जो कहा नहीं गया – भाग 3
चुप्पियों के बीच पुनर्मिलन
"वो अब मौन में जी रहे थे…
हर पूर्णिमा को वो एक थाली सजाते,
और किसी आहट की प्रतीक्षा करते।
शब्द नहीं बचे थे उनके पास…
लेकिन प्रेम अब भी वहीं था —
जो कहा नहीं गया बनकर।"
वर्तमान युग – ऋषिकेश
हिमालय की गोद में बसा, ऋषिकेश।
एक शांत, आध्यात्मिक नगर, जहाँ गंगा की लहरों में शांति भी बहती है और रहस्य भी।
यहाँ एक पुरानी किताबों की दुकान है — "शब्दाश्रम"।
कहते हैं कुछ किताबें वहाँ केवल पढ़ने के लिए नहीं रखी गईं…
वो किसी को बुलाने के लिए रखी गईं।
हर बुधवार, उसी दुकान के पिछले कोने में एक लड़की बैठती है —
नाम: रिया।
उसका कोई स्थायी पता नहीं था।
बस एक बैग, एक डायरी और कुछ अनकही बेचैनियाँ…
जो हर पूर्णिमा की रात जैसे भीतर से बाहर उमड़ती थीं।
बार-बार लौटता एक सपना
रिया को अक्सर एक ही सपना आता था।
एक प्राचीन आश्रम। मिट्टी की वेदियाँ।
एक थाली जिसमें दीपक जल रहा होता।
और एक पुरुष —
जो कुछ कहना चाहता, लेकिन हर बार मौन में चला जाता।
उसकी आँखों में कोई पहचानी हुई पीड़ा थी।
एक अधूरी बात… जो रिया के हृदय में धड़कन बन चुकी थी।
एक दिन सुबह उठते ही उसने अपनी डायरी में लिखा:
“हर जन्म की तरह,
शायद इस जन्म में भी
तुम सिर्फ मौन बनकर लौटोगे।”
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एक विशेष किताब
उस बुधवार, रिया ‘शब्दाश्रम’ पहुँची।
कुछ किताबें उलटने लगी।
एक किताब थी — "ध्यान और आत्मा का विलय"
पीले पड़े पन्ने, धीमे-धीमे मिटते शब्द…
लेकिन अंतिम पृष्ठ पर कुछ लिखा था:
“कुछ प्रेम पुकार नहीं करते…
वो जन्मों बाद भी मौन में लौटते हैं।”
उसके ठीक नीचे दो नाम:
“विष्णु और राध्या।”
रिया की साँसें थम गईं।
नाम जैसे उसके भीतर गूंजा।
राध्या — ये नाम उसने कभी उच्चारा नहीं था,
पर आज लगा जैसे ये उसी का था।
तभी दरवाज़ा खुला।
एक युवक भीतर आया।
धीमे क़दमों से, सीधा उसी किताब की ओर बढ़ा।
उसकी आँखों में वही मौन था…
जैसा रिया अपने स्वप्न में देखती थी।
मौन संवाद
वो युवक अक्सर आता।
हर बार एक ही shelf के पास रुकता।
कभी-कभी कोई किताब निकालता,
फिर वहीं रख देता — बिना कुछ कहे।
रिया उसे देखती,
जैसे किसी अनकहे संवाद की प्रतीक्षा कर रही हो।
एक दिन उसने एक किताब खोली —
"प्रेम और विरह के दर्शन"
पन्नों में से एक कागज़ गिरा।
उसमें एक चित्र था —
मिट्टी की थाली और दीपक,
वही जो रिया के स्वप्न में हर पूर्णिमा दिखाई देता था।
रिया ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा।
वो युवक शांत था, लेकिन उसकी आँखों में कंपकंपाहट थी।
जैसे कोई स्मृति लौट आई हो —
किसी बीते जीवन की।
पूर्णिमा की रात
उस रात चाँद पूरा था।
रिया अकेली अपने कमरे में बैठी थी,
मन ही मन थाली सजा रही थी —
जैसे किसी पुराने संस्कार का पुनर्जन्म हो रहा हो।
उसने अपनी डायरी खोली और लिखा:
“अगर तुम लौटे हो…
तो कुछ मत कहना।
बस वो मौन रखना…
जिसे मैंने जन्मों तक सँजोया है।”
अगली सुबह — पहली बार शब्द
अगली सुबह ‘शब्दाश्रम’ पहुँची तो
वो युवक पहले से वहाँ था।
इस बार उसकी आँखों में कोई हलचल नहीं थी,
बल्कि एक शांत स्पष्टता थी।
उसने एक किताब आगे बढ़ाई:
"कुछ प्रेम अनाम होते हैं"
रिया ने काँपते हाथों से किताब ली।
उसने पहली बार कुछ कहा:
“ये किताब… आपको ढूंढ़ रही थी।”
रिया ने किताब खोली —
पहले पन्ने पर लिखा था:
“राध्या — तुम्हारी प्रतीक्षा अब पूर्ण हुई।”
अध्याय समाप्त — लेकिन मिलन शुरू
“अब वे फिर से मिले हैं —
पर शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं रही।
क्योंकि कुछ प्रेम सिर्फ मौन में पनपते हैं,
और कुछ पुनर्मिलन…
जन्मों के फासले पार कर
फिर से जीते जाते हैं —
‘जो कहा नहीं गया’ बनकर।”