Maharana Sanga - 4 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा - भाग 4

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महाराणा सांगा - भाग 4

सरदार जैतमलोट का बलिदान

 जंगल के दक्षिणी छोर पर सेवंतरी गाँव था। इस गाँव के बाहर मारवाड़ के राजा हम्मीर द्वारा बनाया गया चतुर्भुज रूपनारायण का भव्य मंदिर था। इस मंदिर के दर्शनार्थी वर्ष भर यहाँ आते रहते थे। आज उस मंदिर के दर्शन करने मारवाड़ के राठौड़ बींदा जैतमलोट सपरिवार आए हुए थे। वे मारवाड़ में एक छोटी-सी रियासत के सरदार थे, जो मेवाड़ के ही अधीन थी। जब जैतमलोट सपरिवार दर्शन करके मंदिर से बाहर निकले तो ठिठक गए। खून से लथपथ राजसी वस्त्र पहने युवक चीखता हुआ उधर ही आ रहा था। समीप आने पर सरदार जैतमलोट चौंक पड़े। वे मेवाड़ के छोटे राजकुमार संग्राम सिंह को भलीभाँति पहचानते थे। कई अवसरों पर उनकी भेंट हो चुकी थी। 

‘‘अरे, यह तो राजकुमार संग्राम सिंह हैं, इनकी यह दशा...।’’ सरदार जैतमलोट दौड़कर संग्राम सिंह के पास पहुंचे और उन्हें सँभाला, ‘‘कुमार संग्राम सिंह मैं...मैं राठौड़ बींदा जैतमलोट...आपकी यह दशा किसने की?’’ 

संग्राम सिंह भयानक पीड़ा और लगातार भागते रहने के कारण बुरी तरह थक गए थे और अचेत हो रहे थे। भुजाओं का सहारा मिलते ही उन्होंने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया और मूर्च्छित हो गए।

 ‘‘इन्हें हमारे शिविर में पहुँचाओ !’’ सरदार जैतमलोट चीख पड़े। 

तत्काल उनके सैनिकों ने लहूलुहान संग्राम सिंह को भुजाओं में उठाया और शिविर में ले गए। वैद्य उनके उपचार में जुट गए और सरदार जैतमलोट बैचेनी से इधर-उधर टहलने लगे। कुँवर संग्राम सिंह जैसे वीर राजकुमार की इस दशा पर उन्हें आश्चर्य हो रहा था। उन्होंने चित्तौड़ की रंगभूमि में उनका शस्त्र-संचालन देखा था। पूरी सेना पर संग्राम सिंह अकेला भारी पड़ने वाला योद्धा था। उसकी ऐसी दशा, किसी युद्ध में होना तो गले नहीं उतरती थी। अवश्य ही उस पर धोखे से वार हुआ है। बहुत समय बाद संग्राम सिंह की मूर्च्छा टूटी और वे कराह उठे। 

‘‘राजकुमार...संग्राम सिंह! मुझे पहचाना, मैं आपका सेवक! आप मुझे यह बताएँ कि आपकी यह दशा किसने की? ऐसा कौन योद्धा पैदा हो गया, जिसने मेवाड़ के अप्रतिम योद्धा का यह हाल किया? मुझे तो बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है।’’ सरदार जैतमलोट ने पूछा। 

संग्राम सिंह ने आँखें खोलकर पहले तो यह जानने का प्रयास किसा कि वह शत्रुओं के बीच है या मित्रों के? सरदार जैतमलोट को पहचानकर उनके नेत्रों में आशा भरी किरण चमकी। 

उनकी आँखों के सामने उनके प्राण लेने को आतुर अपने अग्रज का वीभत्स चेहरा तैर उठा और उनकी आँखें नम हो उठीं। दूसरी आँख पर वैद्य ने ओषधि लगाकर रुई का फाहा बाँध दिया था, परंतु स्वस्थ आँख से अश्रु की बूँदों ने उनकी अंतर्वेदना को जाहिर कर दिया।

 ‘‘राजकुमार संग्राम सिंह! आप पूरी तरह सुरक्षित हैं। बस आप शत्रु का नाम बताइए, जिसने मेवाड़ के सिंह पर अपना छल-प्रहार किया है।’’ संग्राम सिंह ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था।

 ‘‘घेर लो इस शिविर को चारों ओर से, हमारा शत्रु साँगा यहीं पर होगा।’’ बाहर से आती इस कर्कश फटकार को सुनकर सरदार जैतमलोट तत्काल अपनी तलवार हाथ में लेकर बाहर आए तो आश्चर्य से उनके नेत्र फैले।

 ‘‘राजकुमार जयमल, तुम...तुमने कुँवर साँगा की यह दशा की है?’’ 

‘‘ओह, राठौड़ बींदा जैतमलोट!’’ राजकुमार जयमल अपने घोडे़ पर सवार होकर नंगी तलवार हाथ में लिये खड़ा था, ‘‘तो हमारा शत्रु हमारे मित्र के पास आ पहुँचा। यह तो और भी अच्छा हुआ। अब हमें अपने शत्रु का सिर काटने के लिए और कोई सिर नहीं काटना होगा। सरदार जैतमलोट! संग्राम को हमें सौंप दो और कभी भी मेवाड़ आकर अपना पुरस्कार ले जाना।’’

 ‘‘कुमार जयमल, कुमार साँगा तुम्हारे अनुज हैं। मेवाड़ की शान हैं। मेवाड़ का सुखद भविष्य हैं। वे आपके शत्रु कैसे हुए?’’

 ‘‘यह तुम्हारे जानने का विषय नहीं है। राजवंशों में परिस्थितियाँ ऐसे ही मोड़ लेती हैं कि कोई किसी का भाई नहीं रहता। भाग्य ने आज तुम्हारी सरदारी में और भी उन्नति का अवसर प्रदान किया है। अतः कोई विलंब किए बिना इस अवसर का लाभ उठाओ, अन्यथा...।’’ 

‘‘कुमार जयमल! तुम्हारी तलवार पर रक्त का एक धब्बा नहीं है। अतः यह तो स्पष्ट है कि कुमार साँगा की इस दशा का कारण कोई और है, जिसके तुम सहायक हो। मेरा अनुभव कहता है कि तुम किसी षड्यंत्र के शिकार होकर अपने अनुज के रक्त से अपने हाथ रँगने का पाप करने का स्वप्न देख रहे हो।’’

 ‘‘स्वप्न नहीं सरदार! स्वप्न नहीं! आज मेरी यह तलवार मेवाड़ के इतिहास को बदलकर रहेगी। पटरानी के गर्भ से जन्म लेने वाले ही महाराणा हो सकते हैं, अब यह परंपरा ध्वस्त होगी। आप विलंब न करें।’’ 

‘‘ओह! तो सिंहों के सिंहासन पर श्वान बैठेंगे! कुमार जयमल, यदि इतना ही भुजबल है तो छल क्यों? राजकुमार पृथ्वीराज को तुम्हारा यह पाप पता लगा तो संसार में तुम्हें कहीं शरण भी न मिलेगी।’’

 ‘‘हा-हा-हा! इस पापकर्म के सूत्रधार पृथ्वीराज! सरदार जैतमलोट, ये राजसी खेल हैं। तुम साधारण से सरदार हो। सैनिको, प्रतीत होता है कि हमें अपने शत्रु के प्राण लेने के लिए बहुत सिर काटने होंगे।’’ 

‘‘सत्य प्रतीत होता है, जयमल!’’ सरदार जैतमलोट ने अपनी तलवार को लहराकर कहा, ‘‘जब तक हमारे शरीर में एक भी श्वास रहेगी, कुमार साँगा को कोई स्पर्श भी नहीं कर सकता। हम अपने प्राणों पर खेल जाएँगे। हमारे रणथंभोर के इतिहास से तुम परिचित नहीं हो। हमारे महान् राणा हम्मीर ने भी राजपूती आन का निर्वाह करते हुए सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के बागी तुर्क सेनापति मीर मुहम्मद शाह की रक्षा में अपने प्राण दे दिए थे, परंतु शरणागत पर अपने जीते-जी आँच नहीं आने दी थी। आज कुँवर साँगा हमारी शरण में हैं और उनके लिए प्राण देना हमारे राजपूती धर्म में है, इसलिए यदि तुम अपने प्राण बचाना चाहते हो तो यहाँ से चले जाओ।’’

 ‘‘आक्रमण!’’ जयमल ने अपने सैनिकों को आदेश दिया।

 सरदार जैतमलोट के पास अधिक सैनिक तो नहीं थे, परंतु शरणागत की रक्षा और राजपूती धर्म निभाने के लिए उनका वृद्ध रक्त खौल उठा। उनके दो युवा पुत्र भी अपने पिता के साथ शिविर के द्वार पर आ डटे। जयमल के पास अधिक सैनिक तो नहीं थे, परंतु उनसे दुगने तो अवश्य ही थे। संख्याबल का युद्ध में प्रभाव तो पड़ता है। एक ओर मेवाड़ के कुशल लड़ाके थे तो दूसरी ओर मारवाड़ के साधारण सैनिक, जिन्हें युद्ध का अनुभव कम था। कुछ ही देर में जयमल की विजय और साँगा का जीवन खतरे में पड़ता दिखाई देने लगा था, यद्यपि सरदार जैतमलोट ने शिविर द्वार अभी तक सुरक्षित रखा था। 

‘‘पुत्र अज्जा, तुम किसी भी प्रकार साँगा को सुरक्षित निकालकर मारवाड़ पहुँचाओ। हम इन अधर्मियों को रोकते हैं।’’ सरदार ने अपने बेटे से कहा। 

अज्जा शिविर के अंदर गया और चार बलिष्ठ सेवकों और वैद्य को कुमार साँगा के साथ शिविर के पिछले रास्ते से निकाल दिया तथा स्वयं वापस युद्धभूमि में आ डटा। पिता को उसने बता दिया कि कुमार साँगा को सुरक्षित निकाल दिया गया है, फिर तीनों पिता-पुत्रों ने अपने प्राणों की चिंता छोड़कर जयमल की सेना में विध्वंस मचा दिया। स्वामिभक्ति, राजपूती धर्म और शरणागत की रक्षा की मिश्रित भावनाओं ने उन वीर राजपूतों को भयहीन कर दिया था। सबसे पहले सरदार जैतमलोट ने अपने प्राणों की आहुति दी, फिर एक-एक करके दोनों भाई भी उस राजपूती आन पर निछावर हो गए, परंतु जयमल को इस विजय का लाभ न हुआ। 

********

जयमल और सूरजमल की कुत्सित योजना :
चित्तौड़ के राजमहल में उदासी छा गई थी। तीन दिन से कुँवर साँगा की कोई सूचना नहीं थी। गुप्तचर चारों ओर उनकी खोज में घूम रहे थे। रानी रतनकँवर का रो-रोकर बुरा हाल था और महाराणा रायमल भी चिंतामग्न थे। कुमार पृथ्वी भी आँखों में आँसू लिये अपना दुःख जता रहे थे। सबको यही बताया गया था कि कुमार साँगा अकेले ही आखेट पर चले गए थे। आशंका यह जताई थी कि उन्हें वन में किसी हिंसक जानवर ने खा लिया होगा, परंतु महाराणा रायमल को एक बात न जँच रही थी। वे जानते थे कि कुमार साँगा आखेट पर अकेले नहीं जा सकते थे और चित्तौड़ के वनों में ऐसा कोई हिंसक जीव न था, जो कुँवर साँगा जैसे कुशल योद्धा को अपना आहार बना सकता था। अवश्य ही साँगा किसी षड्यंत्र का शिकार हो गए थे, जिसमें पृथ्वीराज का हाथ हो सकता था! महाराणा अब किसी प्रामाणिक सूचना की प्रतीक्षा में थे और निश्चय कर चुके थे कि यदि उनके प्यारे पुत्र के साथ हुई किसी अनहोनी में पृथ्वीराज का हाथ हुआ तो वे उसे इसका भारी दंड देंगे। 

इधर सूरजमल बड़ी तत्परता से कुमार साँगा की खोज में गया था और उसके साथ कुमार जयमल भी था। दोनों इस समय एक निर्जन खँडहर में बैठे अपनी आगामी योजना के बारे में विचार कर रहे थे।

 ‘‘मैंने पहले ही कहा था कि संग्राम इतनी सरलता से अपने प्राण नहीं दे सकता और पूरी तैयारियों के साथ ही अगला हमला किया जाए।’’ सूरजमल चिंतित स्वर में बोला, ‘‘उसका जीवित बच जाना किसी के लिए भी ठीक नहीं।’’

 ‘‘पृथ्वी ने अधीरता से काम लिया। उसने योजना के अनुसार कुछ नहीं किया। मैंने कहा था कि जब तक मैं सैनिकों के साथ वहाँ न पहुँच जाऊँ, तब तक साँगा को भनक भी न लगने दे, परंतु उसने धैर्य न किया। यद्यपि उसने साँगा को लगभग समाप्त कर दिया था, परंतु वह अंतिम श्वास तक लड़ने की जिजीविषा रखनेवाला निकला और उसकी आँखों में रेत फेंककर भाग गया।’’ जयमल बोला। 

‘‘शेर के शिकार में अधीरता शिकारी को ही शिकार बना देती है।’’

 ‘‘फिर भी मैं समय पर सैनिकों के साथ पहुँच गया था। कुछ समय तो पृथ्वी को सँभालने में ही व्यर्थ हो गया, फिर...।’’

 ‘‘यहाँ तुमसे भारी भूल हुई। यह ऐसा अवसर था, जिससे तुम निष्कंटक राणा बन गए होते। तुम्हारा मार्ग प्रशस्त हो गया होता। तुम्हें उसी समय पृथ्वी को मार देना चाहिए था। जिसका आरोप साँगा पर आता। हम प्रचारित कर सकते थे कि साँगा पृथ्वी को मारकर भागा और वीर जयमल ने साँगा को क्रोध में आकर समाप्त कर दिया।’’

 ‘‘यह हमारी योजना में कहाँ था?’’ 

‘‘यही तो मूर्खता होती है। अरे, कई बार अपनी बुद्धि से भी परिस्थिति की गणना कर ली जाती है और सटीक निर्णय लिये जाते हैं। कितना सुंदर अवसर था। सबकुछ कितना सरल और सुखद होता!’’ 

‘‘परंतु साँगा तो फिर भी जीवित ही था। हमने उसका पीछा किया तो वह सेंवतरी में राठौर बींदा जैतमलोट की शरण में पहुँच गया था। हमने वहाँ कितने ही सिर काटे, परंतु साँगा फिर भी हमारे हाथ न लगा। लगता है, वह उतना घायल नहीं था और अवसर पाकर भाग गया।’’

 ‘‘यह सूत के धागे में बँधी सिर पर लटकी नंगी तलवार की तरह है, जो कभी भी तुम्हारी गरदन पर गिर सकती है। साँगा इतना मूर्ख नहीं कि सरलता से सामने आ जाए, जब तक वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाता।’’

 ‘‘काका! अब मैं क्या करूँ?’’

 ‘‘अब तो योजना के अनुसार ही कुछ करना होगा। साँगा की खोज में गए सभी गुप्तचर तुम्हारे विश्वासपात्र हैं। अतः साँगा की ओर से तो उतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।’’ सूरजमल बोला, ‘‘उसकी कोई खोज लगते ही उसके प्राण ले लिये जाएँगे। अब तुम्हारे मार्ग की बाधा पृथ्वीराज है और उसे दूर करने के लिए हमें बहुत पापड़ बेलने होंगे।”

 ‘‘काश, मुझे उस समय बुद्धि आ गई होती, जब लगभग अंधा पृथ्वी मेरे सामने था। मैं तभी उसके सीने में तलवार उतार देता तो किसी प्रकार की परेशानी सामने नहीं आती, कितना सुंदर दृश्य बनता!’’ 

‘‘समय पर जो काम न कर सके, वह इसी प्रकार कलपता है। अब भी गेंद तुम्हारे ही पाले में है। पृथ्वीराज को मृत्युदंड मिल जाए तो तुम्हारे मार्ग में संभावित बाधा साँगा रह जाएगा, जिसे समय आने पर देख लिया जाएगा। अब तुम मेरे कहे अनुसार चलते रहो। ईश्वर ने चाहा तो सब कुशल-मंगल होगा। स्मरण रहे कि मेरी ओर कोई उँगली न उठे।’’

 ‘‘काका, मैं पहले ही वचन दे चुका हूँ। अब तो आप ही मेरा आश्रय हैं। यहाँ तक का मार्ग मैंने आपकी बुद्धि से तय किया है और मुझे आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता है।’’ जयमल ने कहा। 

‘‘निश्चिंत रहो, मेवाड़ का मुकुट अब इस सिर की शोभा बनेगा।’’ 

सूरजमल ने सिर तो इंगित नहीं किया, परंतु जयमल ने अपने सिर पर हाथ फिराया और मुसकरा उठा।