भूल-61
अवैध धर्म-परिवर्तन को नजरअंदाज करना
“मेरे लिए धर्मांतरण के विचार के साथ सामंजस्य बैठाना बिल्कुल असंभव है, विशेषकर भारत और अन्य सभी जगहों पर उनकी जो शैली चल रही है, उसे देखने के बाद। यह एक ऐसी त्रुटि है, जो शायद दुनिया में शांति की दिशा में आगे बढ़ने के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। आखिर क्यों एक ईसाई किसी हिंदू को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना चाहेगा? अगर हिंदू अच्छा है या फिर धर्मात्मा है तो उसे संतुष्ट क्यों नहीं होना चाहिए?”
—महात्मा गांधी, ‘हरिजन’, 30 जनवरी, 1937
फिर क्यों गांधी ने भारतीय संविधान में या तो धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश नहीं दिया या फिर कड़े मानदंड शामिल करने का? गांधी ने धर्मांतरण के खिलाफ कुछ भी ठोस नहीं किया। उन्होंने सिर्फ बातें कीं।
‘धर्म का प्रचार’ भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25 के तीन घटकों में से एक है, जो धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यह अधिकार हिंदुओं के लिए पूरी तरह से अप्रासंगिक है, क्योंकि हिंदू धर्म एक गैर-विस्तारवादी, धर्मांतरण न करनेवाला स्वदेशी धर्म है। लेकिन यह बाद के दो अब्राहमिक धर्मों (ईसाई एवं इसलाम) को बेहद विनाशकारी वर्चस्व कायम करने का मौका देता है, जिन्हें विदेशों से भारी मात्रा में धन मिलता है और जो अलगाववादी हैं (‘सिर्फ हमारा धर्म सच्चा है, बाकी सभी धर्म झूठे हैं’), विस्तारवादी हैं और आक्रामक तरीके से धर्मांतरण करने पर इस हद तक जोर देते हैं कि वे भारत के मूल धर्मों को माननेवालों का धर्म-परिवर्तन करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। हालाँकि, संवैधानिक प्रावधान, जिनका उद्देश्य कमजोर को दबंग से बचाना है, वह खतरे में फँसी लाखों भेड़ों (स्वदेशी धर्मों से आनेवाले गरीब, जरूरतमंद और आदिवासी लोग) को बचाने के बजाय धर्मांतरण करनेवाले भेड़ियों की रक्षा करता है, सिर्फ इस भ्रामक समानता की आड़ में कि भेड़ और भेड़िया—दोनों को ही एक-दूसरे को निगल जाने के लिए समान अधिकार मिले हुए हैं। ईसाई और इसलामिक प्रचारक—दोनों ही धर्म का प्रचार करने के संवैधानिक अधिकार का प्रभावी तरीके से दुरुपयोग कर भारत में धार्मिक आक्रामकता को फैला रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप देश भर में इंडिक धार्मिक जनसांख्यिकी में गिरावट आ रही है—और सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि आजादी के बाद से धर्मांतरण में कमी आने के बजाय भारी तेजी आई है और इसका सबसे बड़ा कारण है—नेहरूवादी सोच तथा दूरदृष्टि की कमी। “पूरी दुनिया में संगठित धर्मांतरण के काम पर बेहद गंभीरता के साथ नजर रखी जाती है; क्योंकि यह कई सभ्यताओं के विनाश के लिए जिम्मेदार है, जिनमें रोमन, ग्रीक, मायन, एज्टेक, इंका और जोरोस्ट्रियन—पारसी शामिल हैं, यहाँ तक कि ऐसा करने के दौरान अन्य सभ्यताओं को एक अस्तित्वगत खतरे में डालते हुए भी। इसलिए अधिकांश इसलामिक देशों, चीन—यहाँ तक कि ग्रीस ने भी—धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगा दिया है। यूनानी संविधान का अनुच्छेद-13 (2) धर्म-परिवर्तन करने पर प्रतिबंध लगाता है। (स्व10) लेकिन ‘ग्लिंप्सेस अॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ और ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ का लेखक शायद इन महत्त्वपूर्ण धार्मिक-सभ्यतागत पहलुओं से पूरी तरह से अनजान था।
नेहरू कई कदम आगे बढ़ गए। उन्होंने ईसाई मिशनरियों द्वारा निरंतर और बड़े पैमाने पर किए जा रहे धर्मांतरण की ओर से न सिर्फ आँखें मूँद लीं, जो गरीब और निर्दोष लोगों को गिद्धों की तरह खा रही थीं; और नेहरू वास्तव में राज्यों को दिए गए विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों तथा निर्देशों के जरिए मिशनरियों के नापाक इरादों की रक्षा और उन्हें प्रोत्साहित करते थे। इस सबने राष्ट्रीय हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।
दुर्गा दास ने ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू ऐंड आफ्टर’ में लिखा—
“हमारे संविधान-निर्माताओं ने उत्तर-पूर्व में असम की पहाड़ियों में स्थित अनुसूचित जनजातियों से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामले को दबा दिया। उन्होंने एक ऐसा सूत्र अपनाया, जिसने धर्म को केंद्रीय कानूनों और प्रशासनिक तंत्र से बाहर कर दिया। नेहरू ने ईसाई मिशनरियों की सलाह पर ऐसा किया। उनके सबसे शीर्ष साथियों ने, आजाद के शब्दों में कहें तो ‘नेहरू की सनक’ समझकर इसे पारित हो जाने दिया।
नेहरू ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ के बावजूद भारत की खोज करने में पूरी तरह से असफल रहे। उन्हें यह नहीं पता था कि आदिवासियों का हिंदू धर्म के साथ घनिष्ठ संबंध था और आदिवासी क्षेत्रों को पर्याप्त निवेश एवं सहानुभूतिपूर्ण प्रशासन उपलब्ध करवाकर एकीकृत करना तथा विकसित करना बेहद आसान था। भारतीय संस्कृति व सभ्यता के मामले में नेहरू बिल्कुल खोखले थे और वे उन पहलुओं से अनजान थे, जिन्हें डॉ. कॉनराड एल्स्ट (के.ई.2) द्वारा अच्छी तरह से सामने लाया गया है—
“गिरिलाल जैन पुरी से संबंधित एक शोध खंड का हवाला देते हैं—एक तरफ धार्मिक चित्रों की पुरातन प्रतिमाविद्या और दूसरी तरफ उनकी सर्वोच्च हिंदू प्रतिमाविद्या तथा उसके साथ ही उसके पुजारियों के बीच पूर्व के आदिवासियों (दैत्यों) और वैदिक ब्राह्मणों का अस्तित्व किसी भी तरह से विपरीत नहीं है, बल्कि यह स्थानीय और अखिल भारतीय परंपरा का एक शानदार क्षेत्रीय संश्लेषण है। और वे टिप्पणी करते हैं—अविरल आदिवासी-हिंदू प्रवाह पुरी के जगन्नाथ पंथ में अपनी स्थायी अभिव्यक्ति पाता है। ग्यारहवीं शताब्दी में बने भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर में पुजारियों के दो वर्ग हैं—ब्राह्मण और एक वर्ग, जिसे ‘बादु’ कहा जाता है, जो आदिवासी मूल के बताए जाते हैं। बादु न सिर्फ इस महत्त्वपूर्ण मंदिर के पुजारी हैं, बल्कि वे देवता के सबसे अंतरंग संपर्क में भी रहते हैं, जिनके वे व्यक्तिगत सेवक भी हैं। सिर्फ वही हैं, जिन्हें लिंगराज को स्नान कराने एवं सजाने की अनुमति है और त्योहार के समय सिर्फ बादु लोग ही इस सचल मूर्ति को ले जा सकते हैं। देवता मूल रूप से एक आम के पेड़ की छाँव में स्थित थे। किंवदंती के अनुसार, बादु को आदिवासियों (सबरस) के रूप में वर्णित किया गया है, जो मूल रूप से उस स्थान पर रहते थे और पेड़ के नीचे लिंग की पूजा करते थे।” (के.ई.2) (यू.आर.एल.103)
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यह बात ध्यान रखने योग्य है कि सर रेजिनाल्ड कॉपलैंड (1884-1952), इतिहासकार और अॉक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, जो सन् 1942 में एक सलाहकार के रूप में क्रिप्स मिशन के साथ आए थे, ने एक कानूनी गारंटी के लिए सिफारिश की थी, कि असम के पहाड़ी क्षेत्रों (पूर्वोत्तर के सभी राज्य उस समय असम में शामिल थे) में ईसाई मिशनरियों के काम निर्बाध रूप से जारी रहेंगे।
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उपर्युक्त संदर्भ में कृपया पिछली भूल (भूल-60) में वर्णित किए गए वेरियर एल्विन के कामों को देखें। 15 अक्तूबर, 1962 को ‘द पेट्रियट’ में ‘नागालैंड सेफ फ्रॉम साधूज’ शीर्षक के साथ प्रकाशित समाचार के अनुसार—
“पटना, अक्तूबर 13 (यू.एन.आई.) : भारत में एक ऐसा राज्य है, जहाँ साधु नहीं जा सकते और वह राज्य है नागालैंड। जवाहरलाल नेहरू और वेरियर एल्विन के बीच हुआ एक समझौता राज्य में साधुओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाता है। ‘भारत साधु समाज’ के सचिव स्वामी आनंद का मानना है कि नागा लोगों के देश के बाकी लोगों के साथ भावनात्मक एकीकरण के लिए साधु अधिक सफलता की संभावना के साथ काम कर सकते हैं। स्वामी आनंद ने एक साक्षात्कार में कहा कि इस काम को संभव करने के लिए ‘नेहरू-एल्विन समझौते’ को रद्द कर देना चाहिए।” (यू.आर.एल.97)
गजब! नेहरू ऐसे कामों को करने के लिए किस हद तक अलोकतांत्रिक और बेशर्मी पर गिर सकते थे, जो प्रभावी तरीके से और अंततः भारत की एकता एवं भारत की अपनी सभ्यता की विरासत को नष्ट करने तथा धर्म-परिवर्तन को बढ़ावा देने का काम करते हों!
एम.के.के. नायर ने लिखा—
“नेहरू एवं पटेल कई मुद्दों पर एक-दूसरे से सहमत नहीं होते थे और पटेल नेहरू द्वारा उनके सामने लाए गए कामों में कमियाँ निकाल देते थे। लगभग सभी जानते हैं कि उत्तर-पूर्वी भारत की सभी समस्याएँ नेहरू की नीति से ही शुरू हुई थीं। पटेल ने नेहरू की उस योजना का घोर विरोध किया था, जिसके तहत उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के शासन को विदेश मंत्रालय के तहत लाया जाना था और उसे शेष भारत से अलग करना था। उन्होंने ऐसे कदमों के नतीजों को विस्तार से बताया; लेकिन मंत्रिमंडल में कोई नहीं था, जो नेहरू का विरोध कर सके। इसके एक बार लागू हो जाने के बाद ईसाई मिशनरियों के लिए स्थानीय लोगों को यह समझाना बेहद आसान हो गया कि वे भारतीय नहीं हैं और उनका एक बिल्कुल अलग देश है, क्योंकि वह क्षेत्र विदेश मंत्रालय के अंतर्गत आता है। नेहरू ने इस क्षेत्र का प्रशासन सँभालने के लिए एक बिल्कुल नए कैडर,‘ भारतीय फ्रंटियर प्रशासनिक सेवा’ का निर्माण किया, लेकिन इसकी चयन-प्रक्रिया बिल्कुल भारतीय विदेश सेवा जैसी ही थी। हालाँकि एक या दो अपवादों को छोड़कर चुने गए सभी लोग पूरी तरह से अक्षम थे और उनके पास आवश्यक प्रशासनिक योग्यता नहीं थी। उनका अनाड़ीपन भरा शासन और विदेश मंत्रालय का बदतर नियंत्रण नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर एवं असम के पहाड़ी क्षेत्रों में देश-विरोधी गतिविधियों के फलने-फूलने के प्रमुख कारण थे।” (एम.के.के.)
पूर्वोत्तर राज्यों, विशेषकर नागालैंड और मिजोरम, में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण ने अलगाववादी आंदोलनों को बढ़ावा दिया। ईसाई मिशनरियों और विदेशों से वित्त-पोषित कई एन.जी.ओ. ने जान-बूझकर आर्यों व द्रविड़ों के बीच संघर्ष और मतभेदों की बातों को प्रचारित किया (आर्यों के आक्रमण (ए.आई.टी.) की परिकल्पना को काफी पहले ही खारिज किया जा चुका है)। वे ब्राह्मण-विरोधी और हिंदू-विरोधी प्रचार में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने दलितों एवं आदिवासियों की गरीबी और जरूरतों का अनुचित लाभ उठाया है। क्यों? क्योंकि ये सब धर्म-परिवर्तन में मदद करते हैं। इन्हीं लोगों ने तमिलनाडु में आर्य-द्रविड़ राजनीति को हवा दी है, ताकि वे अपने धर्म- परिवर्तन के काम को तेजी से आगे बढ़ा सकें। इस बात को समझना बेहद आवश्यक है कि ईसाई या फिर इसलाम धर्म में धर्मांतरण (उनमें से 99 प्रतिशत से भी अधिक फुसलाकर या फिर धोखा देकर होते हैं और गैर-कानूनी हैं) वास्तव में आध्यात्मिक हत्याएँ हैं, जो भौतिक हत्या के मुकाबले कहीं अधिक जघन्य हैं, क्योंकि ये धर्म-परिवर्तन करनेवालों को उनकी जड़ों से उखाड़ देती हैं।
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ऑगस्ट कॉम्ट ने कहा, “जनसांख्यिकी नियति है।” भारत का बँटवारा धार्मिक जनसांख्यिकी में बदलावों का शुद्ध परिणाम था। लेकिन ऐसा लगता है कि नेहरू धर्म, राष्ट्र, विभाजन और विभाजन के बीच के संबंध को नहीं समझते थे। यह व्यक्तिगत रूप से नास्तिक या अज्ञेय या धर्मसे ऊपर होने के लिए ठीक हो सकता है; लेकिन एक राष्ट्रीय नेता के रूप में धर्मों की वास्तविकता की अनदेखी करना, विशेषकर धर्मांतरण करनेवाले बादवाले दो वर्चस्ववादी, ‘वे ही सत्य’ अब्राहमिक धर्म, लोगों व क्षेत्रों पर उनके प्रभाव और भेदभाव की क्षमता की अनदेखी करना पूरी तरह से गैर-जिम्मेदाराना है।
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इन बढ़ते हुए अवैध धर्मांतरण के मामलों के चलते (जिनमें से 99 प्रतिशत से अधिक गैर-कानूनी हैं) अवैध मुसलमान शरणार्थियों की आमद और ईसाइयों व मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या-वृद्धि दर, जो भारत की सदियों की गुलामी के दौरान भी नहीं हो पाई थी, हो सकता है कि वह आजाद भारत में हो जाए—भारत के एक हिंदू अल्पसंख्यक देश में परिवर्तित हो जाना और इसके परिणामस्वरूप भारत की कई सहस्राब्दियों पुरानी समृद्ध धार्मिक व सांस्कृतिक विरासत का विलुप्त हो जाना।
पूरी दुनिया में 126 ईसाई बहुसंख्यक और 49 मुसलमान-बहुल देश हैं, लेकिन सिर्फ एक हिंदू बहुसंख्यक देश, जो कि भारत (एक छोटे देश नेपाल को छोड़कर) है। क्या यह सुनिश्चित करना एक भारतीय नेता की जिम्मेदारी नहीं है कि कम-से-कम एक देश तो हिंदू-बहुल बना रहे और हिंदुओं के लिए सुरक्षित रहे तथा जिसमें दुनिया भर में कहीं भी सताए हुए हिंदू (जैसे पाकिस्तान व बँगलादेश में और बेहद दुःख के साथ उसके अपने राज्य कश्मीर में भी) शरण ले सकते हों? क्या सदियों तक मुसलमानों व ईसाइयों की गुलामी के दंश और उत्पीड़न को झेलनेवाले हिंदू भारतीय नेताओं से इतनी छोटी सी अपेक्षा नहीं कर सकते? अन्य धर्मों के लोगों को, निश्चित रूप से, समान नागरिकों के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए; लेकिन उन्हें गैर-कानूनी तरीके से हावी होने और हिंदू बहुमत को विस्थापित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
ईसाई मिशनरियों एवं उनके अवैध धर्मांतरण ने भारत के कई हिस्सों में तबाही मचाई है और अब समय आ गया है, जब हमें इसके प्रति सचेत हो जाना चाहिए एवं इसे रोकने के प्रभावी कदम उठाने चाहिए। नेहरू के वंश ने कभी भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक नींव तथा विरासत की परवाह नहीं की; लेकिन गैर-राजवंशी सरकारों को बिल्कुल अलग तरीके से काम करने की आवश्यकता है।
संदीप बालकृष्ण लिखते हैं—
“लेकिन स्वतंत्रता के बाद सबकुछ बदलकर बदतर हो गया। और बदतर की ओर बढ़नेवाला यह बदलाव सीधे तौर पर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर आसान किया गया था।
“अदम्य सीता राम गोयल हिंदू और ईसाई भिड़ंतों के इतिहास को चार चरणों में वर्गीकृत करते हैं, जिसकी शुरुआत गोमांतक (गोवा) के बर्बर पुर्तगाली नर-संहार और हिंदुओं के सामूहिक धर्मांतरण से होती है। गोयल के मुताबिक, चौथा चरण भारत की स्वतंत्रता के साथ शुरू हुआ, जो ‘ईसाई धर्म के लिए एक वरदान साबित हुआ। हिंदुओं का धर्म-परिवर्तन करने का ईसाई अधिकार संविधान में शामिल किया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जो 17 वर्षों के लंबे समय तक सत्ता पर हावी रहे, ने एक छद्म धर्मनिरपेक्षता के चोले के पीछे प्रत्येक हिंदू-विरोधी विचारधारा और कदम को बढ़ावा दिया। इसके बाद सत्ता सँभालनेवालों ने ‘हिंदू सांप्रदायिकता’ के साए को सबसे डरावने विषय के रूप में उठाना जारी रखा। ईसाई मिशनरियाँ अब किसी भी ऐसे व्यक्ति पर हिंदू सांप्रदायिकतावादी या उग्र राष्ट्रवादी, यहाँ तक कि हिंदू नाजी होने का आरोप लगा सकती थीं, जो उनके साधनों और तरीकों पर जरा भी आपत्ति उठाता हो। इस भीड़ का हिस्सा बनने के लिए हर प्रकार के ‘धर्मनिरपेक्षतावादी’ एकजुट हो गए। मिशनरी तंत्र बहुत तेजी से विकसित हुआ तथा और व्यापक होता गया। ईसाई धर्म पूरे भारत के इतिहास में कभी भी इतनी बेहतर स्थिति में नहीं था। इसे अब ‘एक प्राचीन भारतीय धर्म’ के रूप में मान्यता मिल चुकी थी, जिसके पास अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार करने के साथ अपने कुनबे को बढ़ाने का पूरा अधिकार था। जनवरी 1950 में अपनाए गए भारत के संविधान ने ईसाई मिशनरियों के लिए धर्मांतरण को और अधिक सुगम बना दिया। महात्मा गांधी ने जीसस को एक आध्यात्मिक व्यक्ति का दर्जा दिया था और ईसाई धर्म को सनातन धर्म जितने अच्छे महान् धर्म के रूप में दर्जादिया था। ‘सर्वधर्म सद्भाव’ का उनका नासमझी भरा नारा ईसाई मिशनरियों के लिए हिंदू धर्म, समाज और संस्कृति के खिलाफ एक प्रभावी अस्त्र साबित हो रहा था। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री एक मुसलिम-ईसाई-कम्युनिस्ट गठबंधन के नेता बन गए थे, जो पहले हिंदुओं और हिंदू धर्म को रक्षात्मक रुख अपनाने को मजबूर करते थे और फिर बचाव के लिए दौड़ने को।’
“अपने पूरे जीवन-काल के दौरान जवाहरलाल नेहरू को अगर किसी बात का डर था तो वह इस बात का कि वे कभी नहीं चाहते थे कि श्वेत व्यक्ति और ईसाई गिरजाघर उन्हें गलत नजर से देखें! हालाँकि अपने विशिष्ट पाखंड के साथ पूरी तरह बने रहते हुए उन्होंने इसके विपरीत सार्वजनिक रूप से धर्मनिरपेक्षता और सर्व-धर्म सद्भाव की बातें करना जारी रखा। यह निबंध भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद के एक अज्ञात सत्य को प्रकाश में लाता है—कैसे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वास्तव में ईसाई मिशनरियों के लिए भारत के द्वार खोले, ताकि उनकी आत्मा की खेती करनेवाली किराना की दुकानों को यहाँ स्थापित किया जा सके और हिंदुओं का सामूहिक रूप से धर्म-परिवर्तन किया जा सके। वे किराने की दुकानें अब करोड़ों डॉलर के आत्मा-शिकार कॉरपोरेट उद्यमों के रूप में विकसित हो चुकी हैं। इस बारे में हमारी बातों पर आँख मूँदकर भरोसा न करें। सीधे नेहरू को पढ़ें। यह सब सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रिकॉर्ड है—
“17 अक्तूबर, 1952 को, नेहरू ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा—‘मुझे कई बार ईसाई मिशनों और मिशनरियों, भारतीय व विदेशी दोनों से ही, शिकायतें प्राप्त हुई हैं कि उनके साथ कुछ निश्चित राज्यों में अलग व्यवहार किया जा रहा है। इसके अलावा, यह भी कहा जा रहा है कि उनके साथ कभी-कभी थोड़ा-बहुत उत्पीड़न भी होता है। इस प्रकार के कुछ दृष्टांत भी मेरे संज्ञान में लाए गए हैं। मुझे उम्मीद है कि आपकी सरकार इस बात का विशेष ध्यान रखेगी कि इस प्रकार का भेदभाव और उत्पीड़न न हो। मुझे पता है कि अभी भी ईसाई मिशनों और मिशनरियों के खिलाफ पुराने पूर्वाग्रह का एक खुमार बना हुआ है। पुराने दिनों में उनमें से कई सिर्फ दूर-दराज दक्षिण को छोड़कर, वे जहाँ के लिए स्वदेशी थे, वे विदेशी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे और कई बार तो काफी हद तक उनके एजेंटों के रूप में भी काम करते थे। मुझे यह भी पता है कि उनमें से कुछ ने उत्तर-पूर्व में अलगाववादी और विघटनकारी आंदोलनों को प्रोत्साहित किया है। वह दौर अब खत्म हो चुका है। अगर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह विदेशी हो या भारतीय, इस प्रकार का व्यवहार करता है तो हमें भी निश्चित रूप से उचित काररवाई करनी चाहिए। लेकिन याद रखें कि ईसाई धर्म भारत में बड़ी संख्या में लोगों का धर्म है और यह लगभग 2,000 साल पहले भारत के दक्षिण में आया था। यह अन्य तमाम धर्मों की ही तरह भारत का एक हिस्सा है। हम अपने संविधान के जरिए न सिर्फ विवेक और विश्वास की स्वतंत्रता देते हैं, बल्कि धर्म-परिवर्तन की भी।” (एस.बी.के.2) “
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...सन् 1955 में धर्मांतरण को नियंत्रित करने और भारत में मिशनरी गतिविधि पर रोक लगाने के लिए एक बिल संसद् में पेश किया गया। फेलिक्स अल्फ्रेड प्लैटनर, एक जेसुइट और वह व्यक्ति, जिन्होंने मिशनरियों को अनुसंधान और बौद्धिक कवर फायर प्रदान किया, ने नोट किया कि अगर यह बिल पास हो गया तो ‘यह ईसाई मिशनरियों के काम को बेहद बुरी तरह से प्रभावित करेगा’; क्योंकि यह ‘धर्मांतरण को नियंत्रित करने के लिए सख्त प्रावधान लाएगा।’ लेकिन प्लैटनर की चिंताएँ गलत थीं। भारत के प्रधानमंत्री स्वयं उनके बचाव में सामने आए। प्लैटनर निश्चित ही प्रसन्न थे। उन्होंने अपडेट भेजने में जरा भी समय नहीं गँवाया। नेहरू और उनकी सरकार के इस रवैए ने भारतीय संविधान में ईसाइयों के विश्वास को और अधिक बढ़ाया है। नेहरू ने अपने ब्रिटिश पालन-पोषण का मान रखा है।” (एस.बी.के.2)
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भारत में धर्मांतरण सिर्फ आर्थिक कारणों के चलते और कुछ हद तक सामाजिक कारणों के चलते होता है। धर्म या अध्यात्मवाद या ‘ईश्वर की तलाश’ या इस बात को मानना कि कोई भी जिस धर्म में परिवर्तित हो रहा है, वह ‘बेहतर’ है, का इससे कोई लेना-देना नहीं है। हालाँकि सभी धर्मांतरण अवैध हैं (शायद 0.01 प्रतिशत को छोड़कर)। बेशक प्रश्न उठता है कि क्या बाद के दो अब्राहमिक धर्म—‘दया का धर्म’ और ‘शांति का धर्म’, जिन्होंने सदियों से अफ्रीका, एशिया, यूरोप, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका एवं अॉस्ट्रेलिया के दूसरे धर्मों को माननेवाले बेशुमार करोड़ों स्थानीय लोगों के लिए भयानक और अवर्णनीय दुःखों को जन्म दिया है, श्ष्ठ या एकमा रे त्र सच्चे धर्म हैं?
इनमें से कोई भी हिंदुत्व की भव्यता के नजदीक भी नहीं ठहरता। इसलिए, तर्कसंगत विश्लेषण और दृढ़ विश्वास के माध्यम से कोई धर्म-परिवर्तन नहीं हो सकता।
नेहरू और नेहरूवादी (उनकी छोटी सोच और इतिहास की गलत जानकारी, वर्तमान वास्तविकताओं और बाद के दो धर्मांतरण करनेवाले अब्राहमिक धर्मों की प्रकृति को देखते हुए) ‘अल्पसंख्यकों’ का बचाव करते हुए या उनका पक्ष लेते हुए या उन्हें अत्यधिक अनुचित संवैधानिक लाभ प्रदान करते हुए इस सत्य को पचाने में नाकाम रहे कि हिंदू (जिसमें जैन, बौद्ध, सिख भी शामिल हैं) वैश्विक अल्पसंख्यक हैं और ईसाइयों व मुसलमानों द्वारा बड़े पैमाने पर अच्छी तरह से वित्त-पोषित, अच्छी तरह से सुसज्जित, आक्रामक तरीके से किए जा रहे धर्मांतरण के आलोक में हिंदू भी वैश्विक रूप से लुप्तप्राय अल्पसंख्यक हैं, जिन्हें राज्य के प्रभावी संरक्षण की आवश्यकता है, जिसमें उन्हें शिकारी धर्मांतरण से बचाने के लिए प्रभावी कानून और कार्यान्वयन मशीनरी की आवश्यकता है। वास्तव में, संविधान में धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए था; जबकि वास्तविक व्यक्तियों को धर्म-परिवर्तन की अनुमति के लिए संतोषजनक स्पष्टीकरण देने के बाद अदालतों का दरवाजा खटखटाना चाहिए।
धर्मांतरण को वास्तव में नेहरूवादी नीतियों से प्रोत्साहन मिला। यदि आपने समाजवादी रास्ता चुना है, जो केवल राजनेताओं और बाबुओं के लिए ही है, तो गरीब कभी ऊपर नहीं आ सकते। चिकित्सा सुविधाओं, मुफ्त शिक्षा, अन्य आवश्यकताओं, यहाँ तक कि भोजन से वंचित, वे धर्मांतरण के लिए आसान लक्ष्य बन जाते हैं। अगर भारत ने मुक्त बाजार की नीतियों को अपनाया होता तो भारत कभी का एक समृद्ध विकसित देश बन गया होता, जिसका प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था बेहतर होती, जिसके चलते धर्म-परिवर्तन के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रहती।
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भूल-62
अशासित क्षेत्र
नेहरूवादी युग और उसके बाद भी आदिवासी एवं अन्य क्षेत्रों के बड़े इलाके को उपेक्षित, नजरअंदाज तथा अशासित छोड़ दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप समूचा पूर्वोत्तर समस्याओं की ओर अग्रसर होता गया और नक्सल-प्रभावित ‘लाल गलियारा’ छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश व बिहार तक में फैल गया। इसमें सिर्फ आदिवासी क्षेत्र ही नहीं थे, जिनकी उपेक्षा की गई थी या जो अशासित थे; उत्तर प्रदेश, बिहार और कई अन्य राज्यों के कई ग्रामीण और शहरी क्षेत्र ऐसे थे, जो आशाहीन, अवसादग्रस्त, कानून-विहीन एवं खतरनाक तथा फिल्म ‘ओंकारा’ की भाँति माफिया राज में रहने को मजबूर थे और अभी भी बने हुए हैं। इसका मूल कारण क्या है? गंदी राजनीति, औपनिवेशिक बाबूवाद और कुशासन। कड़वी सच्चाई यह है कि इन क्षेत्रों में जहाँ कहीं भी भारत सरकार की पहुँच संभव हुई है, उसका मकसद सेवा करने और सुविधा प्रदान करने के मुकाबले पैसा बनाने का अधिक रहा है। इसके अलावा, नेहरूवादी समाजवाद का मतलब आर्थिक ठहराव था और तथाकथित अशासित क्षेत्रों में संसाधनों या निवेश को लाने में सक्षम बनाने के लिए कोई अधिशेष नहीं था, न ही उन क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे के लिए निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियाँ थीं। जो भी थोड़ी-बहुत धनराशि इन क्षेत्रों के लिए जारी की जाती थी, उसे नेहरूवादी समाजवादी बाबुओं और राजनेताओं द्वारा हड़प लिया जाता था।