[ 6. अर्थव्यवस्था ]
‘प्रगतिशील’ (स्व-घोषित) माने जानेवाले व्यक्तित्व की प्रतिगामी नीतियाँ
वर्ष 1947 से 1964 के बीच जापान की जी.डी.पी. प्रति व्यक्ति के लिए सी.ए.जी.आर. (कंपाउंडेड एन्युअल ग्रोथ रेट) 7.9 प्रतिशत, पूर्व सोवियत संघ के लिए 4.4 प्रतिशत और भारत के लिए बेहद खराब 1.68 प्रतिशत थी। नेहरू के कदाचित् प्रगतिशील व्यक्तित्व के लबादे के पीछे उनकी प्रतिगामी समाजवादी नीतियों के प्रति प्रेम को देखते हुए यह जरा भी आश्चर्यजनक नहीं है। भारत का रिकॉर्ड न सिर्फ चीन जैसे साम्यवादी देश के मुकाबले बेहद खराब था, जो उस समय आर्थिक रूप से बहुत छोटा था और उस आर्थिक विशालता के आसपास भी नहीं फटकता था, जिस स्थिति में वह आज है, बल्कि फिलिपींस और मलेशिया जैसे कहीं अधिक छोटे देशों से भी नीचे था। यहाँ तक कि बर्मा (अब म्याँमार) जैसे एक गुमनाम देश ने भी वर्ष 1950 से 1964 के बीच 3.16 प्रतिशत की सी.ए.जी.आर. हासिल की, जो भारत की 1.68 प्रतिशत से कहीं बेहतर थी। वर्ष 1952 से 1964 के दौरान भारत की 4 प्रतिशत की जी.डी.पी. वृद्धि के अलावा, यहाँ तक कि सिर्फ 32 वर्ष की जीवन-प्रत्याशा के साथ, नेहरू के राज में भारत उप-सहारीय अफ्रीका से भी कहीं बदतर था, जिनकी जीवन-प्रत्याशा 38 वर्ष की थी। स्पष्ट है कि लाइसेंस राज का महालनोबिस मॉडल, जो नेहरू की सबसे बेकार विरासतों में से एक है, ने भारत को आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया। इससे भी बुरा यह था कि उनकी मृत्यु के बाद भी नैतिक दिवालिया और राजनीतिक रूप से अदूरदर्शी कांग्रेस ने मौका मिलने पर बीते पाँच दशकों से हमेशा असफल नेहरूवादी मॉडल को ही प्रचारित किया है।”
भूल-64
नेहरूवादी (‘हिंदू’ नहीं) वृद्धि दर
“भारत की गरीबी खुद पर थोपी हुई है और इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं हमारे द्वारा अपनाई गई आत्मघाती नीतियाँ; हालाँकि, समृद्धि के नुस्खे कई वर्षों से बिल्कुल सामने ही उपलब्ध थे और इसके बेशुमार वास्तविक, व्यावहारिक उदाहरण मौजूद थे। अगर नेहरू सरकार ने अपनी प्राथमिक जिम्मेदारियों पर ध्यान केंद्रित किया होता और काम करना शुरू कर दिया होता, अगर उसने जनता को व्यापार करने की आजादी प्रदान की होती, अगर उसने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाया होता तो भारत 1950 के दशक में ही दोहरे अंकों की विकास दर को हासिल कर चुका होता (उसके अन्य देशों की तुलना में इतने अधिक लाभ थे) और भारत एक गरीब, दयनीय, संघर्षरत, लँगड़ाकर आगे बढ़नेवाला तीसरी दुनिया का देश बने रहने के बजाय कहीं पहले ही विकसित विश्व का हिस्सा बन गया होता।
एक तरफ, जहाँ दक्षिण-पूर्व एशिया के विकासशील देश, जो सन् 1947 में भारत से कहीं पीछे थे, 9 से 12 प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ कहीं आगे निकल गए और समृद्ध बन गए। एक तरफ जहाँ उनका बुनियादी ढाँचा पश्चिमी देशों को चुनौती दे रहा था, वहीं दूसरी तरफ भारत सिर्फ 3 प्रतिशत की वृद्धि दर, जिसे ‘वृद्धि की हिंदू दर’ भी कहा जाता है, पर ही अटका रहा और आशा- रहित बन गया, जो दूसरों से मदद और खाना माँगता रहता था। हालाँकि, शब्द ‘वृद्धि की हिंदू दर’ अपमानजनक होने के अलावा अत्यधिक अनुचित और अन्यायपूर्ण है। आइए, जानते हैं, क्यों?
1. वृद्धि की नेहरूवादी दर। वृद्धि की कम दर के लिए नेहरू-इंदिरा-राजीव की नीतियाँ जिम्मेदार थीं। अगर इसे ‘वृद्धि की हिंदू दर’ के बजाय ‘वृद्धि की नेहरूवादी दर’ या फिर ‘वृद्धि की नेहरूवादी-समाजवादी दर’ या ‘एन.आई.डी.पी. (नेहरू-इंदिरा राजवंशीय नीति) वृद्धि दर’ कहा जाए तो इसको लेकर कोई विवाद नहीं रहेगा।
2. वृद्धि की औपनिवेशिक दर। आजादी के पूर्व के समय, औपनिवेशिक काल, में वृद्धि दर और भी अधिक कम थी! वास्तव में, यह कई बार लंबी अवधि के लिए ऋणात्मक भी पहुँच जाती थी! फिर ऐसा क्यों कि उस समय की वृद्धि दर को अपमानजनक भाव से ‘वृद्धि की औपनिवेशिक दर’ या फिर ‘वृद्धि की ईसाई दर’ नहीं कहा जाता है? कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार, “वैश्विक आय में भारत की हिस्सेदारी वर्ष 1,700 के 22.6 प्रतिशत से 1952 में यूरोपीय हिस्सेदारी के 23.3 प्रतिशत के मुकाबले 3.8 प्रतिशत के निचले स्तर तक पहुँच गई थी।” अतीत का हिंदू भारत बेहद समृद्ध रहा था, जिसकी जिम्मेदार थी उसकी ‘वृद्धि की हिंदू दर’, जिसके चलते पहले तो भारत की उत्तर-पश्चिम दिशा की मुसलमान फौजों और फिर उसके बाद पश्चिमी देशों ने उस पर हमला किया। पश्चिम के उदय से पूर्व तक भारत संभवतः दुनिया का सबसे समृद्ध राष्ट्र था, जिसके चलते यह पहले तो मुसलमान हमलावरों और फिर पश्चिम के निशाने पर रहा। फिर क्यों ‘वृद्धि की हिंदू दर’ का इस्तेमाल प्रशंसा करने के भाव से नहीं किया जाता है?
3. आप 9 प्रतिशत से अधिक की हालिया वृद्धि दर की व्याख्या कैसे करेंगे? बिल्कुल वही भारत, नेहरू-इंदिरा-राजीव के दौर की समाजवादी नीतियों के केवल एक हिस्से से पीछा छुड़ाने के बाद 9 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर तक पहुँच गया! नेहरू-इंदिरा की समाजवादी नीतियों को थोड़ा और छोड़ो और वृद्धि दर दोहरे अंकों में पहुँच जाएगी।
4. धार्मिक-सांस्कृतिक अर्थ का बेतुकापन। तेल की खोज और उसकी वैश्विक माँग से पहले कई इसलामिक देश बेहद गरीब थे। क्या उनकी वृद्धि दर को ‘वृद्धि की इसलामिक दर’ कहा जाता है? छठी से दसवीं शताब्दी के बीच यूरोप की वृद्धि दर स्थिर या ऋणात्मक थी, जबकि उसी दौरान भारत की वृद्धि दर बेहद समृद्ध और विकासशील थी। क्या उसे कभी ‘वृद्धि की ईसाई दर’ कहा गया? श्रीलंका और म्याँमार में काफी लंबे समय तक या तो वृद्धि हुई ही नहीं या बेहद कम वृद्धि हुई। क्या उसे कभी ‘वृद्धि की बौद्ध दर’ कहकर पुकारा गया? चीन की वृद्धि दर उसके कम्युनिस्ट होने से पहले और माओ के युग के खात्मे तक बेहद दयनीय थी। क्या उसे ‘वृद्धि की नास्तिक या कम्युनिस्ट दर’ कहा गया? आखिर ‘हिंदू’ को आर्थिक वृद्धि की दर से क्यों संबद्ध करना, जब तक कि आपका मकसद हिंदू धर्म को जान-बूझकर बदनाम करना न हो? बेशक, कई लोग इसके निहितार्थों के बारे में सचेत हुए बिना अनजाने में इस शब्द का प्रयोग करते हैं।
5. नेहरू बनाम हिंदू धर्म। नेहरू एक अनीश्वरवादी थे; एक भारतीय की तुलना में अंग्रेज अधिक थे, पूर्वी की तुलना में अधिक पश्चिमी थे, हिंदू न होकर ‘कुछ और’ थे और इसलिए वृद्धि की उस दर को ‘हिंदू’ नाम देना बिल्कुल अनुचित है, जो पूरी तरह से उनकी और उनके राजवंश की देन थी।
6. वृद्धि की ‘धर्मनिरपेक्ष’ दर क्यों नहीं? नेहरू, नेहरू का राजवंश और उनकी मंडली ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ को वास्तव में अपनाए बिना उसके घृणास्पद होने तक प्रलाप किया। क्यों न उन्हें वृद्धि की इस दर का ‘वृद्धि की धर्मनिरपेक्ष दर’ के रूप में श्रेय दिया जाए!
7. समाजवाद बनाम हिंदू धर्म। हिंदू भारत में मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वाणिज्य की लंबी परंपरा रही है, साथ ही उदार धार्मिक एवं दृष्टिकोण की भी। इस प्रकार का लोकाचार कभी भी बड़े भाई की डपट या फिर उसका रनअप स्वीकार नहीं करेंगे। एक बहुत पुरानी भारतीय कहावत है—राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी। अर्थात् जब सरकार व्यापार में कदम रख देती है तो जनता भिखारी बन जाती है। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के स्तर पर आत्मनिर्भरता में विश्वास तथा आत्माभिमानी समाजवादी स्थिति ने भारत को इस स्थिति में पहुँचाया; जबकि इसका हिंदू धर्म के साथ कुछ लेना-देना नहीं था।
8. समाजवाद बनाम महात्मा गांधी और अन्य। महात्मा गांधी कोई समाजवादी नहीं थे, न ही सरदार पटेल, राजाजी और राजेंद्र प्रसाद जैसे अन्य दिग्गज ही। इन चारों (महात्मा गांधी, सरदार पटेल, राजाजी और राजेंद्र प्रसाद) को नेहरू के विपरीत, हिंदू मान्यताओं का प्रतिनिधि माना जा सकता है और शायद इसी वजह से ये चारों नेहरू के समाजवादी दिखावे के खिलाफ थे।
9. एक छलावरण। किसी भी स्थिति में, जिस प्रकार से ‘वृद्धि की हिंदू दर’ में ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग अपमानजनक तरीके से किया गया है, वह न सिर्फ अपमानजनक है, बल्कि यह वास्तविक कारणों पर भी परदा डालता है—नेहरूवादी नीतियाँ।
लेकिन सवाल यह उठता है कि ‘वृद्धि की हिंदू दर’ स्थापित कैसे हुई? उसके कारण ये थे—
1. राज कृष्ण : इस पारिभाषिक शब्द को कथित तौर पर नेहरू-इंदिरा काल के दौरान वृद्धि की शर्मनाक दर की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अर्थशास्त्री राज कृष्ण द्वारा गढ़ा गया था। भारत के मुख्यतः हिंदू आबादीवाला देश होने के चलते उन्होंने इसे ‘वृद्धि की हिंदू दर’ कहकर बुलाया। लेकिन इतना तय है कि उनका मकसद हिंदू धर्म का अपमान करने का नहीं था।
2. समाजवाद के बजाय हिंदू धर्म को दोष देना : भारतीय राजनेता और नौकरशाह कभी यह स्वीकार नहीं करना चाहते थे कि दोष समाजवादी तंत्र का है। खुद को दोषी कैसे मान लें? विशेषकर उस चीज पर दोष क्यों डालें, जिसे खुद आपने ही सींचा है? वामपंथियों, समाजवादियों और कम्युनिस्टों को सरकार या सरकारी सहायता प्राप्त संगठनों, समाजों एवं विश्वविद्यालयों में बेशकीमती स्थान मिले और भारत के बौद्धिक संवाद में उनका पूरा बोलबाला रहा। इस पूरी मंडली ने पूरे दोष काे धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत पर डालने में जरा भी शर्म महसूस नहीं की।
3. धर्मनिरपेक्षतावादी : बुद्धिजीवियों के एक निश्चित वर्ग का सबसे बड़ा आधार ही है हिंदू धर्म के प्रति अपमानजनक होना। ‘वृद्धि की हिंदू दर’ में ‘हिंदू’ शब्द उनके इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है; बल्कि यह उनके लिए दो तरह से प्रभावी होता है—समाजवाद से पैदा होनेवाली बुराइयों पर परदा डालता है, साथ ही बेहद सस्ते तरीके (हिंदू धर्म को गाली देकर) से उन्हें धर्मनिरपेक्ष भी साबित करता है।
4. उपनिवेशवादी और भारत-विरोधी : इस शब्द के साथ चिपके रहनेवाले अन्य समूह, जिन्होंने इसे गले लगाया और भारत को बदनाम करने के लिए उत्साह के साथ इसका प्रचार किया, वे उपनिवेशवादी थे या फिर उपनिवेशवादी मानसिकतावाले लोग या भूरे साहब थे या फिर भारत के विरोधी थे। हिंदुओं के हाथ में सत्ता सौंप दो और आपको जो मिलेगा, वह है—‘वृद्धि की हिंदू दर’। अब ब्रिटिश राज जारी रह गया होता तो हालात बेहतर हो सकते थे! क्या पाकिस्तान का नितांत खराब प्रदर्शन ‘वृद्धि की मुसलमान दर’ की बदौलत था? क्या भारत में ब्रिटिश राज के दौरान कुछ निश्चित लंबे समयों के लिए कोई वृद्धि नहीं, या फिर ऋणात्मक वृद्धि दर नहीं थी, जिसका कारण ‘वृद्धि की ईसाई दर’ या ‘वृद्धि की औपनिवेशिक दर’ नहीं थी?