Trikaal - 5 in Hindi Adventure Stories by WordsbyJATIN books and stories PDF | त्रिकाल - रहस्य की अंतिम शिला - 5

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त्रिकाल - रहस्य की अंतिम शिला - 5

पिछले अध्याय में:
आर्यन ने "अभिज्ञान पाटल" के रहस्यमय संकेतों को सक्रिय कर एक ऐसे द्वार को खोला जिसे "शून्य द्वार" कहा जाता है — एक ब्रह्मांडीय टनल जो त्रिकाल की सीमाओं को मिटाकर समय के प्रवाह से परे ले जाती है। प्रोफेसर ईशान वर्मा और वेदिका की सहायता से, आर्यन ने न केवल अपने मानसिक क्षमताओं का विस्तार किया, बल्कि अब वह ब्रह्मांड की भाषा — श्रुति विज्ञान — को समझने लगा है। लेकिन अभी यह केवल शुरुआत है।

अब...

शून्य द्वार खुलने के साथ ही चारों ओर एक कंपन-सा फैल गया। हवा स्थिर हो गई, पेड़ झुक गए, और पत्तियां हवा में स्थिर हो गईं, जैसे समय ने साँस रोक ली हो।

आर्यन की आँखों के सामने वो दृश्य था, जिसे मानव ने कभी नहीं देखा — एक विशाल नीला भंवर, जिसमें तारे, मन्त्र, सूत्र, और संख्याएँ नाच रही थीं। हर दिशा से संस्कृत के मन्त्र गूंज रहे थे:

"कालो न याति, न आगच्छति।
आत्मा न वृद्धिं लभते, न नाशम्।"

प्रोफेसर ईशान की आवाज काँप रही थी –
“ये वही है... ‘कालातीत मंडल’। वो स्थान जो न समय के अधीन है, न कारण के। यहाँ चेतना ही मार्ग है।”

वेदिका ने आर्यन का हाथ थामा, “क्या तुम तैयार हो?”

आर्यन ने गहराई से साँस ली। उसका मन स्थिर था, पर दिल की धड़कन तेज़।
“तैयार नहीं, पर जाना तो होगा।”

जैसे ही उसने पहला कदम उस द्वार की ओर बढ़ाया, उसकी चेतना एक तेज़ झटके के साथ शरीर से अलग हो गई।
उसका भौतिक शरीर वहीं खड़ा रहा — लेकिन आत्मा, ऊर्जा के रूप में, उस भंवर में प्रवेश कर चुकी थी।

त्रिकाल से परे — चेतना का क्षेत्र

वह अब एक ऐसी जगह पर था जहाँ न सूरज था, न चाँद। समय यहाँ रेखीय नहीं था। यहाँ घटनाएं सोची जाती थीं और वे घट जाती थीं। विचार ही वास्तविकता था।

आर्यन के सामने एक नीली रोशनी में लिपटी आकृति प्रकट हुई। वह आकृति मानव नहीं थी, फिर भी उसमें करुणा थी, गहराई थी। उसकी आँखें हजारों ब्रह्मांडों का ज्ञान समेटे हुए थीं।

“तुम कौन हो?” आर्यन ने चेतना के माध्यम से पूछा।

आकृति ने उत्तर दिया —
“मैं काल से परे हूँ। मैं वह हूँ जिसने ब्रह्मा को विचार दिया, शिव को मौन दिया और विष्णु को चक्र। मैं कोई नहीं और सब कुछ हूँ। मुझे तुम 'अनाहत' कह सकते हो।”

आर्यन की चेतना कंपित हो उठी।
“तुमने मुझे यहाँ क्यों बुलाया?”

“क्योंकि तुम्हारा मस्तिष्क अब तैयार है। तुम 'त्रिलोक सिंक्रोनाइज़र' के उत्तराधिकारी हो। तुम्हारा कार्य केवल चेतना विकसित करना नहीं, बल्कि लोकों को संतुलित करना है — भूत, वर्तमान और संभावित भविष्य।”

आर्यन ने एक पल सोचा —
“क्या मेरा शरीर इस समय जीवित है?”

“हाँ, पर अधिक समय नहीं। तुम्हें निर्णय लेना होगा। या तो वापस लौटो और मानवता को मार्ग दिखाओ... या यहीं रहो और पूर्ण चेतना में विलीन हो जाओ।”

समय की सुई पर उल्टा प्रवाह

वहीं दूसरी ओर, वेदिका और प्रोफेसर आर्यन के स्थिर शरीर के पास खड़े थे।
वेदिका ने धीरे से कहा,
“हमने उसे खो तो नहीं दिया?”

प्रोफेसर ईशान ने आँखें बंद कीं और मन्त्र पढ़ना शुरू किया:

“ॐ अपारं विज्ञानं त्रिकाल विजयी।
आओ चेतना के पथिक, लौट आओ!”

आर्यन की चेतना उस मन्त्र की आवृत्ति से जुड़ी। अनाहत की ओर उसने देखा।
“क्या मैं वापस जा सकता हूँ?”

“अगर इच्छा हो तो चेतना और शरीर को फिर से एक किया जा सकता है। पर ध्यान रहे, लौटने के बाद तुम वही नहीं रहोगे। तुम्हारी दृष्टि बदल जाएगी। तुम समय को देख पाओगे जैसे रेखा, और कारण को समझ पाओगे जैसे कम्पन।”

वापसी

आर्यन ने चुना — लौटना।

एक ज़ोरदार ऊर्जा विस्फोट के साथ उसकी चेतना शरीर से जुड़ गई। उसकी आँखें खुलीं — और अब उसमें एक नई चमक थी। वह अब केवल आर्यन नहीं था, वह त्रिकाल को देखने वाला था।

प्रोफेसर ईशान की आँखें नम थीं।
“तुम अब बदल चुके हो... लेकिन ये तो बस आरंभ है।”

वेदिका ने मुस्कराकर कहा —
“वो जो काल से परे था, अब हमारे बीच है।”

वेदांत की आँखों के सामने काल का द्वार खुल चुका था — वह द्वार जो समय की रेखाओं को सीधा नहीं, गोल घेरों में बांधता है। वहाँ सब कुछ गतिहीन होते हुए भी कंपन कर रहा था — मानो समय स्वयं श्वास ले रहा हो।

ईशा, जो पीछे रह गई थी, द्वार के बाहर अचंभित खड़ी थी। लेकिन जैसे ही वेदांत ने उसे देखा, उसकी हथेली सामने की, मानो उस क्षण को रोक रहा हो —
"ईशा! अंदर मत आना... ये समय नहीं, इसका भ्रम है।"

द्वार के भीतर, त्रिकालसूत्र की धड़कन गूंज रही थी। तीनों लोकों के बिंदु — भूत, वर्तमान और भविष्य — एक दूसरे से गुंथते प्रतीत हो रहे थे। वेदांत के चारों ओर चमकती रेखाएं उभर रही थीं, जिन पर मंत्रों की गूंज अंकित थी।

"ॐ कालाय नमः... ॐ महाकालाय नमः…”

इन मन्त्रों के साथ ही वेदांत का शरीर मानो त्रिकाल में विभाजित होने लगा —

एक रूप उसके अतीत को देखने लगा,

दूसरा वर्तमान को समझने लगा,

और तीसरा... भविष्य में प्रवेश करने की तैयारी कर रहा था।

रहस्य खुलते हैं:
काल-द्वार के भीतर वेदांत को एक ऋग्वैदिक यंत्र दिखाई देता है — त्रिशूल के आकार में एक प्रकाश-यंत्र, जिसे 'त्रिश्रृंखला यंत्र' कहा गया है। ये यंत्र समय की तीन शाखाओं को नियंत्रित करता है। वेदांत को समझ आता है कि इस यंत्र को छूते ही "काल-परिसंचरण" शुरू हो जाएगा — यानी समय उल्टा भी बह सकता है।

लेकिन तभी एक आवाज गूंजती है —
"तू कौन है जो त्रिकाल के क्रम को बदलना चाहता है?"
धुएं से बनी आकृति धीरे-धीरे सामने आकार लेती है — महाकाल के प्रथम प्रहरी, जिनका नाम कभी किसी वेद में नहीं आया।

उनका नाम था: "निर्वचन",
जो काल-शून्य में निवास करता है और किसी भी हस्तक्षेप को रोकने के लिए बना है।

निर्वचन पूछता है:
"क्या तुझे ज्ञात है कि समय में बदलाव का मूल्य क्या होता है?"
वेदांत: "मुझे अपना उत्तर चाहिए — मैं जानना चाहता हूँ कि हम कौन हैं, हम कहां से आए हैं और हमारा उद्देश्य क्या है।”

निर्वचन:
"तो सुन — जो काल से परे है, वह तेरे भीतर है। पर उसे जगाना सरल नहीं। एक त्रैलोक्य परीक्षण होगा — शरीर, मन और आत्मा तीनों को तीन अलग-अलग युगों में भेजा जाएगा। यदि तू स्वयं को एक रख सका, तभी उत्तर मिलेगा।"

वेदांत ने सिर झुका लिया — वह तैयार था।
त्रैलोक्य परीक्षण शुरू हुआ — एक कम्पन, एक चीत्कार और फिर शून्य…

बाहर ईशा द्वार के सामने अब भी खड़ी थी, लेकिन द्वार अब शांत हो गया था।
उसने मंत्र बुदबुदाना शुरू किया —
"ॐ हंसः हंसः। त्रिकाल मम रक्षा। वेदांत की आत्मा को शांति और शक्ति मिले।"

लेकिन तभी, द्वार के पास हवा में कुछ लिखा हुआ सा दिखा —
“तीन समयों में एक सत्य।”
और फिर वह वाक्य:
“वह जो काल से परे है… वह स्वयं तुम हो।”

🌌 अध्याय समाप्त।
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