भूल-87
‘सिक्युलरिज्म’ बनाम सोमनाथ मंदिर
(जूनागढ़ के लिए कृपया भूल#31 पढ़ें।
सोमनाथ और गजनी के महमूद के लिए भूल#92, 93 देखें)
सोमनाथ मंदिर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के काठियावाड़ के जूनागढ़ जिले में वेरावल के नजदीक प्रभास पाटन के सोमनाथ नामक तटीय शहर में स्थित है, जो अरब सागर के तट पर बना हुआ है। यह वेरावल से 6 कि.मी. और जूनागढ़ से 80 कि.मी. दूर है। यह बारह आदि ज्योतिर्लिंगों में सबसे पवित्र माना जाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण ईसा के पूर्व से कुछ समय पहले करवाया गया था। इसे छह बार तोड़ा और लूटा गया—725 ईस्वी में सिंध के अरबी गवर्नर जुनायद द्वारा; 1024 ईस्वी में गजनी के महमूद द्वारा; 1296 ईस्वी में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा; 1375 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह प्रथम द्वारा 1451 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान, महमूद बेगडा द्वारा; और 1701 ईस्वी में औरंगजेब द्वारा। और हर बार इसका पुनर्निर्माण किया गया।
नवंबर 1947 में जूनागढ़ की आजादी के समय (भूल#31) सरदार पटेल सोमनाथ मंदिर (जूनागढ़ में स्थित) भी गए थे, जो उस समय बेहद जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। उन्होंने इसके पुनर्निर्माण करने तथा इसे इसका मूल स्वरूप और गौरव प्रदान करने का वचन दिया। जब गांधी को पटेल की प्रतिबद्धता का पता लगा तो उन्होंने सलाह दी कि पुनर्निर्माण के लिए धन जनता से आना चाहिए—और पटेल ने उनकी सलाह मान ली।
तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद, जिनके तहत भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) भी आता था, ने पुनरुद्धार के इस विचार का विरोध किया और सुझाव दिया कि खँडहरों को ए.एस.आई. को सौंप दिया जाए तथा वे जिस स्थिति में हैं, उसमें ही उन्हें संरक्षित किया जाए। गौरतलब है कि उन्होंने कभी ए.एस.आई. द्वारा मुसलमानों की मजारों और मसजिदों की मरम्मत होते समय ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया। (मैक/140)
सरदार पटेल के देहावसान के बाद कैबिनेट मंत्री के.एम. मुंशी ने इस काम की कमान सँभाली। हालाँकि, नेहरू ने कभी भी इस परियोजना का विरोध करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई और व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए मुंशी से कहा, “मुझे सोमनाथ के पुनरुद्धार का आपका प्रयास पसंद नहीं। यह हिंदू पुनरुत्थानवाद है।” (मैक/141)
सुसंस्कृत और विद्वान् मुंशी ने नेहरू को एक उपयुक्त और अर्थपूर्ण जवाब भेजा, जिसमें ये शब्द शामिल थे—
“यह अतीत में मेरा विश्वास है, जिसने मुझे वर्तमान में काम करने और भविष्य की ओर देखने की शक्ति प्रदान की है। मैं ऐसी स्वतंत्रता को महत्त्व नहीं दे सकता, जो हमें ‘भगवद्गीता’ से विरक्त करे या फिर लाखों लोगों के उस विश्वास को तोड़े, जिसके साथ वे अपने मंदिरों को देखते हैं और ऐसा करते हुए हमारे जीवन की बनावट को नष्ट करे।” (मैक/154)
के.एम. मुंशी ने सन् 1951 में पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में भाग लेने के लिए राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को आमंत्रित किया था। जोरदार विरोध करते हुए नेहरू ने इस समारोह में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के शामिल होने का विरोध किया और उन्हें लिखा—
“मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मुझे आपको सोमनाथ मंदिर के शानदार उद्घाटन से खुद को जोड़ने का विचार पसंद नहीं आया है। यह सिर्फ एक मंदिर में जाना नहीं है, जो निश्चित रूप से आपके और किसी के भी द्वारा किया जा सकता है, बल्कि यह एक ऐसे महत्त्वपूर्ण समारोह में भाग लेना है, दुर्भाग्यवश जिसके कई निहितार्थ हैं।” (स्व4)
इसके अलावा, नेहरू ने इसी विषय में 11 मार्च, 1951 को राजाजी को भी लिखा—“मैंने उन्हें (राजेंद्र प्रसाद काे) लिखा है कि उनके सामान्य तौर पर इस मंदिर (सोमनाथ) या किसी और मंदिर में जाने या अन्य धार्मिक स्थानों पर जाने तथा पूजा-पाठ करने से निश्चित ही कोई आपत्ति नहीं है; लेकिन निश्चित रूप से मंदिर के उद्घाटन के इस अवसर पर उनके जाने के अलग अभिप्राय और निहितार्थ होंगे। इसलिए, मेरी राय में मैं इस बात के पक्ष में हूँ कि वे खुद को इस प्रकार से न जोड़ें।” (जे.एन.एस.डब्ल्यू./खंड-16-1/603)
निहितार्थ? जो कुछ भी हिंदू हो वह नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की बेतुकी, दोषपूर्ण और खुद का फायदा करनेवाली भावना को चोट पहुँचाता। यह बात भी निश्चित है कि कुछ भी—मुसलमान, बौद्ध या ईसाई उनके लिए इस प्रकार से महत्त्व नहीं रखता था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद उस कार्यक्रम का हिस्सा बने और जवाब दिया, “अगर मुझे आमंत्रित किया जाता है तो मैं मसजिद या फिर गिरजाघर के मामले में भी ऐसा ही करूँगा (उद्घाटन समारोह में भाग लेना)।... हमारा देश न तो धार्मिक है और न ही धार्मिक-विरोधी।” (एडव.2)
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने समझाया कि सोमनाथ मंदिर का महत्त्व आक्रमणकारियों के विरुद्ध एक राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में है। उन्होंने एक उत्कृष्ट उद्घाटन भाषण दिया, जिसमें अन्य बातों के अलावा इस पर भी जोर दिया कि ऐसा करना सभ्यतागत पुनरुद्धार के लिए सृजनात्मक आग्रह था, जो सदियों से लोगों के दिलाें में पल रहा था और इसी के परिणामस्वरूप सोमनाथ की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा दोबारा संभव हो पाई है। उन्होंने कहा कि सोमनाथ मंदिर प्राचीन भारत की आर्थिक और आध्यात्मिक समृद्धि का प्रतीक था। सोमनाथ का पुनरुद्धार तब तक पूर्ण नहीं होगा, जब तक भारत अतीत के गौरव और समृद्धि को दोबारा नहीं प्राप्त कर लेता। इतना शानदार भाषण! लेकिन नेहरू के इशारे पर सरकारी चैनलों पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद के संबोधन को ब्लैक आउट कर दिया गया। (डी.डी./332) तानाशाह नेहरू के असभ्य व्यवहार देखिए—वे राष्ट्रपति के संबोधन को भी ब्लैक आउट कर सकते हैं! नेहरू के कैबिनेट सहयोगी, कांग्रेसी नेता, विपक्ष और मीडिया नेहरू के ऐसे बेशर्मी भरे आचरण के प्रति मूकदर्शक बने रहे!
इसका बिल्कुल उलट—“इतिहास के टुकड़े—जवाहरलाल (नेहरू) ने सन् 1950 में सोमनाथ के पुनरुद्धार के लिए 5 लाख रुपए का सरकारी अनुदान रोक दिया। उन्होंने सन् 1959 में हज अधिनियम पारित किया और उसके लिए 10 करोड़ रुपए आवंटित किए।” (ट्वी1)
यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि नेहरू ने इसके बाद साँची या सारनाथ के पुनरुद्धार की बात आने पर ऐसी कोई झल्लाहट नहीं प्रदर्शित की; हालाँकि यह काम सरकारी धन के द्वारा किया जा रहा था (जबकि सोमनाथ का पुनरुद्धार जनता द्वारा किया जा रहा था, सरकारी धन से नहीं)। क्यों? क्योंकि वे बौद्ध स्थान थे! नेहरू को परेशानी थी तो सिर्फ हिंदू स्थानों से!
एक ट्वीट (टी.डब्ल्यू.6) के अनुसार, अदालत में अयोध्या राम मंदिर से जुड़ी अदालती काररवाई के दौरान यह बात सामने आई कि सन् 1947 में दिल्ली में कई मसजिदों का निर्माण/मरम्मत सरकारी धन से की गई; हालाँकि इसे अन्य स्रोतों से सत्यापित किया जाना बाकी है।