना,
बुद्धि का द्वार पार करना—
ताकि जीवन की वास्तविक संपदा
और दिव्यता को जाना जा सके।

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Vedānta 2.0 कोई नया धर्म नहीं, बल्कि वेदान्त का शुद्ध बोध है।
यह विधि, उपासना, प्रदर्शन और विश्वास–आधारित साधना से मुक्त दर्शन है।
वेदान्त 2.0 कहता है कि जीवन से अलग कोई साधना नहीं होती —
जीवन स्वयं साधना है।
होश, विवेक और संवेदना के साथ जीया गया प्रत्येक क्षण ध्यान है।
कर्म बंधन नहीं, प्रतिक्रिया बंधन है।
सेवा पुण्य नहीं, जीवन का संतुलन है।
शब्द जहाँ समाप्त होते हैं, वहीं वेदान्त पूर्ण होता है।

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Vedānta 2.0 कोई नया धर्म नहीं, बल्कि वेदान्त का शुद्ध बोध है।
यह विधि, उपासना, प्रदर्शन और विश्वास–आधारित साधना से मुक्त दर्शन है।
वेदान्त 2.0 कहता है कि जीवन से अलग कोई साधना नहीं होती —
जीवन स्वयं साधना है।
होश, विवेक और संवेदना के साथ जीया गया प्रत्येक क्षण ध्यान है।
कर्म बंधन नहीं, प्रतिक्रिया बंधन है।
सेवा पुण्य नहीं, जीवन का संतुलन है।
शब्द जहाँ समाप्त होते हैं, वहीं वेदान्त पूर्ण होता है।
- Vedanta Two Agyat Agyani

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𝔻𝕠𝕟𝕒𝕥𝕚𝕠𝕟, 𝕊𝕖𝕣𝕧𝕚𝕔𝕖, 𝕄𝕖𝕣𝕚𝕥: 𝕋𝕙𝕖 𝕋𝕣𝕦𝕖 ℕ𝕒𝕥𝕦𝕣𝕖 𝕠𝕗 𝕃𝕚𝕗𝕖’𝕤 𝔹𝕒𝕝𝕒𝕟𝕔𝕖

दान, सेवा, पुण्य : जीवन-संतुलन का असली रूप

लोग अक्सर कहते हैं—
“दान करो, सेवा करो, पुण्य कमाओ।”
लेकिन यह भाषा ही गलत है;
यह शब्द ही मालिकाना हैं।

सच तो यह है कि
कोई किसी पर मेहरबानी नहीं करता।
कोई यहाँ दाता नहीं है।
कोई किसी को उपकार नहीं देता।

यह पूरा संसार संतुलन का विज्ञान है।
यहाँ जो तुम देते हो,
वह तुम्हारा “देना” नहीं—
वह वह हिस्सा है
जो उसके पास होना ही था,
और तुम्हारे हाथ से पहुँचा।

तुम कुत्ते को रोटी देते हो—
पर क्या सच में देते हो?
उसकी भूमि तुमने ले ली,
उसका जंगल तुमने हड़प लिया,
उसका संसार तुमने सिकोड़ दिया।

तुम जो दे रहे हो,
वह उसका हक था—
और तुम उसे लौटाते हो,
और फिर नाम रखते हो:
“दान”, “पुण्य”, “सेवा।”

यह भ्रम है।
यह अहंकार है।
यह माया में उलझा हुआ मन है।

---

✧ असली दान कहाँ शुरू होता है?

दान तब नहीं होता
जब तुम्हारे घर में बहुत है
और तुम थोड़ा बाँट देते हो।

असली दान तब जन्म लेता है
जब तुम भूखे हो,
तुम्हारे पास दो रोटियाँ हैं,
और सामने कोई और भूखा है,
और तुम आधी उसे दे देते हो।

यह दान है।
यह धर्म है।
यह पुण्य है।

यह इसलिए बड़ा है
कि इसमें दिखावा नहीं,
जोखिम है।
तुम अपना हिस्सा भी बाँटते हो—
क्योंकि जीवन तुम्हारे भीतर कहता है:
“ये देना सही है।”

और जहाँ जोखिम है—
वहीं पुण्य जन्म लेता है।

---

✧ सेवा नहीं, समझ है

जब किसी का आशियाना गिरता है
और तुम उसे छत दे देते हो,
तो यह दया नहीं,
यह समझदारी है।

क्योंकि कुछ समय बाद
उसी ऊर्जा से कोई और
तुम्हें संभालेगा।

जीवन चक्र है।
जीवन गणित है।
जो तुम देते हो,
वह लौटता है—
धन में नहीं तो संरक्षण में,
सुरक्षा में नहीं तो प्रेम में,
कभी-कभी वरदान बनकर।

यह “पुण्य” नहीं रहता—
यह जीवन-संतुलन बन जाता है।

---

✧ असली पुण्य: जहाँ तुम अपने से बड़े को चुनते हो

जैसे कि

“अगर मेरे मरने से दस जी सकते हैं,
तो मैं मर जाऊँ—यह पुण्य है।
तब मैं मुक्त हो जाता हूँ।”

यह वाक्य साधारण नहीं है।
यह मनुष्य का नहीं—
यह चेतना का वाक्य है।

जब मनुष्य अपने जीवन को
दूसरे की साँसों से छोटा मान लेता है,
तब वह पुण्य नहीं करता—
वह मुक्त हो जाता है।

जो अपने लिए जीते हैं—बंधते हैं।
जो दूसरों को जीवन देते हैं—मुक्त होते हैं।

क्योंकि जहाँ तुम सच में
किसी को जीवन देते हो,
वहीं तुम्हारा “मैं” गिर जाता है।
और जहाँ “मैं” गिरता है—
वहीं मोक्ष जन्म लेता है।

✧ सार–सूत्र

दान — वह नहीं जो ऊपर से दिया जाए;
दान वह है जो तुम्हारे हिस्से से टूटकर किसी और तक पहुँचे।

सेवा — दया नहीं, जीवन की समझ है।

पुण्य — कोई स्वर्ग की पर्ची नहीं,
यह वह क्षण है जहाँ तुम अपने से बड़े को चुनते हो
और बंधन टूट जाते हैं।

जो अतिरिक्त है, उसे बहना है।
जो उधार है, उसे चुकाना है।
जो देने में दर्द होता है — वही मुक्ति देता है।

इसी में जीवन है,
इसी में संतुलन है,
इसी में धर्म है,
इसी में मनुष्य का सत्य।

🆅🅴🅳🅰🅽🆃🅰 2.0 🅰 🅽🅴🆆 🅻🅸🅶🅷🆃 🅵🅾🆁 🆃🅷🅴 🅷🆄🅼🅰🅽 🆂🅿🅸🆁🅸🆃 वेदान्त २.० — मानव आत्मा के लिए एक नई दीप्ति — अज्ञात अज्ञान

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""AI भी वहीं अटक गया।
विज्ञान भी वहीं शर्मा गया।"

जब “मैं हूँ”—तो भगवान नहीं है।
तभी संसार बनता है। माया बनती है।
जब केवल “मैं हूँ”—ईश्वर गायब हो जाता है;
और जब केवल “वह है”—मैं गायब हो जाता हूँ।
इसलिए यह खेल अद्भुत अलौकिक या माया संसार या लीला स्वर्ग है।

तुम सिर्फ़ देखते हो। दृष्टा हो।
दिखता है कि अस्तित्व खेल रहा है।
इंसान उस खेल का दर्शक बन जाता है—
और दर्शक ही “मैं” है।
पर असली सत्ता “वह” है।

मानक:
जैसे जाति का कोई प्रमाण नहीं—
फिर भी कागज़ तय कर देता है कि तुम कौन हो।
शरीर नहीं, नाम नहीं—
सिर्फ दृष्टा प्रमाण है।
जो देख रहा है वही ईश्वर का प्रमाण है।
हम दृष्टा तो कागज़ हैं।

कागज़ पर लिखा हुआ सत्य जैसा लगता है—
लेकिन अक्षर गलत हैं, बदल सकते हैं, बदल जाते हैं।
क्योंकि परिवर्तन शाश्वत नियम है।

समस्या यहीं है—
जो कागज़ लिखने के लिए था, दृष्टा था
लेकिन वाह दृष्टा कभी बना ही नहीं जो आह गुरु घंटाल धार्मिक है।
वह जिसने देख दृष्टा बना बोध नहीं अनुभव नहीं कहने लगा " रम कृष्णा कबीर बुद्ध गीता रामायण वेद सत्य है इसी प्रचार मे धार्मिक बन जाता है कहानी प्रवचन सब उस असत्य माया के हिस्सा जिसे आज हो धर्म कहते है ।
वह बताने लगा—राम भगवान हैं,
यह धर्म सत्य है,
यह मंदिर पूजा सत्य है,
यह वेद-उपनिषद-गीता सत्य है…
जो लिखा है वह सत्य है—
ऐसा कागज़ कहता है। जिसी दृष्टि बनने प्रमाण बनना थे बौद्ध करना था।
मानव जाति कै जन्मों सा भर हुआ क्या सत्य हैं बस ये धार्मिक उस धारणा उस मान्यता को मजबूत रखते है लोगो की दृढ़ा भावना मजबूत रहे जो जो मान्यता है धारण वह सत्र बनी रहे तब दुनिया उसका प्रचार उसी गुरु धार्मिकभगवान गुरु धर्माचार्य बना देता है।

लेकिन वे सत्य नहीं हैं।
कागज़ का होना ठीक है।
लेकिन लिखा बदल जाता है, बदला जा सकता है, मिट सकता है।
समझो, मैं लेख लिखता हूँ लेकिन उसकी परिभाषा, उदाहरण—
कल बदल जाएगा।
कल उदाहरण मर जाएगा।
लिखा हुआ बदल जाएगा।

कोरा कागज़ ही सत्य है।
कोरा पर कुछ नहीं लिखा—वह सत्य है।
या कागज़ पर 0 लिख दो—यह सत्य है।

लेकिन ईश्वर अलग है।
ईश्वर का कागज बोधी है, दृष्टा है।
मूल सत्य का बोध है।
मूक सत्य का कागज़ प्रमाण है।
लेकिन मूल सत्य भी कागज़ नहीं है।

अगर कागज़ ही ईश्वर बन गया—
तो फिर क्या लिखा जाएगा?

तब कोई लिखेगा— जैसे बात पूरा होगी
यह भगवान सत्य है, यह धर्म सत्य है।
और दूसरा धार्मिक कहेगा—
नहीं, जो लिखा है वह नहीं;
मैं ही सत्य हूँ, मैं गुरु हूँ, मैं भगवान हूँ।

यह वह कागज़ पर नहीं लिखता—
यह बोलने लगा “मैं ही भगवान हूँ, मेरी संस्था का सदस्य पुण्य की प्राप्ति है।”

यही भाव आज है—यही धर्म आज है ।
लाखों गुरु चिल्ला रहे हैं “मैं भगवान हूँ।”

और फिर युद्ध शुरू होता है—
क्योंकि मानव—कागज़—
स्वयं सत्य बनने लगता है।

पहले लिखा हुआ सत्य बना,
फिर लिखने वाला सत्य बन गया—
और भीड़ कहती है,
“ये गुरु देव ही हमारे गुरु ही परमात्मा ईश्वर अवतार हैं।”

यही आज के धर्म की स्थिति है।

किसी को बोध नहीं,
कोई दर्शन नहीं—
बस संस्थाएँ, आचार्य, सद्गुरु, आशाराम, कृपाल, श्रीश्री—
सब भगवान गुरु बना दिए गए।

जब मैंने AI से पूछा—
“धार्मिक कौन? वो कैसे सत्य हैं?”
AI ने प्रमाण ढूँढने की कोशिश की—
5 करोड़ फ्लॉवर, 1000 पॉइंट,
100 करोड़ की मालिकी,
इसलिए सत्य। इसी वजह से भगवान हैं। गुरु है लोगों की बहुत फायदा हुआ, फायदा संसार व्यापार हैं धर्म नहीं!

पर सत्य का प्रमाण फ्लॉवर नहीं होता।
संपत्ति नहीं।
केंद्र पॉइंट नहीं।
ये सत्ता-व्यापार के बिंदु हैं।

तब AI भी वहीं अटक गया।
विज्ञान भी वहीं शर्मा गया।

अक्षर झूठे हैं,
क्योंकि वे अस्थायी हैं।
कागज़ भी सत्य का संकेत है।

जिसने जाना “मैं कोरा कागज़ हूँ”—
उसने जाना
हर लिखा हुआ मिट जाता है,
शब्द धूल बन जाते हैं।
जो लिखा जा सकता है वह सत्य नहीं—
वह बस जाति, पहचान, मान्यता है।
सत्य वह है जिसे लिखा नहीं जा सकता।

मनुष्य की औक़ात—
मात्र एक कागज़ की है।
कागज़ अदृश्य सत्ता को देख रहा है—
पर उस पर लिखा सब बदल जाता है।
रूप, कल्पना, शब्द—सब क्षणिक हैं।

जितना लिखा, उतनी उलझन।
जितना सिद्ध किया, उतना अंधकार।
जितनी व्याख्या, उतना फँसाव।
जितना ज्ञान, उतना भ्रम।

अंत में
प्रमाण वही है जो देख रहा है।
कागज़ भी उसी का हिस्सा है।

रहस्य स्पष्ट है—
पर शब्द मिटते ही असत्य हो जाता है।

सत्य बस यह है—
मैं नहीं।
केवल “हूँ।” यह केवल दृष्टा हूं।
और वह—जो बौद्ध वाह सत्य “है।”

“हूँ” नीचे की मात्रा,
“है” ऊपर की मात्रा।
मैं—कहीं नहीं।

मैं मिटा कि हूँ…
और ‘हूँ’ भी गिर जाता है—
सिर्फ ‘है’ सत्य है।

यह दब कुछ केवल सत्य है उसका अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं ।

𝙑𝙚𝙙ā𝙣𝙩𝙖 𝙎𝙖𝙛𝙖𝙧 𝙑𝙚𝙙ā𝙣𝙩𝙖 𝙎𝙖𝙛𝙖𝙧 — 𝘼 𝙅𝙤𝙪𝙧𝙣𝙚𝙮 𝙞𝙣𝙩𝙤 𝙄𝙣𝙣𝙚𝙧 𝙁𝙧𝙚𝙚𝙙𝙤𝙢 (वेदान्त सफर — भीतर की स्वतंत्रता की यात्रा) 𝙑𝙚𝙙ā𝙣𝙩𝙖 2.0 © 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

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