"अलौकिक दीपक" – एक आध्यात्मिक कहानी(Spiritual Story in Hindi)बहुत समय पहले की बात है। हिमालय की तराई में बसा एक छोटा सा गांव था — मुक्तेशपुर। यहां के लोग सीधे-सादे थे, परंतु जीवन की भागदौड़ में ईश्वर और आत्मा से उनका नाता लगभग टूट चुका था।गांव के एक कोने में एक बूढ़ा साधु रहता था — स्वामी परमानंद। वह न किसी से ज्यादा बोलते थे, न मांगते थे, बस अपने कुटिया के बाहर बैठकर एक पुराना दीपक जलाते रहते थे, जो कभी बुझता नहीं था।गांव के बच्चे उस दीपक को “चमत्कारी दीपक” कहते थे। कोई कहता, उसमें दिव्य शक्ति है, कोई कहता — वो भगवान का प्रतिरूप है। लेकिन किसी को उसकी असली कहानी नहीं पता थी।एक दिन...गांव का एक युवक, अर्जुन, जो हमेशा प्रश्नों से घिरा रहता था — “ईश्वर है या नहीं?”, “आत्मा क्या होती है?”, “शांति कहां मिलती है?” — वह स्वामी जी के पास पहुंचा।अर्जुन ने पूछा,“बाबा, ये दीपक इतना खास क्यों है? इसमें ऐसा क्या है कि यह कभी बुझता नहीं?”स्वामी परमानंद मुस्कराए और बोले:“बेटा, यह दीपक तब तक जलता है, जब तक किसी का मन शांत होता है। यह ईश्वर की उपस्थिति का प्रतीक है।”अर्जुन चकित हुआ —“मतलब, अगर मन अशांत हो तो ये बुझ जाएगा?”“हां,” स्वामी बोले, “और यही तुम्हारी परीक्षा है।”स्वामी ने उसे एक काम सौंपा:“तीन दिन इस दीपक को ले जाओ, ध्यान और सेवा के साथ रखो। यदि यह बुझ गया, तो समझो कि तुम्हारा मन अभी भी द्वंद्व में है। यदि जलता रहा, तो तुम्हें आत्मज्ञान का पहला अनुभव होगा।”अर्जुन दीपक को घर ले गया।पहले दिन: उसने पूरे दिन ध्यान किया, पर उसका मन भटकता रहा — कभी अतीत में, कभी भविष्य में। दीपक की लौ हलकी पड़ने लगी।दूसरे दिन: उसने सेवा की, अपने माता-पिता की मदद की, गरीब को खाना दिया, और रात को जब ध्यान में बैठा, दीपक स्थिर था।तीसरे दिन: उसने पूरा दिन मौन में बिताया। भीतर की आवाजें सुनने लगा। उस रात, जब उसने आंखें खोलीं — दीपक की लौ और तेज हो चुकी थी।वह दौड़ता हुआ स्वामी परमानंद के पास पहुंचा —“बाबा, ये दीपक बुझा नहीं! इसका अर्थ...?”स्वामी मुस्कराए,“अब तू समझा, अर्जुन — ईश्वर बाहर नहीं, भीतर है। जब मन शांत हो, सेवा हो, और प्रेम हो — वहीं परमात्मा प्रकट होता है।”उस दिन से अर्जुन साधारण युवक नहीं रहा।वह खुद प्रकाश बन गया। और दीपक? वो अब हर किसी के भीतर जलने लगा — जो भी अपने अंदर झांके।---
कहानी की सीख:👉 ईश्वर कहीं बाहर नहीं, वह आपके शांत, निर्मल और सेवाभाव से भरे हृदय में है।👉 जब तक मन अशांत है, हम परमात्मा को देख नहीं सकते।
"अलौकिक दीपक – भाग 2: आत्मा का द्वार"(Spiritual Story – Part 2)
पिछली कहानी में अर्जुन ने “अलौकिक दीपक” की शक्ति को समझा और आत्मज्ञान की ओर पहला कदम बढ़ाया। पर असली यात्रा तो अभी बाकी थी...कुछ महीने बाद...
अब अर्जुन गांव में एक साधक के रूप में पहचाना जाने लगा था। लोग उसकी बातें सुनने आने लगे थे। लेकिन अर्जुन जानता था कि उसका अहंकार धीरे-धीरे सिर उठा रहा है।उसके मन में एक दिन विचार आया:"मैं अब जान चुका हूं ईश्वर क्या है। शायद मैं भी किसी दिन स्वामी परमानंद की जगह ले सकता हूं।"
यही विचार, उसकी अगली परीक्षा बन गया।एक रात...
अर्जुन अपने ध्यान में बैठा, और दीपक उसके सामने जल रहा था। पर इस बार... अचानक एक तेज हवा का झोंका आया और दीपक बुझ गया।
वह चौंक गया।"मैंने तो मन को साध लिया था, फिर ये दीपक क्यों बुझा?"
वह भागता हुआ स्वामी परमानंद के पास पहुंचा और बोला,“बाबा! दीपक बुझ गया। मैंने कुछ गलत नहीं किया, फिर भी?”
स्वामी जी ने आंखें बंद कीं और कहा:“अर्जुन, तूने सेवा की, ध्यान किया, लेकिन... तू एक चीज हार गया — विनम्रता। तूने खुद को ज्ञानी मान लिया। अहंकार — वो सबसे बड़ा अंधकार है जो किसी भी दीपक को बुझा सकता है।”अर्जुन की आंखें भर आईं।
वह बोला,“बाबा, तो अब क्या करू?”
स्वामी बोले,“जैसे दीपक को दोबारा जलाने के लिए माचिस नहीं, संकल्प चाहिए — वैसे ही आत्मा को फिर से जगाने के लिए अहंकार को त्यागना होगा। नीचे झुक, और फिर ऊपर उठ।”
अर्जुन ने उसी क्षण पृथ्वी को छूते हुए प्रणाम किया।उसका अहंकार गिरा, और उसी क्षण, बिना किसी हवा या माचिस के — दीपक स्वयं जल उठा।स्वामी मुस्कराए:
“अब तू सच्चा साधक बना है। ज्ञान वह नहीं जो सिर में हो, ज्ञान वह है जो हृदय में उतर जाए।”कहानी की दूसरी सीख:
👉 आत्मज्ञान की राह सीधी नहीं, कठिन है।👉 सबसे बड़ा शत्रु अहंकार है।👉 जब विनम्रता आती है, तभी आत्मा का द्वार खुलता है।
अगर तुम चाहो, तो इसका तीसरा भाग भी लिख सकती हूँ — जिसमें अर्जुन अपने गांव को भी आध्यात्मिक रूप से जागरूक बनाता है।
बताओ, क्या लिखूं अगला भाग? 🌿✨