You Are My Choice - 64 in Hindi Short Stories by Butterfly books and stories PDF | You Are My Choice - 64

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You Are My Choice - 64

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लिफ़्ट की हल्की-सी टनटनाहट पूरे कॉरिडोर में गूँज उठी, जैसे ही उसके दरवाज़े खुले। सबसे पहले जय बाहर निकला, उसके हाथ में काव्या का बैग था जिसे वह बड़ी सहजता से थामे हुए था, और काव्या उसके पीछे-पीछे चली आ रही थी। उसके पेंटहाउस तक जाने वाला गलियारा सुनहरी रोशनी से सजा था, जो संगमरमर के चमकदार फ़र्श पर लंबी परछाइयाँ डाल रही थी। दोपहर की ख़ामोशी को सिर्फ़ पीछे से आती लिफ़्ट की हल्की-सी मशीनरी की आवाज़ तोड़ रही थी।

 

काव्या का चेहरा थका-थका सा था, अस्पताल की थकान अब भी उसकी शक्ल पर झलक रही थी। फिर भी उसकी आँखों में एक तेज़ी थी—वो तेज़ी, जो सिर्फ़ तब आती है जब कोई ख़ुद को किसी टकराव के लिए तैयार कर रहा हो।
और तभी वह ठिठक गई।

 

कुछ ही दूरी पर, एक और पेंटहाउस के दरवाज़े पर, आदित्य खड़ा था। उसका अंदाज़ लापरवाह था—बाँहें सीने पर बाँधी हुईं, जैकेट ढीली-सी कंधों पर डली हुई। लेकिन जैसे ही उसकी नज़र काव्या पर पड़ी, वो लापरवाही टूट गई। उसके बगल में खड़ी मायरा ने ज़रा सा सिर झुकाया, मानो वह पहले से ही इसकेबारे में जानती हो।

 

आदित्य के चेहरे का हावभाव पल भर में बदल गया—सहज हैरानी से सीधा असहजता तक। उसने सोचा  नहीं था कि काव्या इस वक्त यह आयेगी, और बिल्कुल भी जय के साथ चलते हुए तो नहीं। उसका जबड़ा कस गया, लेकिन उसने कोई हरकत नहीं की।

 

काव्या के होंठ थोड़े खुले, उसकी भौंहें तीखी उठीं जैसे बिना कुछ कहे जवाब माँग रही हों। लगभग उसी अंदाज़ को दोहराते हुए आदित्य ने भी भौंहें उठाईं, उसकी ख़ामोशी कह रही थी—तो? तुम यहाँ क्या कर रही हो?

 

तनाव को सबसे पहले मायरा ने तोड़ा। उसकी आवाज़ हल्की और जानबूझकर चिढ़ाने वाली थी।
“हाई।” उसने सहजता से कहा, होंठों पर हल्की-सी मुस्कान खेल रही थी। “मैंने सोचा नहीं था कि हम इतनी जल्दी मिलेंगे, काव्या।”

 

काव्या की नज़रें आदित्य से हटी ही नहीं। वह तेज़ क़दमों से आगे बढ़ी, उसकी हील्स की टक-टक संगमरमर पर गूँज उठी।
“तुम यहाँ कर क्या रहे हो?” उसने नीची मगर भारी आवाज़ में पूछा।

 

आदित्य ने अपनी बाँहें खोल दीं, जैसे अचानक पकड़ा गया हो।
“सुनो—” उसने हाथ ज़रा-सा उठाते हुए कहा।

 

लेकिन मायरा ने तुरंत बीच में बोलते हुए कहा,
“असल में।” उसने चमकती आवाज़ में कहा, एक लट कान के पीछे सरकाते हुए, “हम दोनों को कुछ बताना है।”

आदित्य ने नाक से साँस छोड़ी, झुंझलाहट साफ़ थी लेकिन उसने ख़ुद को काबू में रखा।
“मैं बता दूँगा… जब वो दोनों इडियट्स लौटेंगे।” उसने बेमन से कहा, आवाज़ धीमी, झिझक भरी—मानो उसे ख़ुद भी भरोसा नहीं था कि यह सफ़ाई काफ़ी है।

 

काव्या ने उसे ठंडी, तिरस्कार भरी नज़र से देखा और अपनी चाबी दरवाज़े के कि-लॉक में डाली। ताले की क्लिक की आवाज़ उस ख़ामोशी में ज़्यादा गूँजदार लगी। उसने कोई जवाब नहीं दिया, कोई बहस नहीं की—सिर्फ़ उसे नज़रअंदाज़ किया।

 

जय, जो अब तक पीछे खड़ा था, दीवार से टेक लगाकर बाँहें बाँध लीं। उसकी नज़रें आदित्य और काव्या के बीच घूमीं, होंठों पर हल्की मुस्कान खिंच गई।
“इन दिनों हालात काफ़ी दिलचस्प होते जा रहे हैं।” उसने सहजता से कहा, उसकी चुटकी भरी नज़रें सीधे आदित्य पर टिकीं।

आदित्य का जबड़ा फिर कसा, आँखें थोड़ी सिकुड़ीं, लेकिन वह जवाब देने से पहले ही काव्या और आदित्य दोनों के फ़ोन एक साथ बज उठे। वह आवाज़ तेज़ और बिल्कुल समवेत थी।

 

दोनों ने स्क्रीन की ओर देखा। एक ही नाम चमक रहा था।
“आकाश है।” दोनों ने एक साथ कहा, उनके शब्द तनाव में अजीब-से ढंग से टकरा गए।

 

काव्या ने फ़ोन से नज़र उठाकर आदित्य की आँखों में देखा, एक तरह की अनिच्छुक स्वीकृति के साथ।
“वो चाहता है कि हम यहीं रहें। पेंटहाउस में।” उसने सपाट आवाज़ में कहा, जिसमें कोई भाव नहीं था।

 

उस बात का भार टिक ही रहा था कि उसका का फ़ोन भी उसकी हथेली में काँप उठा। उसने स्क्रीन पर देखा—“आहूजा” नाम चमक रहा था। एक थकी हुई साँस छोड़ते हुए उसने कॉल उठाई।
“हाँ।” उसने बस इतना कहा।

दूसरी तरफ़ से आकाश की आवाज़ आई—तेज़ और दृढ़।
“काव्या के साथ रहो। वो पेंटहाउस जा रही है। आई वांट यू घेर। मैं एक-दो घंटे में पहुँचूँगा। सीरियस मैटर है।”

 

जय की नज़र काव्या पर गई, जो दरवाज़े के भीतर कदम रख चुकी थी, उसका क़द-काठी कठोर और अडिग। जय ने सपाट लहजे में जवाब दिया।
“मैं पहले से यहाँ हूँ।”

 

एक पल की चुप्पी। फिर आकाश की आवाज़ ज़रा नरम हुई।
“अच्छा है। उसे अकेला मत छोड़ना।”

 

जय ने बिना और कुछ कहे कॉल काट दी, और फ़ोन जेब में रख लिया। उसका चेहरा पढ़ा नहीं जा सकता था—ज़िम्मेदारी और शक के बीच अटका हुआ।

उधर, आदित्य ने हल्की खाँसी की, जैसे माहौल पर फिर से क़ाबू पाने की कोशिश कर रहा हो। उसका हाथ हवा में थोड़ा ठहर गया, मानो सही इशारे की तलाश कर रहा हो।
“तो।” उसने शुरू किया, बगल में खड़ी मायरा की ओर देखते हुए, “हम यहीं रह रहे हैं। मैं और मिस खन्ना, हमे कुछ बातें करनी हैं, तो—”

 

लेकिन उसकी बात अधूरी रह गई, क्योंकि काव्या ने अचानक मुड़कर दरवाज़े से ही बात काट दी। उसका चेहरा सधा हुआ था लेकिन आवाज़ चुभती हुई।
“मैंने तुमसे कोई सफ़ाई नहीं माँगी, आदित्य। जो करना है करो।”

 

इतना कहकर वह भीतर चली गई और दरवाज़ा हल्के-से धमक के साथ बंद हो गया, जिसकी गूँज पूरे कॉरिडोर में फैल गई।

 

फिर से सन्नाटा छा गया। ऊपर की सुनहरी बत्तियाँ धीमी गुनगुनाहट करती रहीं, संगमरमर पर हल्के से घेरे बना रहीं।

आदित्य वहीं खड़ा रहा, उसकी मुट्ठियाँ कसती-ढीली होती रहीं, पर उसने चेहरे पर मजबूर शांति ओढ़ ली। मायरा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी, उसकी बाँहें अब सीने पर बाँध ली गई थीं, और वह इस तमाशे का मज़ा लेती दिख रही थी।

 

जय ने हल्की-सी हँसी दबाई, दीवार से टिकते हुए बोला। उसकी आवाज़ धीमी और लगभग रहस्यमयी थी, सीधे आदित्य की ओर।
“ऑल थे बेस्ट, अपनी एस्प्लेनेशन देने के लिए, डिटेक्टिव।”

 

आदित्य ने उस पर तेज़ नज़र डाली, इतनी धारदार कि काट सके, लेकिन उसने ख़ामोशी को ही चुना।

 

मायरा ने हल्की-सी धुन गुनगुनाई, सिर झुकाकर दोनों को देखा। उसकी मुस्कान और गहरी हो गई।
“तो अब।” उसने सहज अंदाज़ में कहा, उसकी आवाज़ खेलती हुई लेकिन जिज्ञासा से भरी, “मज़ा तो अब शुरू होगा। और शायद और ज़्यादा… क्योंकि मैं यहाँ हूँ।”

 

उसके शब्द भारी थे, उसी चार्ज भरी ख़ामोशी के साथ—जैसे पूरा फ़्लोर आने वाले तूफ़ान का इंतज़ार कर रहा हो।

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काव्या का पेंटहाउस

 

जय

 

पेंटहाउस के भीतर क़दम रखते ही ख़ामोशी ने हमें घेर लिया। हवा में हल्की लिलियों की ख़ुशबू तैर रही थी, जो कॉफ़ी टेबल पर रखे क्रिस्टल के फूलदान से आ रही थी। कई दिनों बाद पहली बार ये सन्नाटा घुटन भरा नहीं था—लग रहा था जैसे ये सिर्फ़ हमारा हो।

 

मैंने जेब से फ़ोन निकाला और नंबर मिलाया।
“हैलो, मॉम।” मैंने कहा, आवाज़ को स्थिर रखने की कोशिश करते हुए। “हाँ, अब मैं ठीक हूँ। केस सुलझ गया।”
स्पीकर से मॉम की राहत-भरी साँसें सुनाई दीं। मैंने उनकी बातों को कुछ पल अपने भीतर उतरने दिया।
“चिंता मत करिए… मैं अभी मिस सेहगल के साथ हूँ। आकाश कुछ ज़रूरी बात करना चाहता है, तो आज रात घर लौट आऊँगा।”

उनकी आवाज़ फिर आई—चिंतित, मॉम जैसी। मैं हल्का-सा मुस्कुराया, बालों में हाथ फेरते हुए।
“हाँ, लंच करूँगा… नहीं, स्किप नहीं करूँगा। आराम भी करूँगा। ठीक है, मॉम। आप भी ख़्याल रखिएगा। जल्दी मिलता हूँ।”

 

कॉल ख़त्म होने पर मैंने उसे देखा—काव्या को। उसकी नज़रें मुझ पर टिकी थीं, एक अजीब-सी अभिव्यक्ति के साथ। प्रशंसा? मनोरंजन? शायद दोनों। उसने बिना कुछ कहे मुझे पानी का गिलास पकड़ाया, उसकी उँगलियाँ क्षण भर को मेरी उँगलियों से छू गईं। मैं बैठ गया और इशारे से उसे पास बैठने को कहा। वो बैठ गई, मगर नज़रें मेरी ओर से हटी नहीं।

 

“पानी पिया?” मैंने धीमे से पूछा, लहज़ा जिज्ञासा से ज़्यादा सुरक्षा भरा था।
उसने सिर हिलाया। मैंने घूँट लिया, गिलास नीचे रखा और उसकी आँखों में झाँका। उनमें बेचैनी थी, गहराई थी—कुछ राज़ छिपे हुए। मैं थोड़ी देर तक उन्हें देखता रहा। शरारती लड़की। उसने हल्की-सी भौंहें चढ़ाईं।
“क्या हुआ? ऐसे क्यों देख रहे हो?”

 

मैं कुर्सी पर टिक गया, आवाज़ को शांत लेकिन ठोस रखा।
“रिया की रिकॉर्डिंग तुमने सबको भेजी।”
ये इल्ज़ाम नहीं था। बस एक यक़ीन भरा सवाल। क्योंकि मुझे पता था, वही कर सकती थी। मैं अपने पेशेंट्स को बहुत अच्छे से जानता हूँ।

उसके होंठों पर शरारती मुस्कान आई, जैसे हमेशा आती थी जब उसे कोने में धकेल दिया जाता।
“मैं? मैं ऐसा क्यों करूँगी?” उसकी आवाज़ नकली मासूमियत से भरी थी, आँखें भी गोल कर लीं—जैसे कोई बच्ची चोरी करते पकड़ी जाए। मैं हँसने ही वाला था… लगभग।

 

उसकी मुस्कान मेरे ग़ुस्से को धीरे-धीरे पिघलाने लगी और मैं थक कर आह भर बैठा। उसने हल्की हँसी छोड़ी और हाथ उठाकर मान लिया।
“ठीक है, ठीक है… मैंने ही किया।”

 

“क्यों?” इस बार मेरी आवाज़ नर्म थी। मैं सचमुच जानना चाहता था। वो ऐसे मेरी ज़िंदगी में चली आई थी, और शायद इतने कम वक़्त में ही इतनी अहम हो चुकी थी।

 

उसकी आँखों में कोमलता झलकी।
“क्योंकि अगर मैं आज तुम्हारी मदद करूँ… तो शायद एक दिन, तुम भी मेरी मदद करोगे।” उसने हल्के अंदाज़ में कहा, चिढ़ाते हुए… वही शब्द दोहराए, जिन्हें मैंने अपने इंटेंशन्स छिपाने के लिए कभी इस्तेमाल किए थे।

 

“थैंक यू।” मैंने कहा, उम्मीद से ज़्यादा सच्चाई के साथ। शुक्रिया कहना मेरी आदत नहीं थी, मगर ये शब्द अपने आप निकल गए।

 

फिर मैंने नज़रें संकरी कीं।
“कब किया ये?”
“कल रात।” उसने बिना झिझक जवाब दिया। अगले ही पल उसे एहसास हो गया कि ग़लती कर दी… लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।

मेरे भीतर कुछ कस गया। ग़ुस्सा—हाँ, मगर उस पर नहीं। उसकी लापरवाही पर।
“मैंने कहा था सोना है, काव्या। कितनी बार कहा है, अपनी नींद को मत बिगाड़ो।” मेरी आवाज़ तेज़ हो गई, काबू से बाहर।

 

उसने हँसी में टालना चाहा।
“जय, बस एक रात की तो बात है। मैं ठीक हूँ। मैं तो बस नॉर्मल हो रही थी।”

मगर मैं ठीक नहीं था। मैं नॉर्मल नहीं हो सकता था। “नॉर्मल? नहीं। मैंने तुम्हारी रिपोर्ट देखी है।” मैंने झुकते हुए कहा, आवाज़ में झुँझलाहट काँप रही थी।
“दवाइयाँ तुम्हारे साइकिल्स डिस्टर्ब कर रही हैं। हार्मोनल मेडिसिन के बावजूद तुम्हारे पीरियड्स रेगुलर नहीं हैं। मिस सेहगल, प्लीज़… ख़ुद को चोट पहुँचाना बंद करो।”

 

उसका चेहरा बदल गया—शरारती से नाज़ुक में।
“तुम इतना क्यों परवाह करते हो? ये तो बस एक रात थी। एक ग़लती।”

मैंने उसे सच में देखा। उसके कनपटी के पास हल्के दाग़, जहाँ टाँके लगे थे। उसका हल्का-सा हिलना, पीठ को सोफ़े से पूरी तरह न टिकाना—क्योंकि अभी भी दर्द था। यादें लौट आईं: उसका बेहोश शरीर, ऑपरेशन थिएटर की फुसफुसाहटें—पीठ और सिर की सर्जरी। तीन महीने से ज़्यादा हो गए, और फिर भी वो अपने शरीर से ज़्यादा मज़बूत बनने की कोशिश कर रही थी।

 

“तुम पहले ही बहुत झेल चुकी हो।” मैंने धीरे से कहा, गला भारी हो गया।
“दो सर्जरी। वो दर्द जो लोगों को तोड़ देता है। और तुम अब भी लड़ रही हो, ऐसे दिखा रही हो जैसे कुछ मायने ही नहीं रखता। लेकिन रखता है, काव्या। मेरे लिए रखता है।” मेरी आवाज़ में देखभाल थी… और डर भी।

उसकी पलकों पर नमी चमकी, मगर उसने उसे छिपाने की कोशिश की।
“मुझे तुम्हारी सहानुभूति नहीं चाहिए।” उसने फुसफुसाया।

 

“ये सहानुभूति नहीं है।” मैंने तेज़ी से कहा, और और क़रीब झुक गया।
“ये डर है। मैं डरता हूँ, काव्या। तुम्हें खोने से डरता हूँ—तुम्हारी ज़िद से, तुम्हारी लापरवाही से। डरता हूँ कि एक दिन तुम ख़ुद को इतना धकेल दोगी कि वापसी आने का रास्ता नहीं बचेगा। और मैं… मैं ये होने नहीं दे सकता। मैं तुम्हें खो नहीं सकता।”

 

उसके होंठों पर मुस्कान आई—हल्की, काँपती हुई। मज़ाक की नहीं, बल्कि मान जाने की।
“तुम सच में परवाह करते हो, है ना?”

 

मैंने गहरी साँस छोड़ी, चेहरा हाथों में दबा लिया।
“ज़्यादा करता हूँ, उसे जितना करना चाहिए।”

 

कुछ देर तक ख़ामोशी छाई रही। उसकी मुस्कान बनी रही, अब नरम और सुकून-भरी। वो पीछे टिक गई, पहली बार गद्दों का सहारा लेते हुए—जैसे उसे यक़ीन हो गया हो कि उसकी लड़ाई का बोझ अब कोई और भी बाँट सकता है।


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काव्या

उसके शब्द मेरे मन में गूँजते रहे, बहुत देर तक, जब वो बोल चुका था। जय की डाँटने की आदत अजीब थी—वो चुभती नहीं थी, बल्कि मुझे किसी ढाल की तरह घेर लेती थी। उसकी आवाज़ मज़बूत थी, लगभग सख़्त, जब उसने मुझसे कहा कि आराम करूँ, आँखें बंद करूँ, अपनी सेहत को खिलौना बनाना बंद करूँ। उसने वादा किया कि वो मुझे दोपहर के खाने तक जगा देगा। मैं बहस करना चाहती थी, हँसी में टाल देना चाहती थी, जैसे हमेशा करती हूँ, मगर इस बार नहीं कर सकी। उसकी फ़िक्र इतनी सच्ची थी, इतनी अडिग कि पहली बार मैंने महसूस किया कि सुकून असल में क्या होता है—न मेरे खाली पेंटहाउस की ख़ामोशी, न वो ऐशो-आराम जिनसे मैं खुद को घेरती हूँ, बल्कि किसी की देखभाल में मिलने वाली गर्माहट। 

 

मैं लेट गई, आँखें बंद कर लीं। आख़िरी चीज़ जो मुझे याद रही, वो उसकी आवाज़ थी। वो मुझमें ऐसे गूँज रही थी—एसी की धीमी आवाज़ से भी मुलायम, मेरे बेक़रार ख़यालों से भी मज़बूत। उसने मुझे डाँटा था क्योंकि मैं लापरवाह थी। क्योंकि मैंने अपनी नींद, अपनी दवाइयों, अपने शरीर को कभी महत्व नहीं दिया। किसी ने मुझसे पहले ऐसे बात नहीं की थी। किसी ने इतनी परवाह नहीं की थी कि मुझसे मेरी ही वजह से लड़ सके। और उस पल, अपनी सारी जिद के बावजूद, मैं हार गई। मुझे पता ही नहीं चला कब नींद ने मुझे अपनी बाहों में ले लिया, मगर जब लिया तो वो सबसे कोमल खिंचाव था जो मैंने कभी महसूस किया था। वो मुझे खोना नहीं चाहता। धाट मिन्स अ लोट टू मी।

 

मुझे नहीं पता कितनी देर सोई। मिनट, घंटे—समय जैसे फिसल गया। लेकिन दरवाज़े की घंटी की तीखी आवाज़ ने मुझे नींद से जगाया। मेरी आँखें झपकीं, पर्दों से छनकर आती रोशनी में ढलती हुई। जय कमरे में नहीं था। घंटी फिर बजी, जैसे मुझे उठने पर मजबूर कर रही हो। मैं बिस्तर से उठी, बालों में हाथ फेरा, अब भी उनींदी थी मगर अजीब-सा ताज़ा अहसास था।

 

जब मैं लिविंग रूम में पहुँची, मेरी साँस अटक गई।

दरवाज़े पर रोनित खड़ा था। उसकी सामान्य मुस्कान ग़ायब थी, उसकी जगह कोई अजीब-सा बोझिल भाव था। लेकिन मुझे साँसें रोक देने वाली चीज़ वो नहीं था—बल्कि उसके बगल में खड़ी औरत थी। राखी। उसका सिर थोड़ा झुका हुआ था, मगर मैं साफ़ देख सकती थी। उसकी माँग में भरी चमकदार सिंदूर की लकीर, उसकी गर्दन पर सजी मंगलसूत्र की नाज़ुक चमक। ऐसे प्रतीक जिन्हें किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं थी।

 

शी वाझ मेरिड, टू हिम, टू रोनित।

 

मैं जड़ हो गई। आवाज़ें मानो गायब हो गईं, सिर्फ़ मेरे कानों में धड़कते दिल की आवाज़ बची। शादी? कब? कैसे? क्यों? मेने बोलने की कोशिश की, मगर शब्द बाहर नहीं आए। उनका एक साथ खड़ा होना जैसे किसी कहानी का हिस्सा था जिसमें मैंने शामिल होने की हामी नहीं भरी थी—एक सच्चाई, जिसके बारे में मुझे चेतावनी तक नहीं दी गई थी।

 

रोनित की नज़रें मेरी तरफ़ मुड़ीं—स्थिर, मगर पढ़ी न जा सकने वाली। राखी ने मेरी ओर देखा तक नहीं। उसकी उंगलियाँ उसके कपड़े के किनारे से खेल रही थीं, बेचैन। लेकिन उसके माथे का सिंदूर और उसकी गर्दन का मंगलसूत्र उससे कहीं ज़्यादा कुछ कह रहे थे।

 

“ये क्या…?” मेरे होंठों से फुसफुसाहट निकली, इससे पहले कि मैं समझ पाती। ये सिर्फ़ हैरानी नहीं थी— शादी। अचानक। रोनित और राखी। और वो यहाँ थे, मेरे दरवाज़े पर खड़े होकर, जय की दी हुई हर शांति का टुकड़ा-टुकड़ा कर रहे थे।

 

 

 

Continues in the next episode....