साल 1942...
पूरा देश गांधी जी के "भारत छोड़ो आंदोलन" के आह्वान से उबल रहा था। हर गली, हर नुक्कड़, हर दिल में क्रांति की आग धधक रही थी। और इसी आग की तपिश में अंजलि शास्त्री की आत्मा भी तप रही थी। अब वह 12 साल की हो चुकी थी। नेत्रहीनता उसकी कमजोरी नहीं, उसका शस्त्र बन चुकी थी।
पटना के पास एक छोटे से गाँव में रहते हुए भी अंजलि की बातें आस-पास के इलाकों में फैलने लगी थीं। लोग कहते – “वो अंधी लड़की है, पर बोलती है तो जैसे देश की आत्मा बोल रही हो।”
अंजलि अब न सिर्फ गीत गाती थी, बल्कि उनमें छुपे संदेशों को संप्रेषित भी करती थी। उसने ब्रेल में संदेश लिखने का तरीका खोजा। ब्रेल अक्षरों को गुप्त संकेतों में बदलकर वह देशभक्तों तक पहुँचाती। इन संकेतों को पढ़ना हर किसी के बस की बात नहीं थी। ये कोडेड ब्रेल केवल उन्हीं के लिए था, जो अंधेरे में उजाले को महसूस करना जानते थे।
उसने अपने जैसे कई नेत्रहीन बच्चों की टोली बनाई – ‘आवाज़ों की सेना’। इस टोली का काम था घर-घर जाकर गीत गाना। लेकिन ये गीत सिर्फ गीत नहीं होते थे – ये संदेश होते थे। हर गीत में कोई कोड होता, कोई संकेत, कोई संदेश – जिसे प्रशिक्षित क्रांतिकारी समझ सकते थे।
गाँव के लोग अक्सर समझते कि ये तो भिखारी बच्चे हैं जो गा-बजा रहे हैं। कुछ सिक्के दे देते, कुछ दुत्कार देते। लेकिन इन बच्चों के मन में देशभक्ति का जुनून था। उन्होंने भिखारियों के वेश में वो काम कर दिखाया जिसे करने में बड़े-बड़े चूक जाते।
अंजलि का सबसे प्रिय गीत था:
"छोड़ो गुलामी की जंजीरें, वक्त है आज़ादी के वीरों का, आवाज़ उठाओ, दीप जलाओ, देश पुकारे, नाम लो भारत का।"
इस गीत की हर पंक्ति में एक अक्षर छिपा होता, जो मिलकर संदेश बनाता। उदाहरण के लिए – 'दीप जलाओ' का अर्थ होता कि अगले संदेश में बम की योजना है। 'नाम लो भारत का' का अर्थ होता – नेता की गिरफ्तारी की खबर फैलाई जाए। ये संकेत सिर्फ अंजलि और उसके समूह को पता थे।
अंजलि ने एक पुरानी झोपड़ी को अपना गुप्त केंद्र बनाया। वहीं बैठकर वह सूई से ब्रेल कोड उकेरती, संदेश तैयार करती और टोली के बच्चों को सिखाती कि कौन सा गीत कहाँ गाना है। वह इस पूरी योजना की मास्टरमाइंड थी – अंधी, पर दूरदर्शी।
एक दिन जब टोली पटना के एक व्यस्त बाजार में गीत गा रही थी, तो एक अंग्रेज अफसर उनकी ओर देखने लगा। उसे कुछ शक हुआ – उसे लगा कि ये बच्चे बहुत नियमित रूप से और एक खास ढंग से आते हैं। उसने एक सिपाही को अंजलि के पीछे लगा दिया।
अंजलि को इस बात का आभास हो गया। उसने अपने सुरों में बदलाव कर दिया। कोड बदल दिए। सन्देशों की भाषा भी बदल दी। अब ब्रेल में लिखे अक्षर उल्टे क्रम में होते – जो केवल प्रशिक्षित लोग समझ पाते।
इतना ही नहीं, उसने यह सुनिश्चित किया कि टोली के बच्चे दिन में गाएँ, और रात में संदेश पहुँचाएँ। रात में वे गाँव के उन घरों में जाते जहाँ देशभक्त रहते। वे दीवारों पर ब्रेल में संदेश उकेरते – मिट्टी की दीवारों पर सुई की मदद से। सुबह-सुबह उन्हें पढ़कर योजनाएँ बनतीं।
अंजलि का साहस बढ़ता जा रहा था। वह अब आसपास के गाँवों में भी जाने लगी थी। एक बार गया जिले में जाते वक्त अंग्रेजों की एक टुकड़ी ने टोली को रोक लिया। पूछताछ की गई – “तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो?”
अंजलि ने जवाब दिया, “हम गीत गाते हैं साहब। लोगों का मनोरंजन करते हैं।”
अंग्रेज अफसर ने जब उनकी आँखों की ओर देखा, तो बोला – “तुम अंधे हो? तो क्या देखोगे कि आज़ादी कैसी दिखती है?”
अंजलि बोली – “हम आज़ादी को देखते नहीं, महसूस करते हैं। और जो महसूस करता है, वही सच्चा देखता है।”
उसकी बातों में इतना विश्वास था कि अफसर उलझन में पड़ गया। उसने उन्हें जाने दिया। लेकिन इसके बाद टोली और भी सतर्क हो गई।
अब संदेश केवल ब्रेल में नहीं, ध्वनियों में भी आने लगे। अंजलि ने संगीत की लय में ऐसे संकेत जोड़े कि गीत की गति बढ़े तो समझो – खतरा नजदीक है। यदि गीत की अंतिम पंक्ति दोहराई जाए – तो इसका मतलब था – योजना में बदलाव करो।
उसकी टोली अब "संगीत जासूसों की टुकड़ी" बन गई थी।
इन बच्चों में हिम्मत थी, सूझ-बूझ थी, और सबसे बढ़कर – देशभक्ति थी। एक अंधी लड़की ने उन्हें ये सब सिखाया था।
धीरे-धीरे, इन गीतों और संदेशों की वजह से कई बार अंग्रेज टुकड़ियाँ भ्रमित हो गईं। गलत जगह छापेमारी होती, और असली योजनाएँ सफल होतीं।
अंजलि अब केवल एक लड़की नहीं थी – वह क्रांति की अदृश्य मशाल बन चुकी थी।
(जारी...)
[आगे: भाग 3 में – अंजलि की गिरफ्तारी और बहादुरी]