भाग 1 – जन्म, परिवार और प्रारंभिक जीवन (लगभग 2000 शब्द)
🌸 प्रस्तावना
भारत की भक्ति परम्परा में मीरा बाई का नाम अमर है। वे केवल एक कवयित्री नहीं थीं, बल्कि वे भक्ति, प्रेम और समर्पण का जीवित स्वरूप थीं। 16वीं शताब्दी का राजस्थानी समाज जहाँ वीरता और सामन्ती मर्यादाओं का प्रतीक था, वहीं मीरा ने उस कठोर वातावरण में अपने जीवन को कृष्ण भक्ति में डुबो दिया। उनके जीवन की कहानी केवल एक स्त्री की कथा नहीं है, बल्कि यह उस युग के समाज, धर्म और संस्कृति का दर्पण भी है।
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🌸 जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि
मीरा बाई का जन्म 1498 ईस्वी के आसपास राजस्थान के मेड़ता (आज का नागौर ज़िला) में हुआ था। वे राठौड़ वंश की राजकुमारी थीं। उनके पिता का नाम रतन सिंह राठौड़ था, जो मेड़ता के शासक थे। मीरा का कुल वीरता और युद्धकला के लिए प्रसिद्ध था। राजपूत समाज में स्त्रियों के लिए कड़े नियम और मर्यादाएँ थीं—वे प्रायः महलों की चारदीवारी में रहतीं, युद्ध और राजनीति से दूर, परंपराओं में बंधी हुई।
लेकिन इस वातावरण में जन्मी मीरा बाई का व्यक्तित्व बचपन से ही अलग था। बचपन से ही उनमें गहरी धार्मिक प्रवृत्ति और आध्यात्मिकता दिखाई देती थी।
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🌸 बचपन और श्रीकृष्ण से पहला परिचय
मीरा बाई की भक्ति का बीज उनके बचपन में ही बो दिया गया था। लगभग 4–5 वर्ष की आयु में ही एक घटना ने उनके जीवन की दिशा तय कर दी।
कहा जाता है कि एक दिन उनके घर में किसी विवाह समारोह का आयोजन था। छोटे बच्चों के साथ मीरा भी विवाह देख रही थीं। उन्होंने अपनी माँ से मासूमियत भरे स्वर में पूछा—
“माँ, मेरा दूल्हा कौन होगा?”
उनकी माँ ने मज़ाक में पास रखी श्रीकृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा करते हुए कहा—
“ये ही तुम्हारे दूल्हे हैं।”
यह वाक्य मीरा के बाल मन में अंकित हो गया। उस दिन से उन्होंने कृष्ण को ही अपना पति मान लिया। यही कारण था कि आगे चलकर जब उनका विवाह हुआ, तब भी वे हर परिस्थिति में अपने “सच्चे वर” श्रीकृष्ण को ही मानती रहीं।
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🌸 शिक्षा और संस्कार
राजघराने की कन्या होने के कारण मीरा को अच्छी शिक्षा मिली। उस समय राजकुमारियों को युद्धकला तो नहीं, परन्तु साहित्य, धर्म, संगीत और शास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी।
मीरा को विशेष रूप से संगीत और काव्य में रुचि थी। वे वीणा और तानपुरा बजाना जानती थीं। यही कारण है कि आगे चलकर उनके भजन और पद लोककंठ में गाए जाने लगे।
उनके परिवार का वातावरण भी धार्मिक था। राजस्थान के राजपूत समाज में वैष्णव भक्ति धारा का प्रभाव था। संत रामानंद, कबीर और सूरदास जैसे संतों की वाणी चारों ओर गूँज रही थी। ऐसे परिवेश में पली-बढ़ी मीरा स्वाभाविक रूप से भक्ति की ओर झुक गईं।
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🌸 सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
16वीं शताब्दी का भारत बहुत उथल-पुथल से भरा हुआ था। दिल्ली और आगरा में मुग़ल साम्राज्य स्थापित हो रहा था। राजपूत राज्यों में युद्ध, राजनीति और वीरता की गाथाएँ प्रमुख थीं।
स्त्रियों का जीवन प्रायः सीमित था। वे महलों के भीतर ही रहकर अपने जीवन को परंपराओं और रीति-रिवाजों में बिताती थीं।
लेकिन भक्ति आंदोलन ने स्त्रियों को भी एक नया स्वर दिया। उस समय कबीर ने निर्गुण भक्ति का संदेश दिया, तो तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से समाज को जोड़ा। सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं को गाकर लोगों का मन मोह लिया। इसी कड़ी में मीरा बाई ने कृष्ण को पति, मित्र और आराध्य मानकर भक्ति का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।
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🌸 विवाह और नई परिस्थितियाँ
मीरा बाई का विवाह किशोरावस्था में मेवाड़ के शासक भोजराज से हुआ। मेवाड़ राजपूताना की सबसे बड़ी और गौरवशाली रियासत थी। भोजराज वीर और युद्धकुशल थे। विवाह के बाद मीरा चित्तौड़गढ़ के राजमहल में रहने लगीं।
लेकिन विवाह के बाद भी मीरा का जीवन अन्य राजकुमारियों जैसा नहीं था। सामान्यतः राजकुमारियाँ अपने पति और परिवार के जीवन में रच-बस जाती थीं, परन्तु मीरा का मन तो पहले ही श्रीकृष्ण के साथ बंध चुका था। वे महल में रहते हुए भी अपने आराध्य से अलग नहीं रह सकती थीं।
कहा जाता है कि विवाह के बाद भोजराज ने कई बार मीरा को समझाने की कोशिश की कि वे राजघराने की परंपराओं में ढलें, पर मीरा का उत्तर सदैव एक ही रहता—
“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई।”
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🌸 मीरा की भक्ति की झलकियाँ
चित्तौड़ के राजमहल में रहते हुए भी मीरा ने कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार जारी रखा। वे साधु-संतों से मिलतीं, कीर्तन करतीं और आम जन से घुल-मिल जातीं।
राजघराने के लोग इसे अपने सम्मान के विरुद्ध मानते थे। उन्हें लगता था कि एक राजकुमारी का इस तरह साधुओं और जनता में बैठना उचित नहीं है।
लेकिन मीरा को इन सब बातों की परवाह नहीं थी। उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण था—श्रीकृष्ण का स्मरण और उनके चरणों में भक्ति।
उनका जीवन धीरे-धीरे संघर्षों से घिरने लगा। परंतु इस प्रथम चरण में उनकी भक्ति की मासूमियत और गहराई दोनों दिखाई देती हैं।
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मीरा बाई का बचपन, उनका कृष्ण के प्रति प्रेम, शिक्षा और विवाह तक का जीवन हमें यह बताता है कि वे जन्म से ही असाधारण थीं। साधारण स्त्रियों की तरह वे केवल सामाजिक परंपराओं में नहीं बंधीं, बल्कि उन्होंने अपने जीवन का ध्येय ईश्वर-भक्ति को बनाया।
उनकी मासूमियत भरी भक्ति की शुरुआत ने ही उन्हें भक्ति आंदोलन की सबसे बड़ी आवाज़ बना दिया।