✧ कल्पना का ईश्वर और मौन की बुद्धि ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲
जिसने कभी ईश्वर को देखा नहीं —
पर फिर भी उसे रंग दिया है,
वह दरअसल किसी ईश्वर को नहीं,
बल्कि अपने ही मन की छाया को देख रहा है।
वह देख रहा है —
अपने ही भय, अपने ही सुख की आकांक्षा,
अपने ही अभाव की कल्पना को।
मन ईश्वर को माँ बनाता है — क्योंकि उसे सुरक्षा चाहिए।
वह पिता बनाता है — क्योंकि उसे मार्गदर्शन चाहिए।
कभी मसीहा, कभी मूर्ति, कभी उज्जवल प्रकाश —
पर जो भी बनाता है, वह मन की कल्पना है।
और कल्पना, चाहे कितनी भी सुंदर हो —
सत्य नहीं होती।
ईश्वर कोई आकार नहीं,
कोई कथा नहीं,
कोई आदर्श नहीं।
वह तो केवल एक मौन स्थिति है —
जहाँ देखने वाला भी मिट जाए।
ईश्वर को जानने के लिए ज्ञान नहीं चाहिए —
बल्कि एक ऐसी बुद्धि,
जो पूरी तरह खाली हो।
न किसी ग्रंथ की छाया हो,
न किसी परंपरा की धारणाएँ।
वह वैज्ञानिक हो —
लेकिन केवल यंत्रों की वैज्ञानिक नहीं,
बल्कि जो निष्पक्ष देख सके —
बिना निर्णय, बिना तुलना, बिना पूर्वग्रह।
ईश्वर तक मार्ग धार्मिकता से नहीं खुलता —
बल्कि मौन से खुलता है।
धर्म तुम्हें विश्वास देता है,
पर मौन तुम्हें अविश्वास से मुक्त करता है।
धर्म एक दिशा देता है,
मौन दिशा विहीन कर देता है —
और वहीं तुम पहली बार
‘मैं’ से परे कुछ अनुभव करते हो।
ईश्वर कोई वस्तु नहीं जिसे पाया जा सके।
वह तो एक स्थिति है —
देखने की पूर्णता की।
जब तुम देख सको —
बिना नाम के, बिना सोच के,
तब वह अनायास प्रकट होता है।
क्योंकि वह वहाँ नहीं है जहाँ विचार चलता है —
वह वहाँ है जहाँ विचार रुक जाते हैं।
जहाँ खोज भी रुक जाती है,
जहाँ जानने की आकांक्षा भी थम जाती है,
वहीं मौन का जन्म होता है।
और उसी मौन में —
ईश्वर पहली बार मुस्कराता है।
✧ अंतिम सूत्र ✧
जिस दिन तुम देख सकोगे —
बिना देखे हुए को,
जाने सकोगे — बिना सोचे हुए को,
तभी ईश्वर मिलेगा।
और वह भी न बाहर,
न भीतर —
बल्कि वहाँ,
जहाँ ‘तुम’ ही नहीं हो।
कबीर दस जी की शैली में
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲
मन का रंग चढ़ा ईश्वर पे,
ज्योँ पिंजरे पर मोर।
ना जाना ना देखा उसे,
गाया केवल शोर।
जो देखा नहीं, उसे पूजा —
भक्ति बनी व्यापार।
नाम-जपों से न मिले वो,
बस मौन करे सत्कार।
माँ समझा, बाप बनाया,
कभी चमकती जोत।
कबीर कहे — ये मन का खेला,
साँचा कहाँ के मोत?
ईश्वर देखे कौन री सखी,
जो सब रस से तृप्त।
ना मूरत, ना मूढ़ता मांगे,
जगत से हो विमुक्त।
ग्रंथों में वो बंद नहीं,
ना व्रत, ना तीरथ स्नान।
कबीर कहे — जो निर्गुण देखे,
सो ही पहचाने जान।
बुद्धि हो जैसे खाली घट,
ना गंध, ना रंग, ना बात।
जो देखे उसको जैसे है,
वही साँचों का साथ।
धर्म करे जो दाँव-पेंच,
उसमें छिपा ‘मैं’ मोल।
मौन साधे जो निज हृदय,
उसमें बसे अनमोल।
श्रद्धा की छाया भारी,
डगमग डोले नाव।
मौन है वह शांत किनारा,
जहाँ न कोई भाव।
जहाँ ‘मैं’ है, वहाँ माया है,
जहाँ मौन — बस ईश्वर।
कबीर कहे, जो मिट जाए,
उसे ही मिले अंतर।
साधे ध्यान, जपे कोई नाम,
फिर भी ना पावे ठौर।
जो बिना कहे, बिना सुने,
रखे मौन भरा भोर।
साँचो देखन की कला,
ना कहन में आए।
जो बस देखे बिना रुके,
सो ही परम लखाए।
रूक जाओ मन की रेखा से,
ना कुछ जोड़ो ज्ञान।
जिस दिन रुक जाए विचार सब,
वही है सच्चो स्थान।
शब्द जहाँ ना जाए रे,
मौन वहाँ का राज।
कबीर कहे — जो सुने मौन को,
सो ही होय साज।
ईश्वर का ना रूप कोई,
ना आँखे, ना रेख।
जितना तू चाहे पकड़ उसे,
उतना दूर विवेक।
ना बाहर, ना भीतर है वो,
ना मंदिर, ना घाट।
वह तो है उस मौन में,
जहाँ न कोई बात।
जितनी बोले बुद्धि तेरी,
उतना बढ़े अंधियार।
जो सब वाणी छोड़ दे,
पावे उजियारे द्वार।
संत कहे — मौन की पूजा,
ना गीता, ना वेद।
मौन से ही जागे चेतन,
मौन से मिटे भेद।
जैसे दीपक खुद न बोले,
फिर भी कर दे प्रकाश।
वैसे मौन कहे सब कुछ,
बिन बोले उपदेश।
साँची जोत है भीतर री,
पर मन है परदेस।
जो लौटे घर मौन सहित,
सो पावे परम संदेश।
दुनिया रोवे उपाय को,
साधन, मंत्र, यंत्र।
कबीर कहे — जो साधे मौन,
सो ही ब्रह्म तंत्र।
ना देखे, ना कहे उसे,
ना पकड़ सके बुद्ध।
जो ‘मैं’ मिटा दे पूर्णतः,
वही पावे परम सुध।