हमारे समाज की Conditioning
हम पैदा होते हैं एक खुली किताब की तरह — न कोई डर, न कोई सोच, न कोई सीमा। लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमारे आसपास का समाज, परिवार, शिक्षक, रिश्तेदार, दोस्त — सब हमें बताने लगते हैं कि क्या सही है, क्या गलत है, किससे डरना है, किससे उम्मीद रखनी है, और किस हद तक सपने देखने चाहिए।
यह प्रक्रिया धीरे-धीरे हमारे दिमाग़ की “प्रोग्रामिंग” बन जाती है। इसे ही कहते हैं conditioning — एक ऐसी मानसिक स्थिति जिसमें हम खुद की सोच से ज़्यादा समाज की सोच से प्रभावित हो जाते हैं।
“ये तुम्हारे बस की बात नहीं है”
ये एक वाक्य है जो कई सपनों की मौत का कारण बन चुका है।
जब कोई बच्चा कहता है, “मैं वैज्ञानिक बनना चाहता हूँ,” तो कई बार जवाब आता है, “अरे बेटा, हमारे यहाँ कौन scientist बन पाया है?”
या जब कोई कहता है, “मैं बिजनेस करना चाहता हूँ,”
तो जवाब होता है, “बिजनेस में बहुत रिस्क है, नौकरी कर लो।”
समाज ने हमें सुरक्षा का भ्रम दिया है।
और सबसे बड़ा धोखा यह होता है कि हम अपनी औकात उसी के हिसाब से तय करने लगते हैं।
हमें डर लगना सिखाया गया है
कभी-कभी डर हमारे अंदर से नहीं आता, उसे सिखाया जाता है।
“फेल मत होना, वरना लोग क्या कहेंगे।”“अगर नौकरी नहीं मिली तो ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी।”“अगर सपनों के पीछे भागे तो घर कैसे चलेगा?”
ये बातें पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही हैं। एक माँ-बाप अपने बच्चे को वही डर सिखाते हैं जो कभी उन्हें उनके माँ-बाप ने सिखाया था। और इस तरह हम सब dreamers नहीं, followers बन जाते हैं।
Conditioning तोड़ी जा सकती है
खुशखबरी ये है कि यह conditioning स्थायी नहीं है।
अगर यह सिखाई गई है, तो इसे अनसीखा भी जा सकता है।
जब आप अपने डर को पहचानते हैं, उसकी जड़ तक जाते हैं, और पूछते हैं —
“क्या यह डर मेरा है या समाज का?”
— तब आप आज़ाद होने लगते हैं।
हर बार जब आप कुछ अलग करने की सोचते हैं, और आपके मन में यह आता है कि “लोग क्या कहेंगे?” — तो रुकिए, और खुद से पूछिए:
“अगर मैं सफल हो गया, तो लोग क्या कहेंगे?”
क्योंकि समाज वही है जो आज किसी को पागल कहता है और कल उसे ही “महान” बना देता है।
निष्कर्ष (Conclusion):
हमारा समाज हमें बचपन से ही सीमाओं में ढालने की कोशिश करता है—यह सिखाता है कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं, किससे डरना चाहिए, और कहाँ तक सपने देखने चाहिए। यह सोच धीरे-धीरे हमारे मन की “conditioning” बन जाती है, जो हमारे आत्मविश्वास और सपनों पर असर डालती है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह conditioning स्थायी नहीं है। जिस तरह यह सिखाई गई है, उसी तरह इसे बदला भी जा सकता है। अपने भीतर की आवाज़ को सुनना, समाज की राय से ऊपर उठना और अपने सपनों पर विश्वास करना ही सच्ची आज़ादी है। याद रखिए, दुनिया उन्हीं को याद रखती है जो समाज की सीमाओं को लांघकर अपने रास्ते खुद बनाते हैं।
“सोच उधार ली गई हो, तो सपने भी उधारे लगते हैं।
अपने रास्ते खुद चुनो — क्योंकि वही तुम्हारी असली उड़ान होगी।”
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