"क्या तुम्हें इत्तेफ़ाक़ पर यक़ीन है?"
आयत की ये बात आरव को उस शाम की तरह आज भी याद थी, जब बारिश हल्की-हल्की हो रही थी और दोनों कैंपस के बाहर चाय की दुकान पर बैठे थे।
आरव, दिल्ली यूनिवर्सिटी का आखिरी साल का स्टूडेंट था — स्मार्ट, लेकिन थोड़ा चुपचाप। आयत, लखनऊ से आई एक कवियित्री जैसी लड़की, जिसकी आंखों में कहानियाँ थीं और लफ़्ज़ों में बारिश की खनक।
उनकी पहली मुलाक़ात भी इत्तेफ़ाक़ ही थी।
कॉलेज के फेस्ट में आयत की ग़ज़ल सुनकर आरव कुछ देर तक ठहरा रहा। जब तक लोग तालियाँ बजा रहे थे, उसकी आंखें बस उस लड़की को पढ़ रही थीं जिसने "तेरा नाम मैंने रेत पर यूं लिखा है..." जैसे मिसरों को जिन्दा कर दिया था।
कॉफी शॉप में आरव ने हिम्मत जुटा कर कहा, "तुम्हारी ग़ज़ल दिल में उतर गई।"
आयत मुस्कुराई, "दिल की बात कह दी या शायरी की तारीफ की?"
"दोनों।" आरव ने मुस्कुराकर जवाब दिया।
बस, वहीं से बातों का सिलसिला शुरू हुआ। आयत और आरव अब रोज़ मिलने लगे — लाइब्रेरी में, कैंटीन में, कभी बुक फेयर में, तो कभी इंडिया गेट की उन सड़कों पर जहाँ सपने धीरे-धीरे सच्चे लगने लगते हैं।
आरव को आयत की बातें अच्छी लगती थीं — उसका बेझिझक बोलना, उसकी शायरी, उसका हर चीज़ को महसूस करना।
आयत को आरव की खामोशी में शोर सुनाई देता था — जैसे वो बहुत कुछ कहना चाहता हो, पर कह नहीं पाता।
इश्क़ धीरे-धीरे उन दोनों के बीच अपने पैर पसार रहा था। पर किसी ने कुछ नहीं कहा।
एक शाम इंडिया गेट पर बैठते हुए आयत ने कहा, "अगर मैं एक दिन बिना बताए चली जाऊं, तो क्या करोगे?"
आरव चौंका, "ऐसी बात क्यों सोचती हो?"
"क्योंकि ज़िन्दगी इत्तेफ़ाक़ों से भरी है। और मोहब्बत... मोहब्बत अगर मुक़म्मल हो जाए, तो कहानी ख़त्म हो जाती है।"
"तो क्या तुम चाहती हो कि हमारी कहानी अधूरी रहे?"
आयत कुछ नहीं बोली। उसकी आंखों में हल्का-सा नमक तैर गया।
एक हफ़्ते बाद — आयत गायब थी।
फोन स्विच ऑफ़। सोशल मीडिया साइलेंट। हॉस्टल खाली। बस एक डायरी थी, जो आरव को उसके कमरे में मिली।
डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा था —
"अगर मेरी मोहब्बत सच्ची है, तो इत्तेफ़ाक़ हमें फिर मिलाएगा। तब शायद मैं कह सकूँगी — हां, मैं भी तुमसे मोहब्बत करती हूं..."
आरव ने महीनों इंतज़ार किया। फिर पढ़ाई खत्म की, नौकरी की तलाश में मुंबई चला गया।
वक़्त बीतता गया — लेकिन आयत का नाम जैसे उसकी धड़कनों में स्थायी हो गया था।
तीन साल बाद —
एक लिटरेचर फेस्ट में आरव, अब एक उभरता हुआ लेखक, अपनी पहली किताब "इत्तेफाक़-ए-मोहब्बत" का प्रमोशन कर रहा था। उसी किताब में वो डायरी के हिस्से, उसकी मोहब्बत, और उसकी अधूरी कहानी थी।
फेस्ट के बीचों-बीच भीड़ में एक चेहरा उसे दिखा — जानी-पहचानी आंखें, वही हल्की मुस्कान।
"आयत?"
वो पलटा।
वो सामने थी। तीन सालों के बाद, बिल्कुल वैसी ही।
"तुम्हारी किताब ने मुझे वापस खींच लाया..."
उसने धीरे से कहा।
आरव बस देखता रहा।
"मैं डर गई थी," आयत बोली, "क्योंकि मुझे लगा कि अगर मैंने तुम्हें प्यार कर लिया, तो तुम्हारी ज़िन्दगी भी मेरी तरह उलझ जाएगी। लेकिन तुम्हारी मोहब्बत ने मुझे अपनी सबसे बड़ी उलझन से आज़ाद कर दिया।"
आरव ने उसका हाथ थामा और बोला —
"अब इत्तेफ़ाक़ को मुक़द्दर बना देते हैं।"
अंतिम पंक्तियाँ:
कभी-कभी मोहब्बत कहने से नहीं, निभाने से मुकम्मल होती है। और इत्तेफ़ाक़ अगर सच्चा हो, तो मोहब्बत लौट कर ज़रूर आती है।