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(कुछ बातें सिर्फ वक़्त के साथ समझ आती हैं… और कुछ प्यार वक़्त से पढ़े-लिखे होते हैं।)
लेक के ब्रिज से वापस आते वक़्त, हम दोनों कुछ नहीं बोले।
बस… हाथ पकड़े रखा।
जैसे बोलने की ज़रूरत ही नहीं थी।
हवेली का वो कोने वाला छोटा बग़ीचा — जहाँ चमेली की हल्की सी ख़ुशबू फैली थी —
वहीं जगह थी जहाँ राज ने मुझे रोका।
"एक बात पूछूँ?"
उसकी आवाज़ में कुछ था… जैसे कोई याद, या कोई डर।
मैं बस उसकी आँखों में देखती रही।
"तू कभी डरती है? मतलब…
इतनी सी ख़ुशी मिलती है तो लगता है कहीं सब छिन न जाए?"
मेरे दिल ने हल्का सा कम्पन महसूस किया।
क्या उसे भी वही डर है जो मुझे होता है?
मैं धीरे से बोली,
"डरती हूँ… हर बार।
जब तू पास होता है, तब और ज़्यादा।
क्योंकि ख़ुशी जितनी गहरी होती है…
उसे खोने का डर उतना ही ज़्यादा होता है।"
राज ने नरमी से मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया।
"आज जो तूने मुझे दिया है… वो मेरी ज़िंदगी के किसी भी दिन से ज़्यादा सच्चा है।"
उसने झुककर मेरे हाथ पर एक किस किया —
और उस पल में मैंने सिर्फ़ उसका एहसास नहीं,
उसकी क़सम भी महसूस की।
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तभी हवेली के एक कोने से आवाज़ आई —
"यहाँ आओ तुम दोनों… एक चीज़ दिखानी है।"
राज की बहन थी — उसके हाथ में एक पुरानी डायरी थी,
जो हवेली की लाइब्रेरी की शेल्फ के पीछे मिली थी।
डायरी की रीढ़ टूट चुकी थी… पर अंदर के पन्ने अब भी जीवित थे।
पहला पन्ना खोला… नाम लिखा था:
“रुख़सार और अरमान – 1947”
राज पिछले पन्ने पलट कर रह गया।
“ये दोनों… मेरे दादा-दादी थे,” उसने हैरानी से कहा।
“ये डायरी कभी किसी ने देखी नहीं।”
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डायरी में प्यार था, इंतज़ार था…
और एक अधूरा वादा भी था —
“अगर कभी ये हवेली किसी ऐसे जोड़े के पास आए,
जिनके दिल के जज़्बात वक़्त के पार हों,
तो वो इस कहानी को पूरा करें।”
मैं डायरी की आखिरी लाइन पर रुकी:
“चाबी सिर्फ़ दरवाज़ा नहीं, रास्ता भी होती है।”
मुझे अचानक सब कुछ समझ आने लगा…
वो चाबी जो मुझे सपने में मिली थी,
वो सिर्फ़ एक ताले को खोलने के लिए नहीं थी —
वो इस पुरानी कहानी को ज़िंदा करने के लिए थी।
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राज ने डायरी बंद की, मेरी तरफ़ देखा,
और बस एक लाइन कही —
“शायद हम दोनों… इस कहानी के अगले पन्ने हैं।”
मैं बस मुस्कुरा दी,
लेकिन अंदर कुछ हिल गया था…
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तभी राज ने डायरी फिर से खोली —
एक ख़ाली पन्ना ढूँढा।
उसने एक पेन उठाया…
और उस सफ़ेद पन्ने पर लिखना शुरू किया:
> "प्रिय रुख़सार और अरमान,
आपकी कहानी अधूरी रह गई थी…
पर शायद हर प्यार को पूरा होने के लिए एक और वक़्त चाहिए होता है।
मैं राज… और ये डिंपल,
हम दोनों मिलकर आपकी कहानी को पूरा करना चाहते हैं।
इस हवेली में, जहाँ सिर्फ़ यादें नहीं,
एक जीती-जागती रूह है…
मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ।"
उसने डायरी मेरे हाथ में दी —
और मेरे सामने ख़ुद-ब-ख़ुद दो क़दम पीछे हट गया।
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हवेली की रौशनी धीमी हो गई थी…
चाँद की रौशनी झरोखे से आ रही थी।
उसके पीछे लेक दिख रही थी — जिसमें हमारा रिफ्लेक्शन थोड़ा सा हिल रहा था…
राज ने आँखों में आँखें डालीं —
"मैं कुछ ढूँढ नहीं रहा डिंपल,
क्योंकि जो मुझे चाहिए था…
वो पहली बार तुझे देखते ही मिल गया था।
पर आज… मैं तुझे खोने से डर रहा हूँ।
तो अगर तू हाँ कहे…
तो मैं चाहता हूँ कि हर अगला सपना… हम दोनों साथ देखें।"
उसने अपनी शर्ट की पॉकेट से एक छोटी सी पुरानी अंगूठी निकाली —
ना चमकदार थी, ना परफेक्ट… पर उसमें एक कहानी थी।
"ये मेरी दादी की इंगेज़मेंट रिंग है…
और अगर तू इसे अपने हाथों में पहनेगी…
तो सिर्फ़ प्यार नहीं, एक कहानी भी ज़िंदा हो जाएगी।"
मैं बस देखती रही —
उसकी आँखों में वो वादा था जो लफ़्ज़ों से नहीं,
जज़्बात से लिखा गया था।
मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया —
और उस रिंग को पहनने दिया।
उस पल… हवेली में एक पुरानी घंटी बजी।
जैसे किसी ने ऊपर से इस प्यार पर मुहर लगा दी हो।
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हम दोनों डायरी के उस ख़ाली पन्ने के नीचे साइन करते हैं:
राज और डिंपल।
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💍 To be continued…
(इस प्रपोज़ल में ना शोर था, ना लोग…
सिर्फ़ दो दिल थे — और एक कहानी जो अब उन दोनों की अपनी बन चुकी थी।)
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धन्यवाद ❤️
आपको मेरी कहानी अच्छी लगी हो या नहीं,
आपका वक्त देना मेरे लिए बहुत मायने रखता है।
अगर कहीं कोई कमी लगी हो, या कोई पल दिल को छू गया हो —
तो ज़रूर बताइएगा।
आपका एक छोटा सा फ़ीडबैक मेरे लिए
अगली कहानी का रास्ता आसान बना सकता है।
पढ़ने के लिए दिल से शुक्रिया!
आप जैसे पाठक ही इस सफ़र को ख़ास बनाते हैं। 🌸
-डिम्पल लिम्बाचिया 🌸