यथार्थ चिंतन
भाग 4
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जेकृष्णमूर्ति के मौलिक विचारों कौ अपनी खोज बताकर अनेक आचार्यों, गुरूओं ने लच्छेदार भाषण की कलाबाजी से सम्मोहित लोगो को खूब भृमित किया व खूब पैसा, पृसिद्धी व पृचार कमाया वहीं कृष्णमूर्ति ने अपार पैसा पृसिद्धी, अवतार पद सबकुछ त्याग दिया किंतु कच्चे दिमाग के लोग पृसिद्धी, ढोंग व भाषणकला से बहुत पृभावित होते हैं। जबकि अध्यात्म मे भाषण, शब्द कला की कोई जगह नहीं है । अनेक पूर्णसिद्धी प्राप्त संत मौन रहते हैं, रमण महर्षि की दीक्षा ही मौन थी । रूढ़िवादिता व पुरानी मान्यताओं को पूर्णतया नकारने के कारण कट्टर रूढ़िवादी देशवासियों ने कृष्णमूर्ति को न सुना, न पढ़ा न गुना । संसार मे सबसे सुंदरतम मौलिक विचारधारा को भारत मे नगण्य जगह मिली । खैर कृष्णमूर्ति स्वयं पद, पृतिष्ठा, वैभव, दिखावा से जीवनभर दूर रहे ? वे नाम शोहरत से दूर सामान्य जीवन बिताते थे ।
सामान्य सादगीपूर्ण जीवन शांति सौंदर्य व आनंद का स्रोत होता है ।
हमारे दुख का कारण
हमारे काम जब हमारे मन मुताबिक़ नही होते तो हम दुखी हो जाते हैं । किंतु हम कभी नही सोचते कि हमारा मन मुताबिक है क्या ?
हम क्या चाहते है और क्यों चाहते है ?
हम पद, पृतिष्ठा धन, वैभव चाहते हैं । हम इन चीजों के अभाव मे दुखी रहते हैं । हम चाहते हैं कि लोग हमारी पृशंसा करें ।
हमारे सच बोलने के कारण सभी हमसे कन्नी काटते हैं ।
झूट बोलने वाले, सांसारिकता मे सफल व्यक्ति के बहुत पृशंसक मिलेंगे ।
हमें पद मिलता है तो हम और ऊंचे पद की कामना करते हैं ।
और अधिक धन, और अधिक कामना पूर्ति, कामनाओं का कोई अंत नहीं । कामनाएं ही हमारे दुख का कारण हैं ।
कामना पूर्ति क्षणिक रूप से हमे आभासी सुख देती है ।
हम पुत्र नही होने से दुखी थे, पुत्र होगया तो आग्या कारी न होने से दुखी हैं, फिर उसके न पढ़ने, बाद मे उसकी नोकरी न लगने, फिल उसकी वाईफ के कारण दुखी हैं, सतरा झंझट ।
यह अहं, ये इच्छाये हमारे दुख का कारण हैं ।
तो क्या घांस के समान सादा जीवन बिताऐ ?
अरे सोचो घास कैसे बहीन होगई और तुम भैड़चाल चलकर सांसारिक वस्तुओं का संगृह कर किसी श्वान से श्रेष्ठ कैसे होगये ?
आत्महत्या डिप्रेशन मानसिक बीमारियां
ये सब समाज की सिखावट, बनावट का परिणाम है ।
बच्चे को बचपन से सिखाया जाता है तू महान बनना, पृसिद्ध बन, धनवान बन, पृथम आना नहीं तो समाज मे हमारी नाक कट जाऐगी । अब बच्चा कभी महाभयानक सफलता की दौड़ मे पीछे रह गया जो अधिकांश बच्चों कै साथ होता है तो उसे आगे चलकर डिप्रेशन घेर लेता है, जिंदगी निरर्थक लगने लगती है । वह आत्महत्या सरीखे खतरनाक कदम उठा लेता है । समाज की पद, पृतिष्ठा, वैभव नाम पद की दौड़ बड़ी खतरनाक पागल कर देने वाली है ।
आज हर इंसान इस पागलपन से पीड़ित है ।
कोई व्यक्ति सादे जीवन सादे जीवन शैली की बात नही करता । इस सारे मायाजाल का पर्दाफाश सिर्फ स्वयं के मन का निष्पक्ष अवलोकन से ही संभव.है ।
अशांति अशांति
हमारे समाज मे हमें पृतिस्पर्धा करना सिखाया जाता है ।
दूसरों से आगे बढ़ो, अव्वल आओ । दूसरो को पीछे धकेलो ।
यह सब हमारे दिल दिमाग को अशांत करता है ।
हमारे पास धन .पृतिष्ठा वैभव सब कुछ होते हुऐ भी हमारे पास शांति और आनंद नही.है ।
हम अपने पड़ौसी से पीछे हैं हमारे पास दूसरों कै मुकाबले कम है । हम उस व्यक्ति को नही देखते जिसके पास कुछ नही है फिर भी वह.खुश है, पृसन्न है ।
पृतिस्पर्धा का हलाहल विष हमारे जहन मे बचपन से भर दिया जाता है ।
यथार्थ ध्यान
पूरे विश्व मे, पूरे अध्यात्म जगत मे अनेक ध्यान पृणालियां
मौजूद हैं., गुरूओं द्वारा सिखाई जाती हैं ।
अनेक तरह.के मंत्र जप, शरीर के विशेष बिंदु जैसे आग्या चकृ, सहस्रार आदि पर ध्यान केंद्रित करना बतलाया जाता है, देवी देवता आदि पर ध्यान केंद्रित करना बताया जाता है ।
इस तरह के ध्यान से विशेष आध्यात्मिक अनुभूति होना बताया जाता है ।
किंतु कृष्णमूर्ति इस तरह के ध्यान को स्वसम्मोहन बतलाते हैं
ऐसे ध्यान की तथाकथित आध्यात्मिक अनुभूतियों को मानसिक स्वभृम जन्य अनुभव बतलाते हैं।
सभी रहस्य व पारलौकिक विचार तक मनोभ्रम के सिवा कुछ नही ।
वास्तविक ध्यान स्व का मूवमेंट है । मन का निष्पक्ष निरीक्षण
ही ध्यान है । मन जैसा है, जो है उसमें बिना बदले उसका सूक्ष्म निरीक्षण ध्यान है । मन मे क्रोध आता है, आने दीजिए,
न उसका कंट्रोल करना है, न बदलने का प्रयास करना है ।
मन मे जो विचार आ रहे हैं, जो भावना आ रही है, अच्छी. बुरी जैसी हो, लोभ मोह, सेक्स, उसे बदलनाम का पृयास किऐ बिना, उसका मात्र निरीक्षण यथार्थ ध्यान है । क्योंकि सत्य ही सच्चा कार्य करता है ।
दृष्टा व दृश्य ऐक है । विचार व विचार कर्ता ऐक है ।
अनुभव व अनुभव कर्ता ऐक ही हैं ।
सेक्स मनोरंजन
लोगों मे सेक्स और मनोरंजन की मांग बहुत अधिक है ।
यह बतलाता है कि मनुष्य के जीवन मे रस की आनंद की भारी कमी है । इंसान नीरस जीवन जीता है ।
सेक्स का अपना महत्व है । यह जीवन को आगे चलाऐ रखने के लिए पृकृति का तोहफा है, इसका जीवन मे ऐक उचित स्थान. हे ।किंतु जब इसे सिर्फ सुख व मनोरंजन का साधन बना लिया जाऐ व बहुत आवर्धित महत्व दे दिया जाऐ तो यह जीवन मे घातक परिणाम पैदा करके शरीर व मन को विकृत कर देता है । यह प्राकृतिक है व इसका पृयोग पृकृति अनुसार बहुत सीमित होना चाहिये ।
हम नहीं सुनते
हम चिड़िया की चहचहाहट, पक्षियों का कलरव नही सुनते ।
बस अपनी ही उधेड़बुन मे उलझे रहते हैं ।
हम नदी की धारा, वृक्षों की, पत्तों की, हवा की आवाज नहीं सुनते । पृकृति का तो मानो हमसे कोई वास्ता नहीं होता ।
हम किसी दुखी की व्यथा नही सुनते । और तो और हम स्वयं के भीतर चल रहे द्वंद्व को नहीं सुनते । सिर्फ अपने ही विचारों मे भिन्नाते रहते हैं ।
बिना विचार के सुनो तो सही, बाहर व अंदर की ध्वनि ।
अवधान न होना
हम ध्यान नही.देते, न बाहर न अंदर । बस अपनी ही धुन मे व्यस्त रहते हैं ।
हम न आसमान को देखते हैं, न पक्षियो को न वृक्ष को, न सितारों को, हम किसी को नही देखते । न हम स्वयं को देखते । जब तक व्यक्ति विचारों से खाली नहीं होता, वह न देखता है, न सुनता है । जब आप खुद ही उलझे हुऐ हो तो आप किसी दूसरे को क्या सुन सकते हो ?
निगेटिव चिंतन सर्वोच्च चिंतन
पृश्न : क्या भगवान है,
साधारनतया उत्तर : हां है, चार हाथवाला, मोर मुकुट वाला, ऐसा वैसा ।
जैसे यो अभी अभी उत्तर देनेवाला उससे मुलाकात करके आ रहे हों ।
तोता रटंत उत्तर.देने के बजाय वास्तव मे खोज करना चाहिए कि क्या भगवान है ?
यदि भगवान ने संसार बनाया तो संसार मे इतने दुख, इतनी विद्रूपता क्यों है ?
इसलिए निगेटिव चिंतन सही चिंतन है ।
किसी प्रश्न का सरल उत्तर ढूंढने के बजाय प्रश्न को निरंतर मन मे चलने दो, गंभीर प्रश्न मे ही हल निहित है ।
भीड़तंत्र, रूढिवाद का उत्तर कोई उत्तर नहीं होता ।
रिलेशनशिप का आइना
स्व का अध्ययन कैसे करना
स्व का अध्ययन संबंध मे किया जाता है ।
जैसे पति पत्नी संबंध, मालिक नौकर संबंध, बास- मातहत आदि संबंध ।
हम अपने नौकर से, अपने मातहत से कैसे पेश आते हैं ?
स्वयं पर व बाहर ध्यान दो । कोई भी व्यक्ति बिना संबंध के नहीं रह सकता । यदि वह जंगल मे अकेला रहता है तो भी उसका जंगल, व्रक्ष, नदी हवा पानी से उसका संबंध होता है ।
मौलिक चिंतन, यथार्थ चिंतन
हम प्रश्न का उत्तर कुंजियों मे ढूंढते हैं, प्रश्न को स्वयं चिंतन करके हल नहीं करते ।
हम समस्याओं के हल के लिए दूसरों के सुझाऐ हल को आंखमूंदकर सही मान लेते हैं।
हम आध्यात्मिक समस्याओं के लिए गुरुओ, शास्त्रों पर निर्भर रहते हैं जो कि भूतकाल मे लिखे गए है उस.समय समस्याएं अलग थी । आज समस्याएं अलग हैं । कल के हल आज लागू हो, आवश्यक नहीं ।
हम विचारों मे लीन रहते हैं किंतु विचार भूतकाल के ग्यान पर
निर्भर रहता है । भूतकाल का हमारी कल्पना के सिवा कोई अस्तित्व नहीं होता । समस्याएं हमेशा नवीन रहती है ।
वे वर्तमान मे रहती हैं, उनका हल वर्तमान मे होता है, न कि भूतकाल में ।
हमें अपनी मान्यता से अलग विचार सुनने चाहिए ।
सत्य हमेशा मौलिक व नूतन होता है । वह सदैव वर्तमान मे होता है ।
यथार्थ चिंतन, मौलिक चिंतन का व्यावहारिक व्हाट्सएपग्रुप
मित्रों यथार्थ मौलिक चिंतक समाज मे अकेला पड़ जाता है ।
यह सारी दुनिया भेड़चाल भीड़तंत्र के पीछे आंख व दिमाग बंद करके चलती है । हमें किसी का विरोध नहीं करना, आलोचना भी नहीं करनी ।
सारा मनुष्य समुदाय पद, पृतिष्ठा, प्रतिस्पर्धा, वैभव के पीछे भाग रहा है । किंतु हमें सत्य की खोज करना है । हमे न पद, न पृतिष्ठा, न वैभव की आकांक्षा है, हम मनुष्य का जीवन सार्थक बनाना चाहते हैं ।
सत्य के, आनंद के, शांति की प्राप्ति दुनिया के सभी सांसारिक सुखों से बढ़कर है । ऐसे मे समान इंटरेस्ट कै लोगों का इकट्ठा होना, मिलना जुलना वार्तालाप करना परम आवश्यक है ।
अतः 84 वर्ष की उम्र मे यथार्थ चिंतकों का ऐक व्हाट्सएप ग्रुप यथार्थ चिंतक ग्रुप बना रहा हूं कृपया इसके अधिक से अधिक सदस्य बने व बनाए हमें काल करें, हमें पृवचन हेतु आमंत्रित करें,
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बृजमोहन शर्मा 791 सुदामानगर, इंदौर म. पृ. 452009 मो व्हाट्सएप 9424051923