भूल-7
संयुक्त भारत के लिए बनाई गई ‘कैबिनेट मिशन योजना’ को विफल करना
ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने 15 मार्च, 1946 को हाउस अॉफ कॉमन्स को बताया, “भारत अगर स्वतंत्रता के लिए चुनाव करता है तो उसके पास ऐसा करने का अधिकार है।” राज ने आखिरकार पैकअप करने का फैसला कर लिया है। 23 मार्च, 1946 को एटली की पहल पर भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा करने एवं योजना बनाने और भारतीय नेतृत्व को सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया के लिए एक ब्रिटिश ‘कैबिनेट मिशन’ भारत पहुँचा, जिसमें तीन कैबिनेट मंत्री—लॉर्ड पेथिक-लॉरेंस, भारत के राज्य सचिव; सर स्टेफोर्ड क्रिप्स, व्यापार मंडल के अध्यक्ष और ए.वी. अलेक्जेंडर, एडमिरल्टी के प्रथम लॉर्ड शामिल थे।
आई.एन.सी. (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) और ए.आई.एम.एल. (ऑल इंडिया मुसलिम लीग) के साथ उनकी चर्चा किसी एक ऐसे मतैक्य तक नहीं पहुँची, जो दोनों ही पक्षों को स्वीकार हो। इसलिए आगे बढ़ने का रास्ता तैयार करने के क्रम में कैबिनेट मिशन ने एक एक तरफा योजना (‘16 मई, कैबिनेट मिशन योजना’) प्रस्तावित की, जिसे प्रधानमंत्री एटली ने 16 मई, 1946 को हाउस अॉफ कॉमन्स में घाेषित किया था, जिसमें अन्य चीजों के साथ यह भी स्पष्ट किया गया था कि स्वतंत्रता एक संयुक्त भारतीय उपनिवेश को प्रदान की जाएगी, जो प्रांतों का एक खुला परिसंघ होगा; और साथ ही मुसलिम लीग की पाकिस्तान की माँग को ठुकरा दिया गया था।
गांधी की कृपा से नेहरू अप्रैल 1946 के अंत में कांग्रेस के अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे और इसके चलते उनका देश का पहला प्रधानमंत्री (भूल#6) बनना तय था। नेहरू ने अपनी अध्यक्षता के प्रारंभ में ही एक बड़ी गलती की। 25 जून, 1946 को ‘16 मई, कैबिनेट मिशन योजना’ सी.डब्ल्यू.सी. की स्वीकृति और ए.आई.सी.सी. द्वारा उसके अनुसमर्थन के बाद नेहरू ने 7 जुलाई, 1946 को ए.आई.सी.सी. में टिप्पणी की—
“ ...हम एक भी बात से बँधे हुए नहीं हैं, सिवाय इसके कि हमने संविधान सभा में जाने का फैसला किया है। एक बार आजाद हो जाने के बाद भारत वही करेगा, जो उसे पसंद होगा।” (मैक/83)
तीन दिन बाद 10 जुलाई, 1946 को बंबई में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने घोषणा की ‘कांग्रेस सभी समझौतों से पूरी तरह से मुक्त होगी और सामने आने वाली तमाम परिस्थितियों से अपने तरीके से निबटने के लिए स्वतंत्र होगी।” (आजाद/164) और यह भी कि “केंद्रीय मंत्रिमंडल उससे कहीं अधिक शक्तिशाली होगा, जिसकी कल्पना कैबिनेट मिशन ने की थी।”
इसके अलावा, नेहरू ने इस बात पर भी जोर दिया कि कांग्रेस खुद को ‘कैबिनेट मिशन योजना’ को उस हिसाब से बदलने या संशोधित करने के लिए स्वतंत्र मानी जाएगी, जो उसे सबसे बेहतर लगता है। (आजाद/165)
आखिर, नेहरू किस हैसियत से उसमें एक तरफा बदलाव की बात कर सकते थे, जिस पर कांग्रेस, मुसलिम लीग और ब्रिटिश सरकार के बीच आपसी सहमति बनी थी? ऐसा करने पर समझौते की पवित्रता का क्या होता? इसके बाद नेहरू ने ‘16 मई की योजना’ में प्रस्तावित समूहों को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की।
नेहरू की अक्षम्य भूलों के प्रभाव—
1. जिन्ना ने दोबारा पाकिस्तान की माँग उठाई,
2. कलकत्ता का नर-संहार और उसके बाद हुए अन्य दंगे।
ऐसा लगता था कि जिन्ना ‘16 मई की योजना’ को स्वीकार करने और इसके परिणामस्वरूप एक स्वतंत्र इसलामिक देश पाकिस्तान की माँग को छोड़ देने के चलते अपने सहयोगियों और समर्थकों के भारी दबाव में थे। नेहरू के इस बयान ने जिन्ना को योजना के पूर्व में दी गई स्वीकृति को नकारने का और एक अलग देश पाकिस्तान की माँग उठाने का एक बहाना दे दिया। सरदार पटेल ने डी.पी. मिश्रा को लिखा—
“हालाँकि अध्यक्ष (नेहरू) चौथी बार चुने गए हैं, वे अकसर बच्चों वाली मासूमियत से भरे काम करते हैं, जो हम सभी को बेहद अप्रत्याशित तरीके से बड़ी परेशानियों में डाल देते हैं। आपके पास नाराज होने की अच्छी वजह है; लेकिन हमें अपने गुस्से को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। उन्होंने हालिया दिनों में कई ऐसे काम किए हैं, जिनके चलते हमें काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। कश्मीर में उनका कदम, संविधान सभा के लिए सिख के चुनाव में उनका हस्तक्षेप, ए.आई.सी.सी. के तुरंत बाद उनका संवाददाता सम्मेलन—ये सब भावनात्मक उन्मत्तता से भरे कदम हैं और ये हम सब पर चीजों को दोबारा सँभालने के लिए जबरदस्त दबाव डालते हैं।” (मैक/86)
मौलाना आजाद ने नेहरू के कदम को उन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में से एक बताया, जो इतिहास की दिशा और दशा को बदल देते हैं।” (आजाद/164)
मौलाना आजाद ने लिखा—
“कार्य समिति (सी.डब्ल्यू.सी.) की बैठक तदनुसार 8 अगस्त (1946) को हुई और पूरी स्थिति की समीक्षा की गई। मैंने इस बात पर जोर दिया कि अगर हम स्थिति को सँभालना चाहते हैं तो हमें यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि बंबई में आयोजित संवाददाता सम्मेलन (10 जुलाई, 1946 को : कृपया ऊपर देखें) कांग्रेस अध्यक्ष (नेहरू) द्वारा दिया गया बयान उनकी निजी राय थी। जवाहरलाल ने कहा कि उन्हें इस बात पर कोई ऐतराज नहीं है; लेकिन उन्हें लगा कि ऐसा करना संगठन के लिए भी और व्यक्तिगत रूप से उनके लिए भी बेहद शर्मनाक होगा।” (आजाद/166)
कांग्रेस ने नेहरू के बयान से पल्ला झाड़ने की पूरी कोशिश की और ‘16 मई की योजना’ को लेकर अपनी प्रतिबद्धता का भरोसा देते हुए बयान जारी किए। लकिन तीर तो एक बार कमान से निकल चुका था। जिन्ना को वह बहाना और वह मौका मिल गया था, जिसकी उन्हें तलाश थी।
मौलाना आजाद, जिन्होंने हमेशा पटेल के मुकाबले नेहरू का पक्ष लिया, ने अपनी आत्मकथा में लिखा है—
“सभी तथ्यों पर विचार करते हुए मुझे ऐसा लगा कि नेहरू को नया अध्यक्ष (1946 में कांग्रेस का और इसलिए पी.एम.) बनाया जाना चाहिए। तदनुसार मैंने 26 अप्रैल, 1946 को अध्यक्ष पद के लिए उनके नाम का प्रस्ताव करते हुए एक बयान जारी कर दिया। (उसके बाद) मैं जो अच्छे-से-अच्छा कर सकता था, वह मैंने किया। लेकिन उसके बाद से चीजें जिस प्रकार से घटित हुई हैं, उन्होंने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि यह शायद मेरे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। मेरी दूसरी गलती यह थी कि मैंने जब स्वयं खड़े नहीं होने का निश्चय किया तो सरदार पटेल का समर्थन भी नहीं किया। कई मुद्दों पर हमारी राय बिल्कुल जुदा थी; लेकिन मुझे इस बात का पूरा भरोसा है कि अगर उन्होंने मेरे बाद कांग्रेस के अध्यक्ष का पद सँभाला होता तो उन्होंने कैबिनेट मिशन योजना को सफलतापूर्वक लागू किया जाना जरूर सुनिश्चित किया होता। उन्होंने कभी भी ऐसी गलती नहीं की होती, जैसी जवाहरलाल ने की, जिसने श्रीमान जिन्ना को योजना को नाकाम करने का मौका प्रदान किया। मैं जब भी यह सोचता हूँ कि अगर मैंने ये गलतियाँ नहीं की होतीं तो अंतिम दस वर्षों का इतिहास शायद बिल्कुल ही अलग होता और मैं खुद को इसके लिए कभी माफ नहीं कर सकता।” (आजाद/162)
जिन्ना और मुसलिम लीग ने नेहरू के इस गलत कदम का पूरा लाभ उठाया। जिन्ना ने ब्रिटिशों को यह समझाया कि नेहरू की टिप्पणी ‘16 मई की योजना’ को ‘पूर्णतः नकारने’ के बराबर थी और इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से यह उम्मीद की कि वह सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के बजाय उन्हें आमंत्रित करें। ब्रिटिश सरकार की तरफ से इस विषय में कोई कार्रवाई न होते देख 27 से 30 जुलाई के बीच मुसलिम लीग परिषद् की एक बैठक बंबई (मुंबई) में आयोजित हुई। जिन्ना ने सबसे बड़ा कदम उठाया। उन्होंने मुसलिम लीग को ‘16 मई की योजना’ को दी गई अपनी स्वीकृति को रद्द करने के लिए मनाया और ‘पाकिस्तान को पाने के लिए सीधी कार्यवाही करने’ की मनहूस घोषणा कर दी।
कौम को 16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट ऐक्शन डे’, यानी ‘सीधी कार्यवाही’ के रूप में मनाने का आह्वान करते हुए जिन्ना ने कहा—
“आज हम संवैधानिक तरीकों को अलविदा कहते हैं। ब्रिटिश और कांग्रेस शुरू से अंत तक अपने हाथ में पिस्तौल लिये रहे—एक अधिकार और हथियार की तथा दूसरा जन-आंदोलन और असहयोग की। आज हमने भी अपने लिए एक पिस्तौल तैयार कर ली है और हम उसका इस्तेमाल करने की स्थिति में हैं। हमारे पास या तो एक विभाजित भारत होगा या फिर एक पूरी तरह से तबाह भारत होगा।” (बी.के./250)
16 अगस्त, 1946 की तारीख को भी बड़ी चतुराई से चुना गया था। वह रमजान के पाक महीने में शुक्रवार का दिन था—एक ऐसा दिन, जिसमें मुसलमानों के बड़ी संख्या में मसजिदों में इकट्ठा होने की उम्मीद की जाती है। बाँटे गए परचों में जोर देकर कहा गया था—
‘हम सभी मुसलमानों को बारिश और सामने आने वाली परेशानियों की परवाह न करते हुए इस सीधी कार्यवाही बैठक को मिल्लत के एक ऐतिहासिक जन-समूह के जुटाव में बदल दे।’
“मुसलमानों को यह बात याद रखनी चाहिए कि रमजान के महीने में ही कुरान इलहामी हुई थी। वह रमजान ही था, जब अल्लाह ने जिहाद की इजाजत दी थी।” (पी.एफ./253)
इसे कलकत्ता के मेयर एस.एम. उस्मान द्वारा लिखित एक परचे से लिया गया है— ‘अल्लाह के करम से हम भारत में करोड़ों की तादाद में हैं; लेकिन यह हमारी बदकिस्मती है कि हम हिंदुओं और ब्रिटिशों के गुलाम बन गए हैं। रमजान के इस पाक महीने में हम आपके नाम पर एक जिहाद शुरू कर रहे हैं। हमारे सभी कामों में हमारी मदद करें, हमें काफिरों पर जीत हासिल करवाएँ, भारत में इसलाम का राज स्थापित करने में हमारी मदद करें और अल्लाह के फजल से हम भारत में दुनिया का सबसे महान् इसलामिक साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं।” (मैक/110)
“बंगाल के तत्कालीन प्रीमियर एच.एस. सोहरावर्दी के पास कानून एवं व्यवस्था का पोर्टफोलियो भी था। उन्होंने सभी हिंदू पुलिस अधिकारियों को 16 अगस्त से पहले ही स्थानांतरित कर दिया और यह सुनिश्चित किया कि 24 में से 22 पुलिस थानों के प्रभारी मुसलमान रहें, जबकि बाकी बचे 2 थानों में आंग्ल-भारतीय। इसके अलावा, उन्होंने मुसलमानों की बड़ी भीड़ को जुटाने के लिए 16 अगस्त को सार्वजनिक अवकाश भी घोषित कर दिया। मुसलिम लीग द्वारा शहर में और उसके बाहर गड़बड़ी करने के लिए बड़े पैमाने पर गुंडों और बदमाशों को तैयार किया गया। एक तरफ जहाँ मुसलमान नेताओं ने 16 अगस्त को भड़काऊ भाषण दिए, वहीं दूसरी तरफ सोहरावर्दी ने प्रीमियर पद के तमाम आदर्शों को पीछे छोड़ दिया और जुटी हुई विशाल भीड़ से कहा कि उन्होंने यह तय कर दिया है कि पुलिस और सेना जरा भी हस्तक्षेप नहीं करेगी। इसके अलावा, सोहरावर्दी ने 16 अगस्त को पुलिस नियंत्रण कक्ष का नियंत्रण भी अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने यह तय किया कि दंगा करते हुए पकड़े जाने वाले किसी भी मुसलमान को तुरंत ही रिहा कर दिया जाए! हालाँकि प्रारंभिक नुकसान और मौतों के बाद एक बार जब हिंदुओं और सिखों ने जवाबी हमला करते हुए विरोधियों को नुकसान पहुँचाना शुरू किया ऐसा कुछ, जिसकी ए.आई.एम.एल. ने कल्पना भी नहीं की थी। सोहरावर्दी ने बिना समय गँवाए सेना को बुला लिया।” (मैक/111-115)
उपर्युक्त सभी का मिला-जुला नतीजा हुआ ‘कलकत्ता नर-संहार’, ‘द ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स’। मुसलिम लीग द्वारा भड़काए गए सबसे बुरे सांप्रदायिक दंगे, जिनमें करीब 500 से लेकर 1,000 लोगों की जानें गईं, 15,000 लोग घायल हुए और 1 लाख के करीब लोग बेघर हो गए। सन् 1919 के जलियाँवाला बाग नर-संहार के कसाई डायर की ही तरह सोहरावर्दी को ‘बंगाल का कसाई’ और ‘कलकत्ता का कसाई’ के रूप में जाना जाता है। (स्वा 1)
मौलाना आजाद ने लिखा—“16 अगस्त, 1946 का दिन न सिर्फ कलकत्ता के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए काला दिन था। यह भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक थी और मुझे बहुत खेद के साथ कहना होगा कि इस तमाम घटनाक्रम के एक बड़े हिस्से के लिए जवाहरलाल नेहरू जिम्मेदार हैं। उनका यह दुर्भाग्यपूर्ण बयान कि कांग्रेस ‘कैबिनेट मिशन योजना’ को संशोधित करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होगी, ने राजनीतिक और सांप्रदायिक समझौते के पूरे सवाल को दोबारा खोलकर रख दिया।” (आजाद/170)