Nehru Files - 80 in Hindi Film Reviews by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-80

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नेहरू फाइल्स - भूल-80

भूल-80 
भाषा के मुद्दे से खिलवाड़ करना और हिंदी-विरोधी होना 

संविधान सभा ने काफी विचार-विमर्श के बाद इस बात पर सहमति व्यक्त की कि देवनागरी लिपि में हिंदी संघ की आधिकारिक भाषा होगी; लेकिन संविधान के प्रारंभ, यानी 26 जनवरी, 1950 से 15 साल तक के लिए संघ के सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग जारी रहेगा, यानी 25 जनवरी, 1965 तक। लेकिन राजभाषा अधिनियम-1963 ने यह नियत किया कि वर्ष 1965 के बाद आधिकारिक संवाद में हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी प्रयोग में ‘लाया जा सकता है’। इसने इसे अस्पष्ट बना दिया। क्या यह वैकल्पिक था? लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में हिंदी को 26 जनवरी, 1965 से देश की आधिकारिक भाषा बनाने के निर्णय पर अड़ गए और पूरे दक्षिण भारत में आसमान टूट पड़ा। विवश होकर शास्त्री को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। 

सवाल हिंदी या फिर अंग्रेजी का नहीं है। सवाल यह है कि आखिर क्यों नेहरू के नेतृत्व में इस मामले को 15 साल तक टलने दिया गया? सभी हितधारकों के बीच संवाद कायम करने का कोई प्रयास तक नहीं किया गया और क्यों इस बारे में कई साल पहले ही कोई विचार तक नहीं किया गया कि 26 जनवरी, 1965 के बाद क्या किया जाना चाहिए, चाहे इसके सुचारु कार्यान्वयन के लिए या फिर यथास्थिति को बनाए रखने के लिए? अगर सभी पक्ष वास्तव में हिंदी को लेकर सहमत नहीं थे तो इसे पहले से ही घोषित कर दिया जाना चाहिए था कि जब तक सभी पक्षों के बीच सहमति नहीं बन जाती, तब तक यथास्थिति बनी रहेगी। 

नेहरू की प्रवृत्ति और स्पष्टता की कमी का नतीजा रहा बड़े पैमाने पर हुआ आंदोलन, हिंसा और लोगों के बीच बढ़ा कटुता का भाव, जिससे बेहद आसानी से बचा जा सकता था। शास्त्री को भी इस बात को लेकर सचेत रहना चाहिए था कि उन्हें एक ऐसे निर्णय को लागू करने से बचना चाहिए था, जो समाज के एक बड़े वर्ग को स्वीकार्य नहीं था। 

अगर ऐसा लगता था कि अंग्रेजी एक उपयोगी वैश्विक भाषा है तो इसे एक नीतिगत फैसले के रूप में कक्षा एक से सभी के लिए अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए था। सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए धन उपलब्ध करवाना चाहिए था कि सभी स्कूलों में क्षेत्रीय भाषा और हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी सिखाने की सुविधाएँ भी उपलब्ध हो सकें। ऐसा करके सभी छात्रों के लिए एक समान अवसरों का मैदान तैयार किया जा सकता था। सभी बच्‍चों के अंग्रेजी जानने के साथ ‘अंग्रेजी भाषा का कुलीन तंत्र’ खत्म हो गया होता। हालाँकि, ऐसा नहीं किया गया। भूरे साहब स्वतंत्रता के बाद ‘अंग्रेजी भाषा का कुलीन तंत्र’ बनाने में कामयाब रहे। अच्छेपदों, नौकरियों और विशेषाधिकारों को अलग कैसे किया जाए? उनके लिए अंग्रेजी ज्ञान के आधार को आवश्यक बना दें। अंग्रेजी को चुनिंदा स्कूलों व कॉलेजों सीमित कर दें और उन संस्थानों तक पहुँच को सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए सीमित कर दें। 

यहाँ पर कहने का मतलब यह नहीं है कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए था। स्कूली स्तर पर यह मातृभाषा में होना चाहिए था, साथ ही अंग्रेजी और हिंदी वैकल्पिक स्तर पर, जिसमें अंग्रेजी या हिंदी में सीखनेवालों के लिए कोई विशेषाधिकार नहीं होता; लेकिन अंग्रेजी और वह भी अच्छी अंग्रेजी सीखना सभी के लिए अनिवार्य होना चाहिए था। ऐसा करके अंग्रेजी एक ऐसी विदेशी भाषा बनकर रह जाती, जिसे हर कोई जानता होता। अगर अंग्रेजी नौकरी पाने का प्रमुख कारक होती, जैसे—आई.टी. या बी.पी.ओ. या के.पी.ओ., उस स्थिति में चूँकि सभी छात्र इस भाषा में पारंगत होते, इसलिए कम योग्य छात्रों को नौकरी मिलने में बढ़त नहीं मिलती। 

अंग्रेजी बोलनेवाले अभिजातों की एक छोटी सी संख्या, हिंदीभाषी लोगों का एक छोटा सा कट‍्टर वर्ग और एक अदूरदर्शी एवं अक्षम नेतृत्व ने भाषा के मुद्दे का बतंगड़ बना दिया। दक्षिण में रहनेवाले लोगों की एक बड़ी संख्या को न तो हिंदी आती थी और न ही अंग्रेजी, तो फिर उनके द्वारा किसी को भी तरजीह देने का सवाल ही कहाँ से आ गया? यह एक लोकतांत्रिक देश है और पहले एक सर्वसम्मति तैयार की जानी चाहिए थी; और जब तक ऐसा सुनिश्चित नहीं कर लिया गया था, किसी भी भाषा को थोपने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए था। अगर ऐसा लगता था कि 15 साल की समयावधि कम पड़ रही है तो इसकी समाप्ति से काफी पहले ही इसे बढ़ा दिया जाना चाहिए था, ताकि किसी भी प्रकार की अनिश्चितता न रहे। 

इसके अलावा, भारत जैसे एक प्राचीन देश के पास अपनी एक ऐसी राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं होनी चाहिए, जो सभी को आती हो, ताकि आपसी संवाद आसान हो सके और साथ ही जो किसी भी प्रकार से क्षेत्रीय भाषाओं या अंग्रेजी को अनदेखा न करती हो या फिर नौकरी की संभावनाओं को प्रभावित न करती हो? इस बात की परवाह किसे होगी कि कौन सी भाषा चुनी गई है? महत्त्वपूर्ण यह है कि कम-से-कम एक सर्वनिष्ठ भाषा हो। वह हिंदी या हिंदुस्तानी हो सकती थी, जिसमें अन्य क्षेत्रीय भाषाओं या अंग्रेजी से भी शब्द आसानी से समाहित किए जा सकते थे, या फिर वह सरल संस्कृत या तमिल या तेलुगु या बँगला या फिर कोई भी अन्य भाषा अथवा एक नई हाईब्रिड भाषा हो सकती थी, जिसमें सभी भाषाओं से शब्द लिये गए होते। 

भारत के बिल्कुल विपरीत, इजराइल ने जो किया, वह बेहद सराहनीय है। सन् 1948 में इजराइल का निर्माण होने पर दुनिया भर में फैले यहूदी वहाँ आ गए। वे सभी अलग-अलग भाषाएँ बोलते थे। राज्य द्वारा समर्थित एक एकीकृत भाषा सुनिश्चित करने के क्रम में उन्होंने इजराइल की प्राचीन भाषा हिब्रू को पुनरुज्जीवित करने का तय किया, जो जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी थी। अब, सभी इजराइली हिब्रू में बात करते हैं। इसने उन्हें एक पहचान दी है और इजराइल को एकजुट करने में बहुत मदद की है। ज्यादातर इजराइली अंग्रेजी भी जानते हैं, क्योंकि इसे प्राथमिक स्कूल के दौर से ही पढ़ाया जाता है। 

सन् 1955 में स्थापित किए गए भाषा आयोग ने संघ की भाषा के रूप में 26 जनवरी, 1965 से पहले अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को अपनाने से जुड़ी प्रगति की जाँच की, जैसाकि संविधान के अनुसार किया जाना था; संवैधानिक दायित्वों को दोहराया, कई सिफारिशें कीं, लेकिन आखिर में फैसला सरकार पर छोड़ दिया। सन् 1957 में आयोग की सिफारिशों की जाँच के लिए एक संसदीय समिति का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष जी.बी. पंत (तत्कालीन गृह मंत्री) थे। इसकी सर्वसम्मत (लेकिन सिर्फ एक असहमति) सिफारिश थी कि हिंदी को 26 जनवरी, 1965 से प्रमुख भाषा होना चाहिए और अंग्रेजी को सहायक भाषा। इस बदलाव के लिए कोई तारीख नियत नहीं की गई थी। पंत ने संसदीय समिति की मसौदा रिपोर्ट नेहरू को भेजी। उसके बाद क्या हुआ, उसके बारे में कुलदीप नैयर की ‘बियॉण्ड द लाइंस’ के अंश प्रस्तुत हैं— 
“अंग्रेजी के लिए ‘सहायक’ शब्द के प्रयोग ने नेहरू को नाराज कर दिया, जिनका कहना था कि शब्द ‘सहायक’ का मतलब यह होगा कि अंग्रेजी ‘दासों’ की भाषा है (पंत द्वारा कई वैकल्पिक शब्द सुझाए गए थे)। नेहरू पंत से पूरी तरह से असहमत थे और इससे भी बुरा यह था कि वे काफी रुष्ट थे और उन्होंने कथित तौर पर काफी कठोर शब्द भी कहे थे। आखिरकार, ‘सहायक’ शब्द को ‘अतिरिक्त’ द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। पंत ने मुझसे कहा, ‘आप मेरी बात लिखकर रख लो, देश में हिंदी नहीं आ पाएगी।’ वे बेहद खिन्न थे। और उसी शाम उन्हें पहला दिल का दौरा पड़ा।” (के.एन.) 

दरअसल, नेहरू उस भाषा को आगे बढ़ाना चाहते थे, जिसमें वे खुद सहज थे और इस बात को लेकर संदेह है कि वे भारतीय चीजों या भारतीय भाषाओं और संस्कृति की वास्तव में परवाह भी करते थे या नहीं। गौर करनेवाली बात यह है कि अधिकांश स्वतंत्रता सेनानी, चाहे वे किसी भी भाषा-क्षेत्र से आते हों, संपर्क की आम भाषा और राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी या हिंदुस्तानी को ही पसंद करते थे। इसके बावजूद स्वतंत्रता के पश्चात् इस मामले को नेहरू के नेतृत्व में विवादास्पद बनने दिया गया। 

लोकमान्य तिलक भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को अपनाए जाने के पक्षधर थे और वे इसे राष्ट्रवाद के एक महत्त्वपूर्ण अवयव के रूप में भी देखते थे। गांधी ने कलकत्ता कांग्रेस में तिलक द्वारा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को लेकर दिए गए उनके संभाषण की प्रशंसा की थी। वीर सावरकर ने लंदन में स्वराज के संकल्प का प्रस्ताव अंग्रेजी में नहीं, बल्कि उस भाषा में, जिसे वे ‘भारत की सार्वजनिक भाषा’ कहते थे, हिंदी में पेश किया था। गांधी ने दिसंबर 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में तीन चीजों का प्रस्ताव रखा था—भारत की सार्वजनिक भाषा के रूप में हिंदी, राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगा और कांग्रेस सदस्यों के आधिकारिक लिबास के रूप में खादी। (बी.के./74) 

इससे पूर्व सन् 1925 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में सरोजिनी नायडू की अध्यक्षता में कांग्रेस के सत्रों के लिए भाषा के रूप में हिंदुस्तानी की सिफारिश की गई थी। 

गांधी ने 9 जुलाई, 1938 को ‘हरिजन’ में लिखा— 
“ ...एक विदेशी भाषा, जिसमें भारत की उच्‍च शिक्षा प्रदान की जाती है, ने देश को एक बेहिसाब बौद्धिक और नैतिक चोट पहुँचाई है। अब हम उस स्थिति में पहुँचने वाले हैं, जब हमें इससे होनेवाले नुकसान को आँकना होगा। और हमें, जिन्होंने इस प्रकार की शिक्षा ग्रहण की है, ही पीड़ित व पंच दोनों की भूमिका का निर्वहन करना होगा; और ऐसा करना लगभग असंभव उपलब्धि होगा। 

“ ...मैंने 12 साल की उम्र तक जो भी ज्ञान प्राप्त किया, वह मेरी मातृभाषा गुजराती में था। मैं उस समय तक थोड़ा-बहुत अंकगणित, इतिहास और भूगोल भी जानता था। इसके बाद मैंने माध्यमिक विद्यालय में दाखिला लिया। पहले तीन वर्षों तक मेरी मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम थी; लेकिन स्कूल के शिक्षकों का काम विद्यार्थियों के दिमाग में अंग्रेजी को घुसाना था। इसके परिणामस्वरूप हमारा आधे से भी अधिक समय अंग्रेजी सीखने और उसकी स्वच्छंद वर्तनी तथा उच्‍चारण में महारत हासिल करने में बीतता। एक ऐसी भाषा, जिसे जैसे बोला जाता था, बिल्कुल वैसे ही लिखा नहीं जाता था उसे सीखना वास्तव में बेहद पीड़ादायक खोज था। रटकर वर्तनी को सीखना एक बिल्कुल ही अजीब सा अनुभव था। चौथे साल से सार्वजनिक रूप से दंड मिलना शुरू हुआ। रेखागणित, बीजगणित, रसायन-विज्ञान, खगोल-विज्ञान, इतिहास, भूगोल—सबकुछ अंग्रेजी में सीखना आवश्यक था। अंग्रेजी इतनी अधिक प्रभावी थी कि संस्कृत या फारसी को भी सिर्फ अंग्रेजी के माध्यम से ही सीखा जा सकता था, न कि मातृभाषा में। अगर कक्षा में कोई भी छात्र गुजराती में बात करता, जिसे वह समझता था तो उसे दंडित किया जाता। 

“ ...अब मुझे यह बात पता है कि मुझे रेखागणित, बीजगणित, रसायन-विज्ञान और खगोल-विज्ञान को सीखने में चार साल का समय लगा, वह मैं बेहद आसानी से सिर्फ एक साल में ही सीख सकता था। अगर मैंने उसे अंग्रेजी के बजाय अपनी मातृभाषा गुजराती में सीखा होता तो विषयों की मेरी समझ आसान और स्पष्ट होती। (सी.डब्‍ल्यू.एम.जी./खंड-73/279-80) 

“कांग्रेस के दिसंबर 1926 के गुवाहाटी अधिवेशन के बाद गांधी देश के एक और दौरे पर निकले। उन्होंने अपने भाषणों में अन्य बातों के अलावा इस बात पर भी जोर दिया कि “वे अंग्रेजी में बोलने पर खुद को अपमानित महसूस करते थे और इसलिए चाहते थे कि प्रत्येक भारतीय हिंदुस्तानी बोले। वे इससे भी आगे बढ़े और सभी भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि को अपनाने की वकालत की। उन्होंने एक बार फिर दक्षिण भारत को उनके प्रति प्रतिक्रिया में सबसे अधिक मुखर पाया और उन्होंने सिर्फ मद्रास शहर में ही दो दर्जन से भी अधिक जनसभाओं को संबोधित किया।” (डी.डी./124) 

अक्तूबर 1934 में कांग्रेस के अधिवेशन के बाद गांधी पूरे देश में पैदल घूमे और सभी से सरल हिंदी सीखने का आग्रह करते हुए अपना धर्मयुद्ध जारी रखा— 
“हमें एक अंतर-प्रांतीय भाषा के रूप में अंग्रेजी को छोड़ देना चाहिए और हिंदी एवं अन्य प्रांतीय भाषाओं के हिंदुस्तानी शब्दों को अपनाना चाहिए। एक आम देवनागरी लिपि बिल्कुल वैसे ही मददगार साबित होगी, जैसे एक आम लिपि ने यूरोपीय भाषाओं के विकास में मदद की थी।” (डी.डी./168) 

स्वतंत्रता के बाद एक बार जब गांधी दिल्ली के बिरला हाउस में एक सभा को हिंदुस्तानी में संबोधित कर रहे थे तो दर्शकों में से कुछ बोले कि वे समझ पाने में असमर्थ हैं। जिस पर गांधी ने कहा, “हम अब स्वतंत्र हैं। मैं अंग्रेजी में नहीं बोलूँगा। अगर आप लोगों की सेवा करना चाहते हैं तो आपको राष्ट्रभाषा को समझना ही होगा।” (डी.डी./290) 

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तत्कालीन गृह सचिव बी.एन. झा के अनुसार “हिंदी को संपर्क भाषा बनाने के प्रयास अगर असफल हुए तो उसका सबसे बड़ा कारण थे नेहरू और उनके सहयोगी। दो बड़े अवसर हाथ से चले गए थे—एक तो तब, जब वर्ष 1961 में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की सिफारिश पर सभी मुख्यमंत्री सभी भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि पर सहमत हो गए थे और दूसरा तब, जब गृह मंत्री पंत द्वारा संसदीय समिति की रिपोर्ट पर आधारित एक प्रस्ताव कैबिनेट बैठक में प्रस्तुत किया गया था, जिसके जवाब में नेहरू ने जोरदार तरीके से जवाब देते हुए कहा था, ‘यह क्या बकवास है! वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के लिए हिंदी में शब्द होना संभव नहीं है।’ भले ही पंत के प्रस्ताव में वह पहलू शामिल ही नहीं था—नेहरू सिर्फ हिंदी के प्रति अपनी नापसंदगी को व्यक्त कर रहे थे।” (डी.डी./330-31) 
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बी.एन. शर्मा ने लिखा—“आखिर ऐसा क्यों है कि आजादी के करीब पाँच दशक बाद भी हम अभी तक अंग्रेजी के बोझ से मुक्त नहीं हो पाए हैं और न ही अपने लिए एक राष्ट्रीय भाषा का चुनाव कर पाए हैं। यह बात एक निर्विवाद सत्य है कि हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है, जो सबसे अधिक राज्यों में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है। अगर कोई तमिल या फिर केरल का निवासी अंग्रेजी को आसानी से सीख सकता है तो फिर वह हिंदी क्यों नहीं सीख सकता, जिसका संस्कृत आधार उसकी अपनी भाषा के कई शब्दों का एक सामान्य स‍्रोत है? नेहरू, जो पश्चिम- उन्मुखी महानुभाव (डब्‍ल्यू.ओ.जी.) थे, ने हिंदी को लागू करने की दिशा में न तो कभी ईमानादार प्रयास किया और न ही राजनीतिक इच्छा-शक्ति दिखाई। उन्होंने (नेहरू ने) हिंदी को अपनाने के काम में बाधा डालने के लिए दिखावटी तर्कों का प्रयोग किया, जैसे वैज्ञानिक शब्दावली की कमी [तो फिर फ्रांस, जर्मनी, जापान, चीन, कोरिया और कई अन्य यूरोपीय एवं एशियाई देशों ने अपनी मातृभाषा में बहुत अच्छा प्रबंधन कैसे किया है?], अंतरराष्ट्रीय संवाद में मुश्किल और स्थानीय भारतीय भाषाओं की विविधता।” (बी.एन.एस./248-9) 

कोई भी देश, जिसके पास अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को आगे बढ़ाने का साधन नहीं है, जो उसकी राष्ट्रीय भाषा उपलब्ध करवाती है, वह आत्मा-विहीन और अंतरात्मा-विहीन है।