"धर्म का द्वार वहां नहीं खुलता जहां ज्ञान होता है,
बल्कि वहां खुलता है जहां 'भीतर की प्यास' जागी होती है।"
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲
और जब कोई भीतर से फूटता है —
तब वह संसार के नहीं,
परमात्मा के योग्य हो जाता है।
मनुष्य क्या सच में सोचता है?
या वह केवल देखता है —
दूसरे क्या कर रहे हैं,
और वही करने लगता है?
भीड़ चलती है,
और मनुष्य उसी में शामिल हो जाता है।
जैसे एक अंधा,
दूसरे अंधों के पीछे।
धर्म कहता है —
"ऐसे खाओ, ऐसे चलो, ऐसे बोलो,
ऐसे बनो जैसे हमने बताया है।"
और मनुष्य सोचता है —
"जो ऐसा नहीं बनेगा, वह गलत कहलाएगा।"
लेकिन प्रश्न अब यह नहीं कि
तुम क्या करते हो —
प्रश्न यह है कि
तुम क्यों करते हो?
धर्म बन गया है एक अभिनय —
सभ्य दिखने का,
दूसरों को संतुष्ट करने का।
कोई भीतर से शांत नहीं,
सिर्फ बाहर से सज्जन दिखता है।
कोई भीतर से मुक्त नहीं,
बस नियमों की बेड़ियों को
धर्म का नाम दे रखा है।
पर असली धर्म वहाँ शुरू होता है —
जहाँ कोई भीतर से कहे:
"अब बस!
अब मुझे बदलना है।
अब जो मैं हूं, वह झूठ है —
मुझे सत्य चाहिए।"
उस क्षण बीज फूटता है।
उस क्षण धर्म जन्म लेता है।
उस क्षण परिवर्तन संभव होता है।
परिवर्तन कोई शिक्षा से नहीं आता,
कोई प्रवचन से नहीं आता —
परिवर्तन आता है
भीतर की सहमति से।
जब भीतर का मनुष्य कहता है:
"अब मुझे यही जीवन नहीं जीना।
अब मुझे नया जन्म चाहिए —
भीतर से।"
गुरु द्वार दिखाता है,
पर बीज नहीं बो सकता।
शास्त्र मार्ग बताते हैं,
पर प्यास नहीं जगा सकते।
जब तक भीतर
"हाँ, मुझे बदलना है"
यह बीज न फूटे —
सारा धर्म, सारा उपदेश,
सिर्फ़ बकवास है।
जो धर्म बाहर से थोपा जाता है,
वह सामाजिक संस्कार है —
धर्म नहीं।
जो धर्म भीतर से फूटता है,
वही जीवन की दिशा बदल सकता है।
तो प्रश्न यह नहीं कि
तुम किस धर्म में हो —
प्रश्न यह है कि
तुमने भीतर से हाँ कब कही थी?
जब मनुष्य भीतर से कहता है —
"अब मौन चाहिए",
"अब सच्चाई चाहिए",
"अब मैं झूठ से थक गया हूं",
—
वहीं से असली साधना शुरू होती है।
इसलिए
विज्ञापन से नहीं,
प्रवचन से नहीं,
तोड़ने से धर्म होता है —
भीतर के झूठ को तोड़ देने से।
सभी धर्म कहते हैं —
ऐसे जियो, वैसे बोलो,
इतना खाओ, इतना सोओ,
ऐसे दयालु बनो, वैसे सेवक बनो।
मानव सोचता है —
शायद यही मार्ग है,
यही बुद्धि है,
यही समाधान है।
पर भीतर कोई नहीं पूछता —
"क्या मैं सचमुच शांत हूं?"
बुद्धि अब 'नियम' बन चुकी है,
विवेक नहीं रही।
बुद्धिमान बनने की दौड़ में
मनुष्य 'नकलची' हो गया है।
➤ भीड़ जैसे चल रही है,
वह वैसे ही चल रहा है।
हर तरफ
एक अंधा, दूसरे अंधों के पीछे।
धर्म अब स्वयं की खोज नहीं,
दूसरों की नकल बन गया है।
➤ जो किया गया,
उसी को करना है।
जो बताया गया,
उसी को मानना है।
न कोई अनुभव,
न कोई मौन —
सिर्फ संस्कारों का बोझ।
धर्म अब निर्देश बन चुका है,
दिशा नहीं।
सब कहते हैं —
"ऐसे बनो,
तभी ईश्वर मिलेगा।"
पर कोई यह नहीं कहता —
"तुम जैसे हो,
वहीं से जागना शुरू करो।"
मनुष्य वही कर रहा है
जो सामने वाला करता है।
➤ उसमें कोई मौलिकता नहीं,
कोई अपनी आग नहीं।
वह सांस्कृतिक गुलाम है —
और उसी को 'धर्म' समझ बैठा है।
दो प्रकार के मनुष्य हैं:
भीतर से जन्मे बीज वाले —
जिनमें जन्मजात गुण,
जागरूकता,
संवेदना और मौन की संभावना होती है।
वे अपने स्वभाव से कर्म करते हैं।
नकल करने वाले —
जिन्हें नहीं पता कि वे कौन हैं,
इसलिए दूसरों से उधार लिए हुए
सपनों, नियमों और धर्मों में जीते हैं।
धर्मों ने शांति का वादा किया —
पर कोई नहीं कहता:
"मैं संतुष्ट हूं।
मैं शांत हूं।
मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"
➤ सब दुखी हैं —
धार्मिक भी,
बुद्धिमान भी,
अमीर भी,
गरीब भी।
क्यों?
क्योंकि परिवर्तन थोपने से नहीं होता।
विज्ञापन, प्रवचन, आदेश —
इनसे कोई भीतर नहीं बदलता।
जब तक मनुष्य स्वयं भीतर से न कहे —
"अब मुझे बदलना है",
कोई भी धर्म उसे छु नहीं सकता।
परम धर्म वहीं जन्म लेता है,
जहाँ मनुष्य स्वयं कहे —
"अब बस!
अब मुझे नया होना है।"
शब्दों में नहीं —
भीतर की 'हाँ' में
सच्चे धर्म का बीज छिपा है।
अज्ञात अज्ञानी
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