कहानी का शीर्षक: एक अनोखी मुलाकात
यह कहानी एक छोटे बच्चे सौरभ की है, जो भीड़-भाड़ में अपने माँ-बाप से बिछड़ गया था और विदिशा की गलियों में अकेला, भूखा और डर के साये में जीवन जी रहा था। लेखक की नजर उस मासूम पर तब पड़ी जब वह कचरे के ढेर में खाना ढूंढ रहा था। कुछ दिन बाद वह बेतवा नदी किनारे दोबारा मिला, जहाँ लेखक ने उससे बातचीत कर धीरे-धीरे उसका भरोसा जीता। सौरभ ने बताया कि उसकी माँ अरीषा खाना बनाने और पिता आशोक मजदूरी करने शहर जाते थे। एक दिन वह भी उनके साथ बस में सफर कर रहा था, लेकिन रास्ते में भीड़ में उनसे बिछड़ गया। तब से वह अकेला था। लेखक ने उसे कुछ दिन अपने पास रखा, नए कपड़े दिए और खाना खिलाया। फिर अपने दोस्त के पत्रकार पिता की मदद से सिरोंज जाकर सौरभ के माँ-बाप को ढूंढ़ना शुरू किया। काफी कोशिशों और लोगों की मदद से वे उन्हें खोजने में सफल रहे। जब सौरभ की माँ और पिता उससे मिले, तो वह पल बेहद भावुक था। माँ-बेटा एक-दूसरे से लिपटकर रो पड़े। यह सिर्फ एक मुलाकात नहीं थी, बल्कि एक ऐसी सच्ची और अनोखी कहानी थी, जिसने लेखक और उस परिवार – दोनों की ज़िंदगी बदल दी।
बात उन दिनों की है जब मैं मध्य प्रदेश के एक छोटे से शहर विदिशा घूमने गया था। मेरी उम्र करीब 19 साल रही होगी। एक दिन मैं वहां की तंग गलियों में यूँ ही घूम रहा था। तभी मेरी नजर एक छोटे से बच्चे पर पड़ी, जो कचरे के ढेर में कुछ खाने की चीज़ें ढूंढ रहा था। उसकी उम्र लगभग 5-6 साल रही होगी। वह गंदी, फटी हुई कमीज़ पहने था, जिसमें कई जगह छेद थे। उसके बाल उलझे हुए थे और चेहरा धूल-मिट्टी से सना हुआ था। जब मैं उसके पास गया, तो वह डर के मारे भाग गया।
करीब 3–4 दिन बाद वह बच्चा मुझे फिर से बेतवा नदी के किनारे दिखा। इस बार मैंने दूर से आवाज़ दी, “अरे रुको!” लेकिन वो फिर भागने लगा। मैं जल्दी से उसके पास गया और उसे प्यार से रोका। मैंने पूछा, “तुम मुझसे भागते क्यों हो?”
वो डरे हुए स्वर में बोला, “एक बार मुझे रास्ते में किसी के गिरे हुए पैसे मिले थे। मैंने उन्हें उठा लिया, लेकिन कुछ लोगों ने वो पैसे मुझसे छीन लिए और मुझे मारा भी। तब से मुझे लगता है सब मुझसे कुछ न कुछ छीन लेंगे।”
उसकी डरी हुई मासूम आँखों को देखकर मेरा दिल भर आया। मैंने धीरे-धीरे उससे बात करना शुरू किया। मैंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”
वह बोला, “सौरभ।”
मैंने पूछा, “तुम्हारे माँ-बाबू कहाँ हैं?”
उसने जवाब दिया, “हम लोग सिरोंज में रहते थे। मेरी माँ का नाम अरीषा और बाबू का नाम आशोक है। मेरी माँ शहर में खाना बनाने जाती थी और बाबू भी मजदूरी करने शहर जाते थे। एक दिन मैं भी उनके साथ बस में आ रहा था, तभी भीड़ में उनसे बिछड़ गया। बहुत रोया, बहुत ढूंढा, लेकिन वो नहीं मिले। तब से मैं अकेला ही हूँ। जो भी खाना-कपड़ा मिल जाता है, उसी से काम चलाता हूँ।”
मैंने सौरभ को कुछ दिन अपने साथ रखा, उसे अच्छे कपड़े दिए क्योंकि उसके कपड़े पूरी तरह फट चुके थे। उसे नहलाया, साफ-सुथरा किया और भरपेट खाना खिलाया। थोड़ी-थोड़ी बातचीत से उसका मुझ पर भरोसा बढ़ा।
उसकी बातें सुनकर मैं उसे उसके परिवार से मिलाने का फैसला कर चुका था। मैंने अपने एक दोस्त के पापा की मदद ली, जो एक जाने-माने पत्रकार थे। उनकी पहचान और अनुभव के सहारे हम सिरोंज पहुँचे और स्थानीय लोगों से पूछताछ शुरू की।
कई दिनों की मेहनत के बाद हमें सौरभ के माँ-बाप का पता चल गया। जब सौरभ की माँ अरीषा और पिता आशोक उससे मिले, तो वह पल बहुत ही भावुक था। माँ-बेटा एक-दूसरे को देखकर फूट-फूटकर रोने लगे। सालों की तड़प अब खुशी में बदल चुकी थी।
यह सिर्फ एक मुलाकात नहीं थी, यह एक ऐसा अनुभव था जिसने मेरी सोच, मेरा दिल और किसी की ज़िंदगी बदल दी — एक
सच्ची, अनोखी मुलाकात।