Nehru Files - 25 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-25

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नेहरू फाइल्स - भूल-25

भूल-25 
नेहरू की देन अनुच्छेद-370 

जम्मू व कश्मीर पर अनुच्छेद-370 नेहरू की देन है, जिन्होंने डॉ. बी.आर. आंबेडकर और सरदार पटेल सहित कइयों के विरोध के बावजूद सिर्फ शेख अब्दुल्ला के कहने पर इसे लागू किया। 

नेहरू द्वारा नियुक्त किए गए गोपालस्वामी आयंगर ने जम्मूव कश्मीर को विशेष दर्जा देने की गारंटी के साथ 17 अक्तूबर, 1949 को संविधान सभा में अनुच्छेद-306ए प्रस्तुत किया था, जो बाद में भारतीय संविधान में अनुच्छेद-370 बन गया। ऐसा सिर्फ शेख अब्दुल्ला के कहने पर और नेहरू की सहमति से किया गया था। हालाँकि संविधान सभा में मौजूद कई सदस्य इसके पक्ष में नहीं थे। उन्होंने नेहरू, जो उस समय जम्मूव कश्मीर की नीति को सँभालने वाले प्रमुख व्यक्ति थे, की इच्छा को देखते हुए, अपनी सहमति प्रदान कर दी। डॉ. आंबेडकर, मौलाना हसरत मोहानी, सरदार पटेल सहित कई अन्य इसके विरोध में थे। भारत, जो एक डोमिनियन था, 26 जनवरी, 1950 को एक गणतंत्र बन गया और जम्मूव कश्मीर के लिए अनुच्छेद-370 लागू हो गया। जम्मूव कश्मीर के लिए एक विशेष प्रावधान क्यों? अनुच्छेद-370 क्यों? आइए, जानते हैं। 

जम्मू व कश्मीर ने जून 1949 में भारतीय संविधान सभा में चार प्रतिनिधियों को नामित किया था—ये नामांकन युवराज कर्ण सिंह द्वारा शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली राज्य की अंतरिम सरकार की मंत्रिपरिषद् की सलाह पर किए गए थे। भारतीय संविधान सभा में जम्मूव कश्मीर के प्रतिनिधियों ने बाकी रियासतों से अलग तरह से काम करने का विकल्प चुना—शेख अब्दुल्ला के कहने पर। एक तरफ जहाँ बाकी की रियासतें एक समान संविधान को लेकर सहमत थीं, वहीं जम्मूव कश्मीर के प्रतिनिधियों ने कहा कि वे भारत के भविष्य के संविधान को अपनाने के इच्छुक नहीं हैं और इसके बजाय वे चाहते हैं कि उनका एक अलग राज्य संविधान हो। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अंगीकार पत्र के खंड-7 में ऐसा करने की अनुमति प्रदान की गई है। यह और बात है कि बाकी के राज्यों के प्रतिनिधि भी जम्मूव कश्मीर की तरह ही जिद पकड़ सकते थे, क्योंकि उन्होंने भी ‘इंस्ट्रूमेंट अ‍ॉफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें बिल्कुल वही प्रारूप और सामग्री मौजूद थी, जिस विलय के दस्तावेज पर जम्मूव कश्मीर के महाराजा ने हस्ताक्षर किए थे। इसके अलावा, जम्मूव कश्मीर के प्रतिनिधियों ने यह भी स्पष्ट किया कि जब तक कि उनका नया राज्य संविधान तैयार होता है, तब तक वे सन् 1939 के पुराने संविधान अधिनियम द्वारा ही शासित होंगे। 

सिर्फ इस बात को समायोजित करने के लिए ही भारत के संविधान में जम्मूव कश्मीर के लिए एक विशेष प्रावधान करना पड़ा, और वह प्रावधान है अनुच्द-370। बेशक, अनुच्छेद-230 को, छे जिसे ‘जम्मूव कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी प्रावधानों’ के रूप में चिह्न‍ांकित किया गया था, को इस आशा के साथ अस्थायी व्यवस्था के रूप में अपनाया गया था कि भविष्य में पूर्ण  एकीकरण संभव है। जम्मूव कश्मीर राज्य का संविधान 26 जनवरी, 1957 को लागू हुआ, जिसमें 158 खंड शामिल हैं, जिसकी धारा 3 में स्पष्ट कहा गया है, ‘जम्मूव कश्मीर राज्य भारत के संघ का एक अभिन्न अंग है और रहेगा।’ 

लकिन ऐसे विशेष प्रावधानों को शामिल ही क्यों किया गया? संविधान सभा द्वारा उन्हें राेका जा सकता था! दीगर बात यह है कि बेचारे महाराजा हरि सिंह पहले से ही दृश्य से बाहर हो चुके थे। विशेष प्रावधान या फिर कोई विशेष प्रावधान नहीं—उन्हें न तो इससे कोई लाभ होना था और न ही हानि। वह अब्दुल्ला थे, जो महाराजा से पीछा छूट जाने के बाद खुद को सुरक्षित करने और अपनी स्थिति को मजबूत करने के प्रयास में लगे थे।

 नेहरू ने गोपालस्वामी आयंगर को बिना पोर्टफोलियोवाले मंत्री के रूप में शामिल किया था, ताकि वे जम्मूव कश्मीर के मामलों को देख सकें। नेहरू ने अपनी यूरोप यात्रा से पहले ही शेख अब्दुल्ला के साथ जम्मूव कश्मीर से जुड़े मसौदे के प्रावधानों को अंतिम रूप दे दिया था, जो बाद में अनुच्छेद-370 बना। उन्होंने गोपालस्वामी आयंगर को इन प्रावधानों को संविधान सभा से अनुमोदित करवाने का काम सौंपा था। आयंगर ने आवश्यक कार्यवाही की। उनकी प्रस्तुति ने चौतरफा नाराजगी भरे विरोध-प्रदर्शनों को भड़काया। इनमें से अधिकांश जम्मूव कश्मीर के लिए किसी भेदभावपूर्ण व्यवहार के विरोध में थे। संविधान सभा ने अनुच्छेद-370 के प्रस्ताव को फाड़कर फेंक दिया। आयंगर मैदान में अकेले रह गए और मौलाना आजाद भी प्रभावी तरीके से उनका साथ नहीं दे पाए। बहस के दौरान यू.पी. के मौलाना हसरत मोहानी ने कहा कि हालाँकि वे अपने मित्र शेख अब्दुल्ला को दी जा रही रियायतों का विरोध नहीं कर रहे हैं, लेकिन ऐसे भेदभाव की आवश्यकता ही क्या है; अगर कश्मीर को ऐसी रियायतें दी जा सकती हैं तो फिर बड़ाैदा के शासक को भी मिलनी चाहिए। 

डॉ. आंबेडकर भी दृढ़ता से इसके विरोध में थे। नेहरू ने अब्दुल्ला को डॉ. आंबेडकर के पास स्थिति को विस्तार से समझाने और संविधान के लिए एक उपयुक्त अनुच्छेद का मसौदा तैयार करने के लिए भेजा था। आंबेडकर ने कहा था, “श्रीमान अब्दुल्ला, आप चाहते हैं कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, भारत कश्मीर का विकास करे और कश्मीरियों के पास बिल्कुल वही अधिकार होने चाहिए, जो भारत के नागरिकों को मिले हुए हैं; लेकिन आप चाहते हैं कि भारत या फिर किसी भी भारतीय नागरिक को कश्मीर में कोई भी अधिकार न मिले। मैं भारत का कानून मंत्री हूँ। मैं अपने देश के हितों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता।” (एस.एन.एस./106) 

डॉ. आंबेडकर द्वारा अनुच्छेद-370 का मसौदा तैयार करने से इनकार कर देने के बाद इसे तैयार करने की जिम्मेदारी आयंगर पर छोड़ दी गई। जब यह मुद्दा चर्चा के लिए संविधान सभा में आया तो डॉ. आंबेडकर इतने नाराज थे कि उन्होंने इसमें भाग ही नहीं लिया। 

नेहरू, जो उस समय विदेश यात्रा पर गए हुए थे, ने सरदार पटेल को फोन किया और उनसे अनुच्छेद-370 को पारित करवाने में मदद की गुजारिश की और सिर्फ इस एक वजह के चलते पटेल मान गए, क्योंकि वे नेहरू को उनकी अनुपस्थिति में शर्मिंदा नहीं करना चाहते थे। लेकिन सरदार ने यह जरूर कहा, “जवाहरलाल रोएगा (नेहरू इस पर पछताएँगे)।” (आर.जी./517) 

नेहरू ने बेहद असाधारण तरीके से सन् 1952 में, जब सरदार पटेल का देहावसान हो चुका था, कश्मीर को लेकर एक बयान दिया, “सरदार पटेल पूरे समय इन मामलों को देख रहे थे।” 

वी. शंकर ने लिखा— 
“जब मैं उनके (गोपालस्वामी आयंगर के) संयुक्त सचिव के रूप में काम कर रहा था तो बिल्कुल वही अनुच्छेद (370) लोकसभा में बहस के लिए आया। उसके पक्ष में बोलते हुए नेहरू ने कहा कि क्योंकि उनकी गैर-मौजूदगी में सरदार इस मामले को देख रहे थे, इसलिए वे इसके लिए जरा भी जिम्मेदार नहीं हैं। मैं उसी दिन शाम को गोपालस्वामी से उनके घर पर मिला, जब वे लॉन में टहल रहे थे। मैंने उनसे नेहरू के रुख की प्रामाणिकता के बारे में पूछा। गोपालस्वामी की प्रतिक्रिया गुस्से से भरी थी और वह बोले, ‘यह उस सरदार के लिए एक कृतघ्नतापूर्ण प्रतिदान है, जो उन्होंने स्वयं के निर्णय के खिलाफ पंडितजी के दृष्टिकोण को स्वीकार करने में दिखाया था।’ वे आगे बोले, ‘मैं यह बात जवाहरलाल को पहले ही बोल चुका हूँ।’” (शैन2/63) 

अनुच्छेद-370 के प्रतिकूल प्रभाव 
अनुच्द-370 के कई प्रतिकूल प्रभाव हैं। उनमें से कुछ हैं—(1) क्षेत्रवाद, संकीर्णतावाद और अलगाववाद। (2) किसी भी भारतीय नागरिक को जम्मूव कश्मीर में स्थायी रूप से बसने के मौलिक अधिकार से वचिं त रखना। (3) किसी भी भारतीय नागरिक को जम्मूव कश्मीर में संपत्ति खरीदने के मौलिक अधिकार से वचिं त रखना। (4) किसी भी भारतीय नागरिक को मतदान के अधिकार से वचिं त करना, क्योंकि वह जम्मूव कश्मीर का नागरिक नहीं बन सकता। (5) नौकरियों से इनकार—कोई भारतीय नागरिक, जो जम्मूव कश्मीर का नागरिक नहीं है, उसे जम्मूव कश्मीर में नौकरी नहीं मिल सकती। (6) कोई महिला, जो राज्य की स्थायी नागरिक है, अगर किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह करती है, जो राज्य का नागरिक नहीं है तो वह अपनी पैतक संपत्ति सहित सारी संपत्ति से अधिकार खो बैठती है। इसके अलावा, वह न तो राज्य में नौकरी पा सकती है और न ही उसे राज्य या केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करनेवाले कॉलेजों में प्रवेश मिल सकता है। (7) हिंदू प्रवासी, जिन्हें विभाजन के समय उनके पैतक घरों से बेदखल कर दिया गया था और जो जम्मूव कश्मीर में आकर बस गए थे, को अभी तक नागरिकता नहीं प्रदान की गई है। इसमें उनके बच्‍चे और नाती-पोते भी शामिल हैं। 

निश्चित रूप से, इसका सबसे बड़ा नकारात्मक प्रभाव यह हुआ है कि यह राज्य के पूर्ण एकीकरण के रास्ते में बाधा बना है, जिसने जम्मूव कश्मीर और भारत—दोनों के ही लोगों को गंभीर नुकसान पहुँचाया है। अनुच्छेद-370 जम्मूव कश्मीर के भ्रष्ट नेताओं को अधिक कड़े केंद्रीय कानूनों से बचाता है, साथ ही उन्हें सी.ए.जी. की पहुँच से भी दूर रखता है। यह आम जनता को कोई लाभ नहीं देता है। यह वास्तव में उत्पादकता के प्रतिकूल है। अगर जम्मूव कश्मीर भारत के किसी भी अन्य राज्य की तरह होता तो इसमें कहीं अधिक निजी निवेश हुआ होता, जिसके चलते राज्य में समृद्धि आई होती। 

जम्मू व कश्मीर के गवर्नर रह चुके जगमोहन अपनी पुस्‍तक ‘माइ फ्रोजन टर्बुलेंस इन कश्मीर’ में लिखते हैं— 
“अनुच्छेद-370 और कुछ नहीं, बल्कि स्वर्ग के दिल पर परजीवियों के लिए बना एक पोषण क्षेत्र है। यह गरीबों का खून चूसता है। यह अपनी मृगतृष्णा से उन्हें धोखा देता है। यह सिर्फ ‘सत्ताधारी कुलीनों’ को मालामाल करता है। यह नए ‘सुल्तानों’ के अहंकार को बढ़ाता है। कुल मिलाकर, यह एक न्याय-विहीन भूमि का निर्माण करता है। यह भारत के विचार का दम घोंटता है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक की सांस्कृतिक एवं सामाजिक अवधारणा को धूमिल करता है। 

“इतने वर्षों के दौरान अनुच्छेद-370 सत्ताधारी राजनीतिक कुलीनों और नौकरशाही, व्यापार, न्यायपालिका और बाहर के अन्य निहित स्वार्थों के हाथों शोषण का एक साधन बन गया है। यह अलगाववादी ताकतों को जन्म देता है, जो बदले में अनुच्छेद-370 को बनाए रखते हैं और इसे मजबूती प्रदान करते हैं। राजनेताओं के अलावा, अमीर वर्गों ने भी संपत्ति अर्जित करने और राज्य में स्वस्थ आर्थिक कानूनी प्रावधानों को लागू न होने देने में अपनी सुविधा पाई है। अनुच्छेद-370 का सहारा लेकर संघ के संपत्ति कर और अन्य हितैषी कानूनों को राज्य में लागू करने की अनुमति नहीं प्रदान की गई है।” (जग./230) 

यहाँ तक कि अगर अनुच्छेद-370 को किसी भी सूरत में लागू किया ही जाना था तो इसे सिर्फ घाटी में ही लागू किया जा सकता था और जम्मू एवं लद्दाख को कुछ विशेष प्रावधानों के जरिए या फिर उन्हें पृथक् छोटे राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों के रूप में बाँटकर इससे अलग रखा जा सकता था। ऐसा करके यह सुनिश्चित किया जा सकता था कि कम-से-कम जम्मू एवं लद्दाख अनुच्छेद-370 के उपोत्पादित अनावश्यक प्रतिबंधों से बिना प्रभावित हुए विकास के रास्तेपर आगे बढ़ते रहें। घाटी की राजनीति के लिए जम्मू एवं लद्दाख को बलि का बकरा क्यों बनाया गया? इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त आँकड़े मौजूद हैं कि जम्मू एवं लद्दाख के लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ा है और इसके लाभ सिर्फ घाटी तक ही सीमित होकर रह गए हैं। 

“जम्मू-कश्मीर विधानसभा के गठन के दौरान कांग्रेस सरकार ने कुल 75 सीटों में से 43 सीटें देकर राज्य का नियंत्रण कश्मीर क्षेत्र को दे दिया। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि क्षेत्र और मतदाताओं की संख्या, दोनों के हिसाब से जम्मूक्षेत्र को अधिक हिस्सा मिलना चाहिए था। कोई आधिकारिक जनगणना या सर्वेक्षण नहीं किया गया और सरकार ने कश्मीर घाटी को 50% से अधिक विधानसभा सीटों का तोहफा दे दिया, जिससे जम्मू के लिए कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना असंभव हो गया। किसी भी कानून को पारित करने या अनुच्छेद-370 को समाप्त करने के लिए इसे जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पारित किया जाना आवश्यक बना दिया गया और इस लिहाज से इसे हटाना असंभव बना दिया गया था। आज तक, सीटों के असमान वितरण के कारण अन्य दलों के लिए सरकार बनाना मुश्किल हो जाता है। राज्य की राजनीति कश्मीर घाटी द्वारा नियंत्रित होती है, जो बदले में पाकिस्तान और अलगाववादी नेताओं का समर्थन करती है।” (यू.आर.एल.109) 

अनुच्छेद-370 को ‘जम्मू व कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी प्रावधान’ कहा जाता है और इसे संविधान के ‘अस्थायी, संक्रमणकालीन एवं विशेष’ प्रावधानों से निपटनेवाले अध्याय-21 में शामिल किया गया है। इस अस्थायी प्रावधान को काफी समय पहले ही हटा दिया जाना चाहिए था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, एन.डी.ए. और भाजपा ने आखिरकार 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-35ए के साथ इस अन्याय पूर्ण अनुच्छेद-370 को पूरी तरह से खत्म कर दिया।