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NR Omprakash Saini

NR Omprakash Saini

@nromprakash220721
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“मैं”
१.
मैं शब्द नहीं, चिंगारि प्रखर,
जो देह जले, मन दीप धरे।
हर बार जहाँ “मैं” बोल उठे,
सत्य वहीं सिमटे, मौन भरे॥

२.
“मैं” ऊँचा हुआ, “तू” हो गया क्षुद्र,
भ्रम जाल यही जग बाँध गया।
मानव रोया मानव से ही,
“मैं” शिखर चढ़ा, मन डूब गया॥

३.
“मैं” बाँटा धर्म, सीमाएँ खींचीं,
मंदिर-मस्जिद सब तोड़ गया।
युद्ध जगाया, लहू बहाया,
अहंकार सृष्टि को मोड़ गया॥

४.
जो “मैं” कहे – “सब मुझमें हैं”,
वह सत्य सुधा रस पा लेता।
जो झुके सहज, जो मौन बहे,
वह “मैं” अमरता पा लेता॥

५.
मृत्यु अंत नहीं, आरंभ नया,
जब देह धूल में खो जाती।
“मैं” मिट जाता, आत्मा जागे,
साक्षी बन जग को देख जाती॥

६.
जल में, वायु में, रेत प्राण में,
“मैं” सूक्ष्म रूप में फैल रहा।
जब “मैं” तजोगे, तभी पाओगे,
वह “मैं” जो सबमें खेल रहा॥

एन आर ओमप्रकाश 'अथक'

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“अब कुछ खोने को शेष नहीं”
(— एन. आर. ओंप्रकाश ‘अथक’)

मैं सब कुछ खो चुका हूँ अब,
खोने को कुछ भी शेष नहीं।
सपनों की माला टूट चुकी,
आशाओं का संदेश नहीं।

प्यार गया, विश्वास गया,
रिश्तों का भी आकार गया।
जो साथ चला था उम्रभर,
वह राह में ही लाचार गया।

दोस्ती का दीप बुझा कहाँ,
न जाने कौन हवा ले गई,
और जवानी — जैसे धूप की रेखा,
धीरे-धीरे ढलती रह गई।

अब बस एक निःशब्द किनारा है,
जहाँ लहरें थम जाती हैं।
मन पूछे — “क्या यही अंत है?”
और आँखें नम हो जाती हैं।

पर भीतर कहीं एक ज्वाला है,
जो अब भी बुझने देती नहीं।
थोड़ी-सी रवानी बाकी है,
थोड़ी-सी कहानी बाकी है।

मन कहता —
अब धन नहीं चाहिए,
न मान, न यश, न पहचान चाहिए।
बस एक झलक उस सत्य की,
जो सबमें है — वही ज्ञान चाहिए।

अब कुछ पाने की चाह यही —
ईश्वर को पा लूँ, बस यही।
उसमें ही खो जाऊँ यूँ जैसे,
बूँद सागर में समा जाए।

जो मैंने खोया — लौटे न सही,
पर जो अब मिल जाए वही शाश्वत हो।
खाली हाथ आया था जग में,
अब तृप्त हृदय विदा हो जाऊँ —
यही अंतिम प्रार्थना हो।

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मैं —
एक शब्द नहीं, आग का अंगार हूँ,
जो जितना पास रखे, उतना ही दागदार हूँ।

मैं से ही युद्ध जगत के सारे जन्मे,
मैं से ही टूटे कितने अपने।
मैं ने ही मंदिर-मस्जिद बाँटी,
मैं ने ही प्रेम की लकीर काटी।

मैं इतना बड़ा कि सत्य भी छोटा,
मैं इतना गहरा कि ईश्वर भी खोटा।
जब-जब मैं सिर चढ़ बोल पड़ा,
मानव से मानवता डोल पड़ी।

रिश्ते मेरे आगे झुक जाते,
नेत्रों के दीपक बुझ जाते।
हर बंधन को मैं चीर गया,
हर अपनापन मैं ही पीर गया।

मैं भूल गया कि नश्वर हूँ,
क्षणभंगुर यह सारा जीवन है।
जो आज झुकता न किसी के आगे,
कल उसकी चिता में “मैं” दफन है।

मृत्यु आती है — मौन, निराकार,
और निगल लेती है “मैं” का अहंकार।
तब शून्य बचता — वही सच्चा “मैं”,
जो देह नहीं, पर आत्मा का सत्य है।
एन आर ओमप्रकाश।

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मैं...
यह तीन अक्षरों का शब्द नहीं,
एक पूर्ण ब्रह्मांड है —
जिसमें घमंड की धूल भी है,
और ज्ञान का अमृत भी।

मैं वह पहला स्वर हूँ
जो किसी ने बोला, “मैं हूँ!”
और उसी क्षण जन्मा
वियोग, द्वेष, अधिकार और सीमा का संसार।

क्योंकि जब “मैं” आया,
तो “तू” पीछे छूट गया।
वहीं से प्रारंभ हुआ
सबसे बड़ा युद्ध —
मनुष्य बनाम मनुष्य।

मैं ने कहा —
“यह मेरा है!”
और धरती काँप उठी।
पहाड़, नदियाँ, हवाएँ सब
बंधन में बंध गए।
मैं ने कहा — “यह तेरा नहीं!”
और आकाश भी तंग लगने लगा।

मैं ने रिश्तों को भी
संपत्ति की तरह बाँटा,
हर अपनापन में स्वार्थ मिलाया।
मित्रता के प्याले में जहर घोला,
प्रेम में भी स्वामित्व बोया।

मैं —
जो सबसे ऊँचा दिखना चाहता है,
पर खुद अपनी छाया से हार जाता है।
जिसे सम्मान चाहिए,
पर विनम्रता नहीं आती।
जो सबको झुका देखना चाहता है,
पर खुद झुकने से डरता है।

मैं ही वह अंधा राजा हूँ
जो अपने ही सिंहासन का कैदी है,
जिसे लगता है वह जीत गया—
पर हार चुका होता है अपने भीतर से।

मैं ने साम्राज्य रचे, मंदिर गढ़े,
किताबें लिखीं, युद्ध लड़े।
मैं ने कहा — “मैं ईश्वर हूँ।”
और यहीं से पतन आरंभ हुआ।
क्योंकि जिस दिन “मैं” ईश्वर हुआ,
उसी दिन ईश्वर मानव से चला गया।

मैं ने सत्य को भी अपनी माप में तौला,
धर्म को भी हथियार बना डाला।
मगर मृत्यु मुस्कराई —
धीमे से बोली, “ठहर,
अब मैं आ रही हूँ।”

जब देह राख बनी,
और अहंकार धुएँ में घुला,
तब जाना —
जो “मैं” समझा था, वह केवल भ्रम था।
वह “मैं” जो दिखता था,
मर गया।
पर जो नहीं दिखता था,
वह अमर हो गया।

सच्चा “मैं” तो वह है —
जो मौन में भी बोलता है,
जो किसी को नीचा नहीं देखता,
जो जानता है —
“मैं और तू अलग नहीं।”

वह “मैं” अहंकार नहीं,
वह आत्मा का प्रतिध्वनि है,
जो कहती है —

“मैं वही हूँ जो सबमें है,
और सब मुझमें हैं।”

इसलिए,
हे मानव —
जब तू “मैं” कहे,
तो भीतर झाँक कर देख,
कौन बोल रहा है —
अहंकार या आत्मा?

क्योंकि अंत में,
मृत्यु आकर सब “मैं” मिटा देती है,
और जो शेष रह जाता है —
वही सत्य है,
वही शांति है,
वही अनंत “मैं” है।

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तेरी दृष्टि दिशा दिखलाती, पथ कितना भी कठिन,
तेरे संग में मन को मिलता, हृदय सुधा रस घन।
संघर्षों की आँधी छूकर, दीपक जगमग होता,
प्रेम मिले जब जीवन पथ में, दुख भी सुख-सा होता।

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"रातों रात उजड़ गया सपना"

चाँदनी रात थी, चुप थे सितारे,
400 एकड़ सपने कटे एक इशारे।
कराह उठी मिट्टी, बिलख उठे पेड़,
किसने सुनी उनकी टूटी पुकारें?

चुपचाप आए थे, मशीनों का शोर था,
हर तने की चीख में दबा कोई ज़ोर था।
कटते रहे बृक्ष जैसे साँसें टूटतीं,
धरती की छाती पे नमी सी छूटती।

किसके लिए ये उजाड़ा गया घर?
किसके सपनों ने छीना ये सफर?
भूल गए हम कि जड़ें ही आधार थीं,
जिन्होंने सँभाली थी सदियों की धार थीं।

अब धूल उड़ती है उन पगडंडियों में,
जहाँ कल तक हरियाली मुस्कुराती थी।
अब सन्नाटा है, एक सिसकती सी हवा,
जहाँ कल तक कोयल मीठा गीत गाती थी।

ओ इंसान!
तेरी तरक्की की ये कैसी कीमत है?
किसी की धड़कनों की राख पे तेरा महल है।
जो जड़ें कट गईं, वो साया भी छूटेगा,
कल जब जल बुझेगा, तू किसे रोएगा?

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"रात जब जंगल रोया"

चुप थी रात, पर भीतर से टूटी थी,
धरती की कोख जैसे कराहती थी।
400 एकड़ सपनों की लाशें बिछीं,
इंसानों के लालच ने हरियाली छीनी।

पेड़ों के दिल से लहू टपकता रहा,
हर टहनी का दर्द हवाओं में घुलता रहा।
जड़ें तड़पती रहीं मिट्टी के भीतर,
जैसे माँ की कोख उजड़ी हो भीतर।

हिरण भागते रहे आँखों में डर लिए,
चिड़ियाँ उड़ गईं अपनी तिनकों की दुनिया लिए।
नदी किनारे बैठा एक बूढ़ा बरगद रोया,
"कहाँ जाएँ अब वे परिंदे?" — ये उसने भी पूछा।

नदी ने भी धीमे-धीमे बुदबुदाया,
"जिन पेड़ों ने मेरा आँचल सँवारा था,
आज वे सब कटे पड़े हैं,
कल मैं भी सूख जाऊँगी,
किसे प्यास बुझाऊँगी?"

हवा ने चीख कर सवाल किया,
"जब मेरे झूले बिन पत्तों के हो जाएँगे,
तब क्या मैं भी ज़हर बन जाऊँगी?"
कोई जवाब नहीं था, बस मशीनों की गुर्राहट थी,
और इंसानों की ठंडी मुस्कानें थीं।

एक जंगल मरा नहीं उस रात,
मर गईं उम्मीदें, सपने, साँसें,
और मर गया वो भरोसा,
कि इंसान अब भी प्रकृति का बेटा है।

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लम्बेसमयकेबादवापसी_नयेसिरेसे_एकनईशुरूआतसे_नयेलहजेसे_नईबातसे

खामोशियां बहुत कुछ कहती है
मुस्कुराते चहरे गमों में है
कभी गौर करना महफिल में हंसती आंखों पर
वो रातों के आंसुओ कि गवाई देती हैं।

Athak Saini

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सत्यम् शिवम् सुंदरम
आप सभी को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं🙏