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वो हर बार आकर मुझपे हंस के जाती है गर्दिशों के लिए तो जैसे कोई लतीफा हूँ मैं...
मैंने देखा है तुम्हें लड़ते अकेला, मुश्किलों से अपनी अब तुम नहीं डरते। खामोश से रहने लगे हो आजकल सामने मेरे, बस बैठे रहते हो, लबों से कोई बात नहीं करते। मैं पूछता हूँ कि क्या हुआ तुम्हें, पर तुम बयां अपने जज़्बात नहीं करते। लगता है कि अब संभल गए हो, क्योंकि पहले की तरह अब आधी बात नहीं करते।
एक ही तो थे असरानी साहब...
मैं उसको ढूँढने निकला हूँ जो मुझमें लापता है, बाहर निकलने से ना जाने क्यों कांपता है। बैठा है कहीं मन के भीतर वो डर के, आवाज को अपनी न जाने क्यों खामोशी में भर के। पता नहीं क्यों वो अपने आप में गुम-सा रहता है सुनता तो सबकी है पर अपनी एक न कहता है।
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