चुप्पी की भाषा”
June 28, 2025
“जब शब्द बेमानी हो जाएँ, तो चुप्पी बोल उठती है।”
1. चुप्पी का इन्कार
राघव को अब किसी की आवाज़ का इंतज़ार नहीं था। वो जानता था कि कुछ जवाब कभी नहीं आते, और कुछ सवाल बस सवाल ही रह जाते हैं। पर भीतर कहीं एक कोना अभी भी था, जो कभी-कभी कह उठता—
“काश कोई पूछे… तू चुप क्यों है?”
पर राघव ने अब ये उम्मीद भी त्याग दी थी। उसने खुद से कहना शुरू किया—
“मैं चुप हूँ, क्योंकि मैंने बहुत कुछ कहा… और सब कुछ व्यर्थ गया।”
अब चुप्पी उसका हथियार थी, उसका कवच, और शायद उसकी सबसे सच्ची अभिव्यक्ति।
2. शब्दों का मूल्य
एक दिन एक पुराना परिचित मिला, बोला—
“तेरे स्टेटस बहुत भारी होते हैं, यार। दिल दुखा देते हैं।”
राघव ने हल्के से कहा,
“शब्द तभी भारी लगते हैं जब वो दिल को छूते हों। वरना तो हर दिन हज़ारों शब्द हवा में उड़ते हैं, कोई असर नहीं होता।”
वो जानता था, लोग शब्दों से डरते नहीं, अपने अंदर पैदा होने वाले सच्चे भावों से डरते हैं। जो चीज़ें उन्हें उनकी असलियत से मिला दें, उनसे वो कतराते हैं।
3. रिश्तों की दरारें
राघव ने अब बात करना भी चुनिंदा लोगों से ही रखा था। पहले वो हर रिश्ते को बचाने की कोशिश करता था। अब वो हर रिश्ते को एक चुप्पी की कसौटी पर कसता था—
“अगर मेरी चुप्पी तुम्हें असहज करती है, तो सोचो मेरी कहनियों ने कितना बोझ उठाया होगा।”
कई रिश्ते खुद-ब-खुद छंटते गए, जैसे पतझड़ में सूखे पत्ते।
4. आत्मसंतुलन की ओर
अब वो लिखता था, लेकिन दिखाने के लिए नहीं। अब वो सोचता था, लेकिन साबित करने के लिए नहीं। उसकी डायरी में एक पंक्ति बार-बार आती थी—
“मैं अब किसी को नहीं मनाऊँगा। जो जुड़ना चाहे, चुप्पी में भी जुड़ जाएगा।”
उसने अपने शब्दों को बंद कर दिया, और खुद को खोल दिया।
5. संवाद से मौन तक
एक समय था जब राघव हर किसी को समझाना चाहता था—अपने विचार, अपनी भावनाएँ, अपनी सच्चाइयाँ। अब वह केवल खुद को सुनता था। हर दिन की शुरुआत एक वाक्य से होती:
“आज खुद से क्या कहना है?”
हर रात की समाप्ति एक आत्म-प्रश्न से होती:
“क्या आज खुद को समझ पाया?”
6. एक नई शुरुआत
राघव अब भी वही था—पर उसमें एक शांत आग जल रही थी। अब वो टूटता नहीं था, झुकता नहीं था। बस चुप रहकर वो अपनी दुनिया बनाता जा रहा था।
किसी ने हाल ही में पूछा—
“तेरे पोस्ट पढ़कर लगता है तू बहुत टूटा हुआ है।”
राघव मुस्कराया, “टूटा नहीं हूँ… तराशा गया हूँ।”
अंतिम पंक्तियाँ:
अब शब्द नहीं गूंजते, चुप्पियाँ बोलती हैं।
अब उम्मीद नहीं होती, अनुभव होते हैं।
अब हर घाव कविता बन जाता है,
और हर चुप्पी एक नयी कहानी।
– धीरेंद्र सिंह बिष्ट
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