एपिसोड 3 — “पहला दोस्त”
सतारा में पढ़ाई के कुछ महीने बीत चुके थे। भीमराव अब पाँचवी कक्षा में थे और अपनी लगन से मास्टर साहब का विश्वास जीत चुके थे। उनकी लिखावट इतनी साफ थी कि कई बार मास्टर उनकी कॉपी बाकी बच्चों को दिखाते—“देखो, ऐसे अक्षर लिखे जाते हैं।”
लेकिन स्कूल में अभी भी एक अदृश्य दीवार थी—जात की दीवार।
बीच-बीच में खेल के समय बाकी बच्चे उन्हें अपने समूह में नहीं लेते। कई बार वे अकेले बैठकर अपने बस्ते में किताबें उलटते-पलटते रहते। उन्हें किताबों में एक ऐसा संसार दिखता जहाँ जात, धर्म, ऊँच-नीच की कोई रेखा नहीं थी।
एक दिन, गणित की कक्षा के बाद मास्टर ने होमवर्क दिया—“सबको कल तक पहाड़े लिखकर लाने हैं।”
भीमराव के पास शाम का समय खाली था। वे स्कूल के बरामदे में बैठकर पहाड़े लिखने लगे। तभी एक लड़का, गोरा-चिट्टा, हल्के भूरे बालों वाला, उनके पास आया।
“तुम अकेले बैठे हो?”
भीमराव ने सिर उठाकर देखा—“हाँ, बाकी लोग खेल रहे हैं।”
लड़का मुस्कुराया—“मेरा नाम कृष्णकांत है, तुम्हारा?”
“भीमराव…”
“तुम खेलना क्यों नहीं जाते?”
भीमराव ने हल्के स्वर में कहा—“कोई अपने में नहीं लेता।”
कृष्णकांत ने बिना हिचक के कहा—“चलो, आज मेरे साथ खेलो।”
उस दिन के बाद दोनों के बीच एक अनकही दोस्ती शुरू हो गई। कृष्णकांत ब्राह्मण था, लेकिन उसमें जात-पात का अहंकार नहीं था। खेल, पढ़ाई, चित्र बनाना—दोनों हर चीज़ में साथ रहने लगे।
एक दोपहर, जब वे स्कूल से घर लौट रहे थे, कृष्णकांत ने भीमराव से कहा—
“कल हमारे घर चलोगे? माँ ने तुम्हारे बारे में सुना है।”
भीमराव चौंक गए—“क्या तुम्हारे घर वाले… मुझे आने देंगे?”
कृष्णकांत ने हँसते हुए कहा—“तुम मेरे दोस्त हो, बस इतना काफी है।”
अगले दिन, वे संकोच से कृष्णकांत के घर पहुँचे। बड़ा आँगन, तुलसी का चौरा, और लकड़ी की अलमारी में सजी किताबें—भीमराव की आँखें चमक उठीं। कृष्णकांत की माँ ने उन्हें पानी दिया, पर मिट्टी के गिलास में। यह देखकर भीमराव के मन में हल्की टीस हुई, लेकिन उन्होंने सोचा—कम से कम दरवाजे से लौटाया तो नहीं।
वहाँ उन्होंने पहली बार एक मोटी-सी किताब देखी—अंग्रेजी में लिखी हुई। कृष्णकांत ने कहा—“ये मेरे पिताजी की है। मैं भी इसे पढ़ना चाहता हूँ, पर अंग्रेजी अभी मुश्किल लगती है।”
भीमराव ने किताब हाथ में ली। वे अंग्रेजी के कुछ शब्द पहचान सकते थे। उन्हें लगा—अगर वे यह भाषा सीख लें, तो दुनिया की कोई किताब उनके लिए बंद नहीं रहेगी।
कृष्णकांत के साथ बैठते-बैठते भीमराव का आत्मविश्वास बढ़ने लगा। वे अब क्लास में सवाल पूछने से नहीं डरते थे। इतिहास, गणित, भूगोल—हर विषय में उनकी पकड़ मजबूत होती जा रही थी।
मास्टर साहब ने एक दिन कहा—“भीमराव, तुम अगर ऐसे ही पढ़ते रहे, तो एक दिन बहुत आगे जाओगे।”
लेकिन समाज की बंदिशें अभी भी पीछा नहीं छोड़तीं। एक दिन स्कूल में वार्षिक परीक्षा के बाद मिठाई बाँटी जा रही थी। मिठाई के थाल सबके बीच घूम रहे थे, लेकिन जब भीमराव की बारी आई, तो मिठाई उनके हाथ में नहीं रखी गई—थाल से ऊपर से गिरा दी गई, ताकि “छूना” न पड़े।
कृष्णकांत ने यह देखा और उसका चेहरा लाल हो गया। वह मास्टर साहब से बोला—
“ये क्या अन्याय है? अगर मिठाई सबके लिए है, तो भीमराव को हाथ में क्यों नहीं दी जा सकती?”
मास्टर साहब असहज हो गए—“ये हमारे रीति-रिवाज हैं, बेटा।”
कृष्णकांत ने तुर्शी से कहा—“रीति-रिवाज अगर इंसान को अपमानित करते हैं, तो उन्हें बदलना चाहिए।”
भीमराव को लगा जैसे किसी ने उनके मन की बात ज़ोर से कह दी हो। उस दिन उन्होंने तय कर लिया—वे अपनी कलम से, अपनी पढ़ाई से, इस सोच को चुनौती देंगे।
गर्मी की छुट्टियों में कृष्णकांत ने उन्हें कई अंग्रेजी शब्द सिखाए। दोनों मिलकर रोज़ नए-नए वाक्य बनाते। धीरे-धीरे भीमराव को महसूस हुआ कि भाषा सिर्फ संवाद का जरिया नहीं, बल्कि शक्ति भी है। जो भाषा जानते हैं, वे दुनिया पर असर डाल सकते हैं।
उन्होंने अपने पिता से कहा—
“बाबा, मैं अंग्रेजी सीखना चाहता हूँ।”
पिता ने गर्व से कहा—“सीख बेटा, यही तुझे आगे ले जाएगी।”
छुट्टियाँ खत्म होते ही स्कूल फिर शुरू हुआ। अब भीमराव का आत्मविश्वास पहले से कहीं ज़्यादा था। वे कक्षा में हमेशा पहले नंबर पर आते।
लेकिन एक दिन कृष्णकांत को अपने पिता की नौकरी के कारण शहर छोड़ना पड़ा। विदाई के दिन दोनों चुप थे।
कृष्णकांत ने जाते-जाते कहा—
“तुम ज़रूर बड़े आदमी बनोगे, भीमराव। और जब बनोगे, तो इस दुनिया को बदलना मत भूलना।”
कृष्णकांत की यह बात भीमराव के दिल में हमेशा के लिए बस गई। अब वे और भी जोश के साथ पढ़ाई में जुट गए, जैसे अपने दोस्त से किया वादा निभा रहे हों।
रात को नीली लालटेन की रोशनी में किताब पढ़ते हुए उन्हें लगता—शायद मेरी कलम, मेरा सबसे बड़ा हथियार होगी।