Gazal - Sahara me Chal ke Dekhte Hain - 1 in Hindi Poems by alka agrwal raj books and stories PDF | ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 1

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ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 1

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️

****ग़ज़ल ******

 

क्या नया अपना लें सारा  सब पुराना छोड़ दें।

लोग कहते हैं हमें गुज़रा ज़माना छोड़ दें।।

 

कब कहा है मैंने ये सारा ज़माना छोड़ दें।

मेरे ख़ातिर अपने दिल में इक ठिकाना छोड़ दें।।

 

ये तो सब होता ही होगा वो सब होना है जो।

ज़ल जलों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें।।

 

सिर्फ़ मेरा दिल नहीं मुजरिम दयारे- इश्क़ का।

आप अब इल्ज़ाम ये मुझ पर लगाना छोड़ दें।।

 

अश्क बारी में गुज़र जाए न अपनी ज़िन्दगी।

ऐ ! ख़ुदा हंसने का क्या इंसां बहाना छोड़ दें।।

 

ये शरर हैं रौशनी इनसे नहीं हो पायेगी ।

आप चिंगारी से अब दीपक जलाना छोड़ दें।।

 

कम न होगी मुश्किलें आँसू बहाने से कभी।

दौरे - गर्दिश में भी क्यूँ हम मुस्कुराना छोड़ दें।।

 

हौसले क़ायम रखें इन मुश्किलों के दौर में

ख़ौफ़ से ज़ालिम के हम क्या मुस्कुराना छोड़ दें।।

 

ज़िन्दगी ने " राज़ "बख़्शी हैं फ़क़त तारीकियाँ।

इसलिए हम घर में क्या दीपक जलाना छोड़ दें।।

 

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️

******ग़ज़ल****

बड़ी मुश्किल से  हम इस  दिल को अब तक के सम्भाले हैं।

हमें लगता है के वो सारे रिश्ते कट ने वाले हैं।।

 

ज़माने तेरे जो दस्तूर  हैं कितने निराले हैं।

उजालों में अँधेरे हैं अंधेरों में उजाले हैं।।

 

तिरे ये होंट जैसे के कोई य मे के पियाले हैं।

इन्हीं में आके डूबेंगे यहाँ जो पीने वाले हैं।।

 

कोई भी साथ देता ही नहीं है वक़्ते मुश्किल भी।

यहाँ पर लोग जितने हैं सभी वो देखे भाले हैं।।

 

हमारा नाम मरकर भी अमर है आज भी देखो।

हमारे नाम के दुनिया ने भी सिक्के उछाले हैं।।

 

महक उठते ना क्यूँकर दोस्तों अशआर मेरे ये।

इन्हें ख़ून ए जिगर से  सींच कर मैंने जो पाले है।।

 

जहाँ रौनक़ ही रौनक़ " "राज़" थी चारों  तरफ़ लेकिन।

नहूसत है उन्हीं महलों में अब मकड़ी के जाले है।।

 

अलका " राज़ " अग्रवाल ✍️✍️

*,****ग़ज़ल *******

हमारा रोज़ नदी से गुज़र है क्या कहिये।

सहारा कोई नहीं तैरकर है क्या कहिये।।

 

ये नफ़रतों का जहां में समर है क्या कहिये।

ज़मीन ख़ून से अब तर ब तर है क्या कहिये।।

 

सभी की माल प अटकी नज़र है क्या कहिये।

हरेक शख़्स यहाँ दांव पर है क्या कहिये।।

 

मैं बे ख़ुदी में बहुत दूर आ गया लेकिन।।

डगर ये कौन से अब मोड़ पर है क्या कहिये।।

 

ये हाल कैसा हुआ मुल्क का मिरे मौला।

हरेक शख़्स यहाँ चश्मे तर है क्या कहिये।।

 

ये नफ़रतों का है डेरा कहाँ नहीं ये कहो।

यहाँ वहाँ है इधर है उधर है क्या कहिये।।

 

जो ज़द में बरक़े तपाँ की रहा है बरसों से।

हमारा आशियाँ उस पेड़ पर है क्या कहिये।।

 

उसी की सम्त ये सब लौट जाएगा इक दिन।

उसी की सम्त से सब ख़ैर ओ शर है क्या कहिये।।

 

हरेक मोड़ प धोका दिया है "राज़" उसने।

ये दिल उसी का मगर मुन्तज़र है क्या कहिये।।

 

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️