एपिसोड 1 — “एक नीला सपना”
गाँव के बाहर, महू छावनी के शांत किनारे पर एक छोटा सा घर था। 14 अप्रैल 1891 की भोर, जब सूरज की पहली किरणें पहाड़ियों के पार से झांक रही थीं, उस घर में रोने की मधुर आवाज़ गूँज उठी। यह रोना, एक नए युग का आरंभ था—भीमराव का जन्म।
रामजी मालोजी सकपाल, पिता, एक सख्त मगर संवेदनशील व्यक्ति थे—ब्रिटिश सेना में सूबेदार। माँ भीमाबाई, शांत स्वभाव और धार्मिक आस्था से भरी हुईं। घर में उस समय गरीबी थी, लेकिन शिक्षा का महत्व पिता ने बच्चों में बचपन से ही भर दिया था। पर जातिगत ऊँच-नीच की दीवारें इतनी ऊँची थीं कि उन्हें पार करना आसान नहीं था।
शुरू के दिन बीतते गए, भीमराव घर के आँगन में खेलते, मिट्टी में अक्षर बनाते। पिता अक्सर संस्कृत के श्लोक पढ़ते, और भीमराव उन शब्दों को दोहराने की कोशिश करते। यह अलग बात थी कि समाज उन्हें इन “पवित्र” शब्दों का अधिकारी नहीं मानता था।
एक दिन, जब भीमराव करीब पाँच साल के थे, पिता ने उन्हें पहली बार पाठशाला भेजा। नीली धुली हुई धोती और एक पुराना बस्ता—बस यही सामान था। स्कूल में पहुँचे तो दरवाजे पर मास्टर साहब की भौंहें तन गईं।
“नाम?”
“भीमराव…”
“अच्छा… तुम महार हो न?”
“हाँ,” भीमराव ने मासूमियत से कहा।
मास्टर साहब ने इशारा किया—“तुम यहाँ, बरामदे में बैठो। पानी पीना हो तो कोई दूसरा बच्चा डाल देगा।”
उस दिन भीमराव ने पहली बार महसूस किया कि किताब और ज्ञान पाने के लिए भी कुछ लोगों को हजार दीवारें तोड़नी पड़ती हैं। स्कूल में वे अलग बैठते, किसी को उन्हें छूने की इजाजत नहीं थी। पर उनकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—एक दिन यह अन्याय खत्म करना है।
गर्मी का एक दिन था, सभी बच्चे पानी पीने के लिए दौड़े। भीमराव को भी प्यास लगी। उन्होंने एक लड़के से कहा—
“भैया, मेरे लोटे में पानी डाल दो।”
लड़के ने मुँह बिचकाया—“तू खुद क्यों नहीं भरता?”
“मास्टर जी ने मना किया है…”
लड़का हँस पड़ा—“तू महार है, तेरे हाथ का लोटा छूना पाप है।”
भीमराव की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन उन्होंने गुस्सा पी लिया। प्यास से उनका गला सूख रहा था, लेकिन उस प्यास से बड़ी एक आग उनके भीतर जलने लगी—सम्मान पाने की प्यास।
घर लौटकर उन्होंने माँ से पूछा—
“माँ, हम अलग क्यों हैं?”
माँ ने उनका सिर सहलाया—“बेटा, अलग हम नहीं हैं, अलग सोच है इस समाज की। तू पढ़-लिखकर इसे बदल देगा।”
माँ के इन शब्दों ने जैसे भीमराव के मन में एक बीज बो दिया—परिवर्तन का बीज।
दिन गुजरते गए, लेकिन भेदभाव की घटनाएँ बढ़ती रहीं। फिर भी भीमराव हर चोट को अपनी ताकत में बदलते रहे। वे पढ़ाई में सबसे आगे रहते। उनकी कॉपी हमेशा साफ-सुथरी होती, अक्षर मोती जैसे चमकते।
पिता अक्सर कहते—“पढ़ाई ही तेरे हथियार होंगे।”
भीमराव को लगता जैसे वे किसी अदृश्य युद्ध की तैयारी कर रहे हों।
एक बार गाँव में बारात आई। सब बच्चे बारात देखने गए, पर भीमराव को दूर खड़े रहना पड़ा—“अछूत” होने की वजह से। तब उन्होंने अपने मन में एक वादा किया—एक दिन ऐसा आएगा जब किसी इंसान को उसकी जाति के कारण अलग नहीं किया जाएगा।
रात में जब सब सो गए, भीमराव अपनी फटी किताब के पन्ने पलटते रहे। नीली लालटेन की रोशनी में उनकी आँखें चमक रही थीं। यह सिर्फ एक बच्चे की आँखों की चमक नहीं थी, यह एक क्रांति की शुरुआत थी।