Pishachani ka Shraap - 1 in Hindi Horror Stories by Ashutosh Moharana books and stories PDF | पिशाचनी का श्राप - 1

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पिशाचनी का श्राप - 1

गांव धवलपुर की हवा में एक अजीब सी सड़ांध फैली थी। ऐसा लग रहा था जैसे धरती के नीचे कोई पुराना जख्म सड़ रहा हो। हवा ठंडी नहीं थी, लेकिन उसमें एक अजीब भारीपन था—जैसे कोई अदृश्य ताकत हर सांस के साथ शरीर में उतर रही हो।

अमावस्या की रात थी। आसमान काले कोहरे से ढँका था, चाँद कहीं नहीं था, और तारों ने मानो अपनी आँखें मूँद ली थीं। हर घर के बाहर नींबू-मिर्ची टांगी गई थी, तुलसी पर घी का दीपक जल रहा था और गांव वाले अपने घरों के भीतर दरवाज़े बंद करके बैठ गए थे।

बच्चों को खाट के नीचे छुपा दिया गया था, और बुजुर्ग बुदबुदा रहे थे,
"आज मत निकलिए... आज फिर उसकी भूख जागेगी..."

गांव के सबसे पुराने बुज़ुर्ग भैरों काका ने फिर से वही कहानी सुनाई, जो वो हर अमावस्या को दोहराते थे —
"कई बरस पहले, मायरा नाम की एक लड़की थी — सीधी-सादी, मासूम। उसकी मुस्कान से फूल खिलते थे, और उसकी छुअन से घाव भरते थे। लेकिन उसकी किस्मत बेरहम थी।"

वो बताते थे कि जब दो बच्चे रहस्यमयी परिस्थितियों में मरे और खेतों में पानी सूख गया, तो डर ने लोगों की समझ छीन ली। किसी ने कहा, "ये सब मायरा की नजर है," और फिर पूरे गांव ने अपनी सारी नाकामियों का दोष उसी पर मढ़ दिया।

उसे गांव के बाहर वाले पीपल के पेड़ से बांध दिया गया। वह चीखी, चिल्लाई, गिड़गिड़ाई, लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। और फिर... आग लगा दी गई। उसका चीखना, उसका जलना… वो दृश्य इतना भयावह था कि कई लोगों की रातों की नींद उड़ गई। पर अफ़सोस, अब पछताने से क्या?

कहते हैं, उसकी आत्मा कभी मुक्त नहीं हुई। वह बदले की आग में जलती रही… और धीरे-धीरे वह पिशाचनी बन गई।

अब हर अमावस्या की रात, धवलपुर की हवाओं में मायरा की जली हुई आत्मा तैरती है। वह जिसे छू लेती है, उसका कोई नामो-निशान नहीं मिलता। गायब लोग वापस नहीं आते—ना जिंदा, ना मरे।

लेकिन उस रात कुछ अलग था।

शीतला देवी मंदिर के पुजारी हरिदत्त जी की बेटी विद्या, जो सदा माँ शीतला की सेवा में लगी रहती थी, को उस रात एक अजीब सपना आया।

सपने में वह खुद को उसी पीपल के पेड़ के पास खड़ी पाती है, जहां मायरा को जलाया गया था। चारों ओर घना अंधकार और एक औरत की दिल दहला देने वाली चीखें। आग में लिपटी वह औरत बिलख रही थी—
"मुझे क्यों जलाया?... मैंने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा..."

विद्या चौंककर उठ बैठी, उसका शरीर पसीने से तर-बतर था, साँसें तेज़, आँखें डरी हुई। लेकिन डर का असली एहसास अभी बाकी था।

बाहर की हवा अचानक बहुत ठंडी हो गई थी, जैसे सर्दी के बीचोंबीच बर्फीली हवाएं चल रही हों। उसने खिड़की की ओर देखा… और उसका दिल बैठ गया।

मंदिर के पास, दीपक की हल्की रोशनी में, उसे एक काली परछाईं दिखी। वह किसी को घसीट रही थी—एक इंसान को।

"माँ...!" विद्या चीखी, लेकिन आवाज़ उसके गले में ही रुक गई। वह ज़मीन पर गिर पड़ी, उसकी आँखें खुली थीं लेकिन शब्द मर चुके थे।

जब सुबह हुई, और विद्या ने अपनी आँखें खोलीं, तो घर में मातम पसरा था।

उसकी माँ, शांता, जो रोज़ देवी की पूजा करती थी, जो हर अनाथ और भूखे को खाना देती थी… वो लापता थी। कोई निशान नहीं, कोई चीख नहीं, कोई दरवाज़ा टूटा नहीं—बस एक बात तय थी—पिशाचनी उसे ले गई थी।

लेकिन विद्या जानती थी—यह अंत नहीं है।
अब डरने का समय नहीं, टकराने का समय था।