एपिसोड 2 — “पहली यात्रा, पहला अपमान”
भीमराव अब सात साल के हो चुके थे। गाँव के बरामदे से पढ़ाई शुरू हुई थी, पर उनकी लगन ने धीरे-धीरे मास्टर साहब का भी दिल बदलना शुरू कर दिया। फिर भी, समाज की सीमाएँ स्कूल की दीवारों से बाहर भी पीछा करती थीं।
एक दिन पिता रामजी मालोजी ने उन्हें बुलाया।
“बेटा, हमें सतारा जाना है। तेरे बड़े भाई मलकाजी का तबादला हुआ है। तू भी साथ चलेगा, वहाँ पढ़ाई बेहतर होगी।”
भीमराव का दिल खुशी से उछल पड़ा। उन्होंने पहले कभी इतनी लंबी यात्रा नहीं की थी, और रेल में बैठने का सपना तो जैसे किसी चमत्कार से कम नहीं था।
यात्रा का दिन आया। पिता और दोनों भाई—गौतम और भीमराव—सवेरे-सवेरे स्टेशन पहुँचे। महू का स्टेशन छोटा सा था, लेकिन भीमराव की आँखों में वह किसी महल से कम नहीं लग रहा था।
“बाबा, ये बड़ा लोहा-सा साँप है?”
पिता हँस पड़े—“ये रेलगाड़ी है बेटा, इसमें बैठकर हम बहुत दूर जाएँगे।”
ट्रेन में चढ़ने से पहले पिता ने टिकट खरीदे। वे जानते थे कि सफर लंबा है, इसलिए उन्होंने सोचा रास्ते में पानी भी ले लेंगे। लेकिन यहाँ भी भेदभाव ने पीछा नहीं छोड़ा।
प्लेटफ़ॉर्म पर पानी के मटके रखे थे, मगर मटके पर ताला लगा था। पास खड़े चौकीदार से पिता ने कहा—
“भाई, ज़रा पानी पिला दो।”
चौकीदार ने घूरा—“तुम लोग कौन जात?”
पिता ने शांत स्वर में कहा—“हम महार हैं।”
चौकीदार ने तुरंत मुँह मोड़ लिया—“मटके को मत छूना! अगर पियासे हो तो खुद का बर्तन लाओ, और मैं ऊपर से डाल दूँगा।”
भीमराव यह सब सुन रहे थे। उनके होंठ सूख गए, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। पिता ने अपने साथ लाए पीतल के लोटे में पानी डलवाया। भीमराव ने घूँट लिया, लेकिन गले से पानी उतरते-उतरते वह अपमान भी साथ उतर गया—और दिल में एक अजीब-सी कसक छोड़ गया।
रेल चली। खिड़की से बाहर खेत, पहाड़ और छोटे-छोटे गाँव तेज़ी से पीछे भाग रहे थे। भीमराव के भीतर उत्साह था, लेकिन उस सुबह का मटके वाला दृश्य उन्हें बार-बार याद आ रहा था।
उन्होंने सोचा—क्या सिर्फ हमारे नाम और जन्म के कारण हमें अलग पानी पीना पड़ेगा?
कई घंटे बाद, ट्रेन एक बड़े स्टेशन पर रुकी। पिता ने कहा—
“चलो बेटा, नीचे उतरकर कुछ खा लेते हैं।”
प्लेटफ़ॉर्म पर चाय और नाश्ते की दुकानें थीं, मगर जैसे ही दुकानदार को उनकी जाति पता चली, उसने बर्तनों में चाय देने से मना कर दिया।
“तुम्हारे लिए मिट्टी के कुल्हड़ होंगे, वो भी बाहर रखे हैं। पीकर वहीं फेंक देना।”
भीमराव को यह अजीब लगा—क्या चाय भी जात देख कर दी जाती है? लेकिन वे चुप रहे। पिता ने उनकी पीठ थपथपाई, जैसे कहना चाह रहे हों—“बेटा, अभी पढ़, एक दिन ये नियम तू बदलेगा।”
शाम होते-होते वे सतारा पहुँचे। नया घर साधारण था, लेकिन स्कूल बड़ा और खुला-खुला था। पहले ही दिन भीमराव ने सभी विषयों में अच्छा प्रदर्शन किया, जिससे मास्टर साहब भी प्रभावित हुए। लेकिन वहाँ भी, पानी का लोटा अलग था, बैठने की जगह अलग।
एक दिन स्कूल में इतिहास की किताब पढ़ते हुए भीमराव ने हाथ उठाया—
“गुरुजी, किताब में लिखा है कि भगवान राम ने शबरी के बेर खाए। तो क्या शबरी भी हमारी तरह ‘अछूत’ नहीं थी?”
कक्षा में सन्नाटा छा गया। मास्टर साहब ने हड़बड़ाकर कहा—
“इतना सवाल मत पूछो, पढ़ाई करो।”
भीमराव समझ गए कि सच को टालना इस समाज का सबसे आसान तरीका है। लेकिन वे तय कर चुके थे—वे सवाल करते रहेंगे।
कुछ महीनों बाद, पिता को किसी काम से गोरेगाँव जाना पड़ा। रास्ते में बस नहीं थी, तो उन्होंने बैलगाड़ी किराए पर लेने की कोशिश की। गाँव के कई गाड़ीवानों ने मना कर दिया—“हम अपनी गाड़ी में महार को नहीं बैठाएँगे।”
अंत में, बहुत विनती के बाद एक गाड़ीवान ने हामी भरी, लेकिन शर्त रखी—“आप गाड़ी में नहीं, पीछे लकड़ी के तख्त पर बैठोगे।”
यात्रा के दौरान भीमराव ने पिता से पूछा—
“बाबा, हम हमेशा अलग क्यों रहते हैं?”
पिता ने धीरे से कहा—
“बेटा, ये दुनिया हमें तोड़ने की कोशिश करेगी। लेकिन तू इसे अपने पढ़ाई के बल पर हरा देगा। यही हमारी असली जीत होगी।”
उस दिन भीमराव ने मन ही मन प्रण लिया—मैं पढ़ूँगा, आगे बढ़ूँगा, और एक दिन इस अपमान को मिटा दूँगा।
रात को बिस्तर पर लेटे हुए उन्होंने खिड़की से चाँद को देखा। उन्हें लगा जैसे चाँद सबको बराबरी से रोशनी देता है—न वह जात पूछता है, न धर्म।
भीमराव ने खुद से कहा—
“मैं भी एक दिन ऐसा समाज बनाऊँगा, जहाँ हर किसी पर बराबर रोशनी पड़े।”